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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


तीनों मित्रों का कैशोर्य जैसे अंगड़ाई लेकर, आँखें मलता फिर चैतन्य हो उठा था।

"देख रे देबी, तुम दोनों भी जानते हो और मैं भी जानता हूँ कि हम तीनों में से सबसे पहले मुझे ही जाना होगा-ठीक भी है, जब चार सौ मीटर की रेस में मैंने हमेशा तुम दोनों को पछाड़ा है तो आज इस रेस में तुम्हें कैसे आगे आने दूँ?" वह हँसा और आसन्न मृत्यु की कगार पर खड़े उस विवश मित्र की वह करुण हँसी, दोनों को गुमसुम बना गई। उसे किसी विस्मृत प्रसंग के उल्लेख से गुदगुदाने का भी साहस, फिर उन्हें नहीं हुआ। कमरे में एक जीरो पावर का बल्ब जल रहा था। विचित्र ढंग से सफेद साड़ी के दुपट्टे नीले किनारे से आधा ललाट ढाँपे, एक परिचारिका, तामचीनी की सफेद प्लेट में एल्फी का खाना रख गई। जगह-जगह से प्लेट का इनैमल छूटकर, काले-काले धब्बे निकल आई प्लेट में, दो चमड़े-सी सूखी रोटियाँ धरी थीं, एक वैसी ही चिलमचीनुमा नन्हीं कटोरी में, पतले शोरबे में तैरते आलू के टुकड़े और भद्दे ढंग से कटी प्याज! कैसे खा पाएगा यह सब?

देवेन्द्र ने मुँह फेर लिया। वर्षों पूर्व चौरस्टड की हाफ पैंट की जेब में, अकड़ से हाथ डाले, उसे ऑमलेट खिलानेवाला वह स्नेही एल्फी कहाँ खो गया था...कहाँ?

दोनों मित्र बड़ी रात तक उसे मनाते रहे, "तुझे हमारे साथ चलना ही होगा एल्फी..."

"नहीं, मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा-मैं यहाँ बड़े सुख से हूँ।"

"सुख से?" देवेन्द्र झुंझला पड़ा था, “यह सब सुख है?" जीर्ण लाल कम्बल से ढंकी छाती तेज साँस के वेग से काँप रही थी, कागज-से सफेद हाथ एक दूसरे से गुंथे निष्क्रिय पड़े थे, न जाने कितने दिनों से दाढ़ी नहीं बनी थी, सूखे-रूखे बाल, गड्ढे में धंसी आँखें, पिचके गाल और बीच-बीच में उठ रही खाँसी का दौरा जो उसे कुछ क्षणों के लिए निष्क्रिय बनाकर निढाल किए दे रही थी।

अँधेरे सीलन-भरे कमरे में एक अजीब-सी दुर्गंध का भभका असत्य लगने लगा। खिड़की पर एक अधफटा पर्दा झूल रहा था। दीवाल पर सूली पर चढ़े ईसामसीह का एक रंग उड़ा विवर्ण चित्र! कभी यही हल्द्वानी तीनों मित्रों के लिए बम्बई थी। एक बार तीनों एक साथ भागकर बिना मोटर का टिकट लिये ही यहाँ घूमने आ गए थे और काठगोदाम के स्टेशन में जीवन में पहली बार ट्रेन के दर्शन तीनों ने एक साथ किए थे। जब अल्मोड़ा लौटे तो लगा था, लन्दन घूमकर आए हैं।

आज वही हल्द्वानी उनका दम घोटे दे रही थी। एल्फी अन्त तक अपनी अकड़ पर ऐंठा रहा। देवेन्द्र फिर चुपचाप उसके सिरहाने एक बन्द लिफाफा एक चिरकुट के साथ छोड़ आया था।

"एल्फी, तुमने अपने मित्र की यह तुच्छ भेंट स्वीकार नहीं की तो मुझे बहुत दुख होगा।"

एल्फी ने दोनों मित्रों को हँसकर विदा ही नहीं दी-बड़ी देर तक उन दोनों के हाथ थामे रखे थे।

"एक बात अब समझ में खूब आ रही है, आदमी को उसकी बीमारी नहीं मारती, पुरानी यादें मारती हैं। तुम दोनों को एक साथ देख, एक बार फिर बीते दिन लौट आए हैं, पर क्या उन यादों का बोझा मैं अब सह पाऊँगा?"

उसने ठीक ही कहा था, वह दुर्वह बोझ वह नहीं सह पाया-तीसरे ही दिन देवेन्द्र को वह कार्ड मिल गया, जिसमें अपना पता लिख वह सिस्टर को थमा आया था कि मित्र की कुशल उसे भेजती रहे। कार्ड में संक्षिप्त सूचना की एक ही पंक्ति थी कि सोमवार की रात को मि. एल्फी ब्रीथ्ड हिज लास्ट!

एल्फी की मृत्यु दोनों मित्रों को गहन शोक में डुबो गई थी। अब वे नित्य की भाँति न शतरंज ही खेल पा रहे थे, न सांध्यकालीन भ्रमण का ही साहस सँजो पा रहे थे। अल्मोड़ा की हर सड़क, हर मोड़, हर जंगल में तो उनके उस जिन्दादिल मित्र के अमिट हस्ताक्षर ज्यों के त्यों धरे थे-सिटौली, बल्टौटी, कर्क एंड टैप्ले, ब्राइटन कॉर्नर!।

ठीक ही कहा था उसने, आदमी को बीमारी नहीं मारती, उसकी पुरानी यादें मारती हैं।

कालिंदी के आने की सूचना उन्हें हल्द्वानी जाने से पहले ही मिल चुकी थी-“अब की बार, पूरे दो महीने की छुट्टी पर आ रही हूँ, तुम सबको ऐसा जमकर बोर करूँगी कि खुद ही पूछने लगोगे-भानजी, तू कब वापस जा रही है!"

पर इस बार भी वह बिना किसी को बताए, नियत तिथि से दो दिन पूर्व ही सूटकेस लटकाए द्वार पर खड़ी हो गई थी।

"देखा मामी, कैसा सरप्राइज दिया है तुम सबको! ऐसे आने का कुछ और ही आनन्द है। क्यों, है न मामा?"

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