नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
"नहीं।” दोनों ने एक साथ, अविकल एक-सी मूंडी हिला दी।
"क्यों, पढ़ने को मन नहीं करता?"
"नहीं।" "तब क्या करते हो दिन भर?"
"गाय चराते हैं, लकड़ी बीनते हैं।"
"और तुम्हारे पिता क्या करते हैं?"
इस कठिन प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ दोनों ने बड़ी विवशता से माँ की ओर
देखकर मौन आग्रह किया कि वही उत्तर दे।
“नहीं है आमा!" उसकी माँ ने ही उत्तर देकर सिर झुका लिया-उसके फटे जीर्ण
लहँगे की मग्जी, धज्जियाँ बन कर नीचे झूल रही थीं। नीली कुर्ती शायद कभी पूरी
बाँहों की रही होगी, अब अधबही बन चुकी थी। एक बाँह ऊँची और दूसरी
नीची-बटनविहीन वास्कट के दोनों पलड़ों पर लगी एक सेफ्टीपिन, उसके यौवन के
उद्दाम वेग से पराजित हो, टूटकर लटक आई थी।
"ये अभागे 'पेट मूल्या' हैं (जिनके जन्म से कुछ पूर्व ही पिता की मृत्यु हो
जाती है)-पढ़ने तो भेजा था पर पढ़ाने में भी तो रकम लगती है आमा, पाटी चाहिए,
कमेट (सफेद खड़िया) चाहिए, साफ कपड़े-जूता-मोजा-कहाँ से लाती मैं? इसी से
आपके पास आई हूँ, आप लोग फिलिम वाले लोग हैं, इनको लव-कुश का काम दिला दीजिए
बाब सैप, तुम्हारे गुण नहीं भूलूंगी-सुना, आप लोग बहुत पैसा देते हैं।"
देवेन्द्र ने हँसकर कहा, "किसने कह दिया तुमसे कि हम फिल्मवाले हैं? हम तो
तुम्हारे ही जैसे पहाड़ी हैं।"
"झूठ बोल रहे हैं इजा," अब साक्षात् लव-कुश ही जैसे धनुष बाण लिये, सीना ताने
महावीर-से मोर्चा लेने बाहर निकल आए।
"फिल्म के लोग हैं, इनके झोले में 'फोटक' खींचने की मशीन भी है।"
"अच्छा, खड़े हो जाओ तुम दोनों!" कालिंदी ने हँस कर कैमरा निकाल लिया, “आओ,
तुम्हारे फोटो खींच दें!"
"बड़ी मुश्किल से गुजारा कर रही हूँ बाब सेप!" उसने फटे पिछौड़े से आँखें
पोंछकर कहा।
कौन कहेगा, यह उनकी माँ थी? कलम की सी लिखी आकृति, गोरा रंग और हर बोल के साथ
काँपते ओंठ, "किसी तरह कूट-पीसकर इनका पेट पाल रही हूँ, बाप नहीं है इसी से
गजब के उप्पदरी (उपद्रवी) बन गए हैं। मेरा एक भाई यहीं ढोली है। शादी-ब्याह
में ढोल बजाने के साथ-साथ दरजी का काम भी करता है, वही साल में एक जोड़ी
कपड़ा इनके लिए सिल कर दे जाता है पर इनके बदन में तो काँटे हैं, आमा! अब
देखो, साल भर ही में क्या गत बना दी है इन्होंने?"
एक वर्ष में एक ही जोड़ी कपड़े! उस पर भी वह अबोध उनके फट जाने का रोना रोए
जा रही थी!
“एक नहीं सुनते ये छोकरे, मुझे तो कुछ समझते ही नहीं-घर में कोई मरद होता तो
डरते भी-उस पर मामा ने भी सर चढ़ा दिया है।"
भीमसिंह, गजैसिंह जननी के मुख से अपनी कीर्ति सुन, एक-दूसरे की ओर देखकर
मुस्करा रहे थे। चलते-चलते अन्नपूर्णा थैले से एक सौ का नोट निकाल उसे थमाने
लगी तो वह पीछे हट गई।
"नैं हो आमा, कभी तुम्हारा कोई काम तो किया नहीं, इतनी बड़ी रकम कैसे ले
लूँ?"
“तूने मुझे आमा कहा है न? नहीं लेगी तो मुझे बहुत बुरा लगेगा। इनके लिए मेरी
ओर से कपड़े बनवा देना, और खूब जलेबी खिला देना।" अन्ना ने जबरन नोट उसके हाथ
में थमा, उसकी मुट्ठी बन्द कर दी।
दोनों भाई तत्काल माँ की बन्द मुट्ठी खोलने एक साथ झुक गए“कतुक दे इजा,
कतुक?" (कितना दिया माँ, कितना?)
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