नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
एल्फी की मृत्यु ने पूरे घर को अब तक निष्क्रिय बना रखा था, कालिंदी ने आते
ही सारी मनहूसी झाड़-पोंछ कर बुहार दी। जैसे भी हो, इन सबको कहीं दूर घुमाने
उसे ले ही जाना होगा, नहीं तो मामा अपने प्रिय मित्र की यादों में घुल-घुलकर
स्वयं बीमार पड़ जाएँगे।
"देखो मामा, मैं यहाँ घूमने, इन्ज्वॉय करने आई हूँ, तुम बूढ़ों के साथ बैठकर
आग तापने नहीं-मैं आज ही जाकर टैक्सी की व्यवस्था कर आती हूँ, बसन्त मामा को
भी चलना होगा-ही नीड्स ए चेंज।"
और फिर वह दूसरे ही दिन वसन्त मामा सहित पूरे घर के लिए बस के टिकट खरीद लाई
थी। टैक्सी वालों के नखरों का शेष नहीं था-कहाँ-कहाँ जाएँगे, कितने दिन
रुकेंगे, कब लौटेंगे? इतना किराया होगा, ड्राइवर, कन्डक्टर के खाने की
व्यवस्था करनी होगी, अपने साथ-साथ उनके ठहरने का भी डाकबंगलों में प्रबन्ध
करना होगा-नथिंग डूइंग-वह स्वगत बड़बड़ाने लगी थी-जहाँ सरकारी पर्यटन विभाग
के चालकों के ही ऐसे नखरे हों, वहाँ क्या खाक टूरिज्म पनपेगा? पैसा, पैसा और
पैसा-पहाड़ क्या कुछ अधिक ही लोलुप बना जा रहा था? फिर भी, इस शहर में न जाने
कौन-सा जादू था कि अपनी समस्त खामियों के बावजूद, वह उसे उतना ही प्रिय लग
रहा था। अपनी समस्त क्लांति, अपमान की वेदना, माधवी की प्रवंचना सब कुछ यहाँ
आते ही वह भूल-बिसर गई थी।
"हमारा पहला पड़ाव कौसानी होगा। सुना है, गजब की जगह है। आपने कहा था, आप
मुझे कभी वहाँ ले चलेंगे, आप तो ले नहीं गए, चलिए, मैं ही आप सबको लिए चलती
हूँ। और फिर जाएँगे गरुड़, बैजनाथ और फिर तेरह-तेरह हजार फीट की ऊँचाई वाले
पर्वतों पर, जहाँ वनस्पति भी न दिखाई दे।"
फिर तो वह जितनी ही बार पहाड़ का वह दिव्य रूप देख रही थी, प्रत्येक मोड़ पर
उतनी ही बार प्रकृति उसे अपनी भव्य छटा के बहुरूपी रूप से मंत्रमुग्ध किए जा
रही थी। बर्फ से ढकी नन्दादेवी, त्रिशूल, कामेत, चौखम्भा, दूनगिरी, बंदरपूंछ,
स्वर्गारोहण, सतोपन्थ, गंगोत्री, यमनोत्री, काठा और बलखाती पेन्सिल स्केच-सी
क्षीण-कलेवरी नदियाँ।
कहीं बस रुकती, तो वह उत्तेजित बालिका-सी, चाय की दुकान पर सबको खींच ले
जाती-कभी अंग्रेजी के हास्यास्पद हिज्जों में लिखा गया होटल का नाम उसे मुग्ध
कर जाता, कभी उसे आँखें फाड़कर देख रहे होटल में चाय पी रहे सरल पहाड़ी
यात्रियों की विस्फारित दृष्टि!
“सनफ्लौर रेस्टोरेन्ट, श्रीमान जगतसिंह बिष्ट के इस होटल में, सिरी
दिलीपकुमार और विजन्तीमाला ने मधुमती की शूटिंग में चाय पी है। अब इस
क्रेडेंशियल के बाद यहाँ चाय कैसे न पी जाए मामा?"
मक्खियों के सुदीर्घ साहचर्य से एकदम काली बन गई मिश्री की डलियाँ,
आलू-रायता, प्याज की पकौड़ियाँ खाते-खाते कालिंदी ने उस वाचाल होटल मैनेजर से
उसके सनफ्लोर रेस्टोरेन्ट का पूरा इतिहास ही उगलवा लिया था।
“ओहो लली, तुम तो पहाड़ी हो, तुम्हें बताने में कैसा दुराव-छिपाव! वह जो गाना
है ना उसमें, पापी बिछुवा वाला? वह मैंने ही उन्हें गाकर सुनाया था, असल में
पहाड़ी गाना ही गाया था मैंने 'बिशनुवा चौकीदारा'-बस, टप्प से चुरा लिया
सालों ने, देसी जो ठहरे, आँख का काजल भी चुरा लें तो कम, तीस-चालीस की चाय पी
और सवा सौ का गाना ले गया, उस पर कहीं साले जगतसिंह का नाम नहीं-घरवाली बहुत
नाराज हुई थी, हमसे कहने लगी-बिष्टज्यू, जिन्दगी भर मूरख ही रहोगे तुम-पर
बताओ लली, मैं कर भी क्या सकता था! किससे कहता कि सरासर चोरी की है सालों ने,
यह 'टून' तो मेरी है-एकदम मेरी।"
“तुम अब भी गाते हो जगतसिंह जी?” कालिंदी ने बड़े मीठे अनकहे आग्रह से
उकसाया।
“नहीं! बस, उसी दिन, जब नैनीताल जाकर मधुमती देखी तो हमने कहा-जगतसिंह बिष्ट,
आज से गाना तो दूर, तुम गुनगुनाओगे भी नहींएकदम फुलस्टॉप...”
जगतसिंह ने जैसे उसकी बैटरी रिचार्ज कर दी थी-बस चली तो वह खुली खिड़की पर
चिबुक साध, एक बार फिर प्रकृति की अनुपम छटा को मुग्ध होकर निहारने लगी।
पहाड़ी वनस्पतियों से परिपूर्ण शिलाखंडों पर धूप आँख-मिचौली कर रही थी-कभी
सहसा घिर आया मेघखंड सूर्य को ढक लेता और कभी स्वयं उसे मुक्त कर, उजली धूप
से पूरे वनखंड को उजला कर छोड़ जाता। उपत्यकाओं में प्रहरी से खड़े चीड़,
देवदार, बाँज, बुरुंश, भोज, कैल, खरसू और शाल के भव्य वृक्ष, कन्धे से कन्धा
मिलाए परेड कर रहे फौजियों से ही चलायमान बस के साथ-साथ चल रहे थे-लेफ्ट
राइट, लेफ्ट राइट, लेफ्ट
...बर्फ से ढके ढालू धवल पर्वत और सीढ़ियों पर बने घरौंदों से नन्हे-नन्हे
घर-ये सब, हिमालय के कितने विराट सौन्दर्य को अपने में समेटे हैं! वह सोच रही
थी, कैसी रहस्यमयी आत्मीयता है, जो हर घेरघुमावदार मोड़ पर, बिछुड़े मित्र सी
उसे बाँहों में बड़ी आतुरता से बाँधने चली आ रही है।
कौसानी पहुँची तो सामने नगाधिराज के श्वेत हिममंडित शिखर उसे इतने निकट लगे
कि जी में आया, दौड़ कर उन्हें छू ले। डाकबंगला ऊँची चढ़ाई पार करने पर ही
मिला। अन्नपूर्णा शीला का हाथ पकड़ बैठती-बैठती कुछ देर में पहुँची-कालिंदी
मामा के साथ पहले ही पहुंच गई। पत्थर के चबूतरे पर धरी कुर्सी पर बैठते ही
लगा, सामने बिखरे दिव्य दृश्य ने सारी थकान, पलक झपकाते ही दूर कर दी है।
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