नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
"तेरा भाग्य सचमुच ही अच्छा है चड़ी," देवेन्द्र उसके पास कुर्सी खींचकर बैठ
गए, “पिछली बार हम यहाँ आए तो दिन-भर घने बादल छाए रहे, शाम को कोहरा, एक भी
बर्फीली चोटी नहीं दिखी-लो, ये लोग भी आ गए।"
“अरे देबी, आज तो हिमालय महाराज सचमुच ही खुश हैं हम पर।"
“यही तो इससे कह रहा था दीदी, हिमालय भी तो सन्त हैं री चड़ी और बिनु हरिकृपा
मिलहि नहीं सन्ता! भई, चाय मँगवाई जाए, यहाँ म्यूजिक डिरेक्टर सिरी जगतसिंह
तो हैं नहीं।"
थोड़ी ही देर में डाकबंगले का बैरा, स्वच्छ सलीके से चाय लाकर रख गया।
“भई, हम चाहे अंग्रेजों को लाख कोसें, हमें सलीके से रहना, खाना-पीना तो सिखा
ही गए। यही नहीं, ये सिखे अदब-कायदे से दुरुस्त बैरों की आचार-संहिता भी
उन्हीं की देन है जो कम से कम पहाड़ों में पीढ़ी दर पीढ़ी वैसी ही चली आ रही
है। तुम पहाड़ के किसी डाकबंगले में चली जाओ चड़ी, किसी इन्स्पेक्शन हाउस
में, तुम्हें यह सिखे-पढ़े अदब-कायदों से दुरुस्त अनुचर अवश्य मिल जाएँगे।”
"कितना सुन्दर बना है यह डाकबंगला मामा-एकदम कन्ट्री हाउस!"
"होगा क्यों नहीं? अठारहवीं शताब्दी का बना है पर दीवारें कैसी ठोस खड़ी हैं।
किसी जमाने में यह कुमाऊँ के कमिश्नर का बंगला था-इसी से अब भी ज्यों का
त्यों धरा है-जैसे ठोस उस युग के बुजर्ग होते थे वैसी ही ठोस उस युग की
इमारतें-न अन्त तक उनके दाँत टूटते थे, न इन इमारतों की ईंटें।"
“ठीक कह रहा है तू, हमारे बाबू भी तो उस उमर में अपनी पूरी बत्तीसी लिये चिता
चढ़े थे-और आज के जवान लड़के-लड़कियों को देखो, तीस तक भी नहीं पहुँचते कि
बाल पककर कपास!"
अन्नपूर्णा, बड़ी-बड़ी टोकरियों में खाना भरकर लाई थी पर भूख भी तो . उसी
टक्कर की लग रही थी-अभी खाओ और अभी हजम।
एक रात वहीं बिताकर निकले तो दूर दिख रही गरुड़ की घाटी, विवसना सुन्दरी-सी
पड़ी थी-बस टेढ़े-मेढ़े सर्पिल रास्ते से नीचे उतरती जा रही थी-बाँज के
वृक्षों के झुरमुटों को पीछे छोड़, उनका स्थान अब चीड़ के वृक्षों ने ऐसे
कौशल से ग्रहण कर लिया था जैसे एक गारद को ड्यूटी से मुक्त कर, दूसरी टुकड़ी
उनका स्थान ग्रहण कर लेती है। हिमालय के रजत शिखर पर अब गोधूली की रक्ताभ आभा
प्रतिभासित होने लगी थी। गोमती के इस पार फैली गरुड़ की छोटी-सी घाटी
नन्ही-नन्ही दुकानों से भरी थी-कालिंदी ने एक साथ कितनी ही मालाएँ, रंगीन
फुन्दे, चूड़ियाँ खरीद लीं। खेत, नाले पार कर उनकी बस ने सहसा गति धीमी कर
ली-सामने दिख रहा गोमती का लोहे का झूलापुल, एकदम खिलौना लग रहा था।
"यह प्रथम विश्वयुद्ध के समय बना था चड़ी।" मामा किसी दक्ष गाइड से चहकने लगे
थे, “उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में, हमारे अंग्रेज नन्दनों ने यहाँ की
आबोहवा और धनागम की खुशबू को अपने शिकारी नथुनों से सूंघ इसे अपना पहला
अंग्रेज उपनिवेश बनाना चाहा था, पर बना नहीं सके।"
"हाय मामा, आपने यहीं वंगला क्यों नहीं बनाया-मुझे तो यह जगह कौसानी से भी
सुन्दर लग रही है-जी में आ रहा है, नौकरी छोड़-छाड़ यहीं अपना क्लीनिक खोल
लूँ।'
"लो, और सुनो दीदी!" शीला ने हँसकर कहा, “अरी तू क्लीनिक खोल भी लेगी तो क्या
तुझे यहाँ मरीज मिलेंगे?"
"क्यों? मिलेंगे कैसे नहीं?"
कालिंदी ने खीजे स्वर में पूछा तो देवेन्द्र ने हँसकर कहा, "नहीं मिलेंगे
भानजी-यहाँ भला कोई बीमार पड़ सकता है? यह दयार बाँजे की हवा ही तो इनकी दवा
है और यह अद्भुत वनखंड है इनका क्लीनिक-अभी तूने बैजनाथ नहीं देखा-जब कौसानी
में चाय के बगीचे लहलहाते थे तब बैजनाथ था हमारे देवताओं का समर रिजोर्ट-बस,
फिर अंग्रेजों की लार टपकी और उसी नोंचखसोट ने हमारे उन भव्य मन्दिरों को
खंडहर बना दिया-बूटधारी सूर्य की विलक्षण मूर्ति तुझे भारत-भर में और कहीं
नहीं मिलेगी।
“सदानीरा गोमती की क्षीण धारा, शायद इसी देवभूमि में सहमकर कभी हिंसात्मक रूप
धारण नहीं कर पाई-किया होता तो ये मन्दिर आज तक कब के बह गए होते, चड़ी!”
मामा एक छोटे से भग्न मन्दिर के पथरीले आँगन में बैठकर सुस्ता रहे थे, और
उनके घुटनों से सटी चड़ी चुपचाप बैठी एक-एक मूर्ति का इतिहास सुन रही थी।
"इस बैजनाथ का पुराना नाम क्या था, जानती है? कार्तिकेयपूर-उसी का अपभ्रंश
बना कत्यूर-यहाँ नवीं शताब्दी की प्रतिहारयुगीन मूर्तियाँ हैं-चल, तुझे दिखा
दूं।"
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