नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
न जाने कितने छोटे-छोटे मन्दिरों की प्रदक्षिणा कर, वह जिस मुख्य मन्दिर में
पहुँची, उसकी दीवारें ही अब उस प्रस्तर वैभव की साक्षिणी बनी खड़ी थीं।
बैजनाथ की सर्वोत्तम मूर्ति भगवती को देखा तो वह निर्वाक् खड़ी ही रह गई।
सामान्य-सी खंडित होने पर भी आकृति के निर्भीक उभार में, पैरों की दृढ़ता
में, महिमामय मुख की रेखाओं में कैसा अद्भुत तेज था! कौन रहा होगा इसका
सुदक्ष मूर्तिकार, क्या यह भव्य स्मित, मोनालिसा के विश्वविख्यात स्मित से
कुछ कम था? फिर भी इस अरण्य में अनाघ्रात पुष्प-सी अवहेलित पड़ी इस मूर्ति की
ओर हमारे कला-मर्मज्ञों का ध्यान अब तक क्यों नहीं गया? दीदारगंज की यक्षिणी
तो विदेशों में आयोजित भारत उत्सवों में न जाने कितनी बार जाकर अपनी यश-पताका
फहरा आई है पर धातु में उकेरी गई जीवंत प्रतिमा में जो विजय का अनोखा उल्लास
है, स्मित भंगिमा में जो आध्यात्मिक गरिमा का तेज है, पाप के ऊपर पुण्य की
विजय का जो अमर सन्देश है, उसे क्या हमारी कलांध आँखें कभी नहीं देख पाएँगी?
कालिंदी को लगा, वह मूर्ति केवल निष्प्राण मूर्ति नहीं है, अपने में बहुत कुछ
समेटे खड़ी है, केवल अपना भार, अपना आयतन ही नहीं, पहाड़ के कठिन मौसमी
आघातों को सहने की अद्भुत क्षमता, अपने स्रष्टा का, अपने अनामा मूर्तिकार का
समग्र जीवन, उस युग का समस्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य लिये भगवती खड़ी हैं-कौन
रहा होगा, ऐसा दिव्य शिल्पी, कुमाऊँ का माइकेल ऐंजेलो जो बिना अपने हस्ताक्षर
किए ऐसी भव्य मूर्ति बनाकर, स्वयं कालगर्त में अदृश्य हो गया! मन्दिर के बाहर
और भीतर कई छोटे-छोटे शिवलिंग बिखरे पड़े थे, पत्थर पर बने दर्शनीय शतदल कमल,
विराट घंटे की गुरु गम्भीर ध्वनि उन्हीं कमलों की पंखुड़ियों से टकराती पूरे
खंडित प्रस्तर वैभव को और प्रखर बना रही थी।
दर्शन कर वे बाहर निकले तो देखा, उनकी उतारी गई चप्पल-जूतों के पास स्वेच्छा
से प्रहरी बने, दो एक-से दिख रहे देवदूत-से बालक खड़े हैं। बहती नाक, जिसे वे
बार-बार फटे कोट की बाँहों से पोंछ रहे थे, गोरे मक्खनी चेहरों पर मैल की
रेखाएँ और कौतूहल से चमक रही खरगोश-सी आँखें। उन्हें देखते ही दोनों ने
चप्पलों की देख-रेख का टैक्स उघाने, बिना कुछ कहे अपनी नन्ही-नन्ही हथेलियाँ
फैला दीं।
“यह लटका, शायद इन्हें यहाँ कभी भूले-भटके आ गए टूरिस्ट ही सिखा गए हैं,"
देवेन्द्र ने हँसकर उन दोनों के हाथों में पाँच-पाँच का एक-एक नोट थमा दिया।
ऐसा उदार पारिश्रमिक शायद उन्हें इतिपूर्व कभी नहीं मिला था।
आश्चर्य से उनकी आँखें ही बाहर निकल आईं। फिर एक सेकेंड रुके बिना, वे अपनी
पेटीविहीन ढलायमान जीर्ण पैंट सम्हालते तीर से भागने लगे। “इजा वे,” वे
चिल्लाते जा रहे थे, “पाँच रुपै, पाँच रुपै, फिल्मी वाल ऐरई।" (माँ, पाँच
रुपए मिले हैं, फिल्म वाले आए हैं।)
उनका उत्तेजित स्वर सुन, कालिंदी जोर से हँसने लगी, “मामा, लगता है, आज तक
इन्हें ऐसी टिप पहले कभी नहीं मिली-पर कितने सुन्दर हैं दोनों! गाल देखे?
जैसे रंग लगाया हो!"
मन्दिर के चबूतरे पर बैठ, वे खाना खा रहे थे कि कालिंदी ने देखा कि दोनों
चप्पल के रखवाले, झााड़ी में दुबक, उन्हें एकटक देख रहे हैं।
“आओ न यहाँ, लो तुम भी खाओ।” उसने कुछ पूड़ियाँ उठाकर उनकी ओर बढ़ाईं। वे उस
आह्वान को व्यर्थ कर, एक बार फिर तीर से छटक अदृश्य हो गए।
खाना खाकर, वे जाने की तैयारी कर रहे थे कि चप्पल रक्षकों की युगल जोड़ी फिर
उपस्थित हो गई। इस बार बुलाने पर वे भागे नहीं, साहस शायद कुछ बढ़ गया था, इस
बार साथ में उनकी माँ भी थी।
“ये तुम्हारे भाई हैं क्या?" कालिंदी ने पूछा तो मोती से दाँत दिखाकर वह हँस
पड़ी, "मेरे बेटे हैं लली।"
“हाय राम, पर तुम तो बहुत छोटी लगती हो।"
"छोटी कहाँ हूँ, बाईस बरस की हो गई हूँ, इसी पूस में तेईसवाँ लगेगा।"
"ये जुड़वाँ हैं क्या?" अन्नपूर्णा ने हाथ पकड़कर दोनों को बड़े प्यार से
अपने पास बिठा लिया।
"हाँ, आमा, ज्यौंला (जुड़वाँ) छन।"
"क्या नाम है रे तुम्हारा?"
"भीमसिंह, गजैसिंह।"
"स्कूल नहीं जाते?"
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