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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


इधर वह काम पर जाती तो उसे लगता, सब उसे ही देखकर हँस रहे हैं। क्या पता अखिलेश ने पलीता लगा ही दिया हो!

माधवी और उसे सब ‘स्यामीज ट्विन्स' कहते थे, इधर जैसे किसी अदृश्य दक्ष शल्य-चिकित्सक ने उन्हें बड़ी बेरहमी से विलग कर दिया था।

माधवी उसे देखती भी तो बड़ी अवज्ञा से मुँह फेर लेती और अखिल को तो उसने फिर उस घटना के बाद, देखा ही कहाँ था! जिस दिल्ली में कभी उसके प्राण बसते थे, उसी से बाहर निकल कहीं दूर भागने को अब उसके वही प्राण छटपटाने लगे थे। दिन-भर तो काम में कट जाता पर घर लौट कमरे का ताला खोलती तो उसे लगता, वह किसी कैदखाने में लौट आई है। ऐसी असहाय विवशता ने पहले उसे कभी व्याकुल नहीं किया था-माधवी के अप्रत्याशित व्यवहार ने उसे जैसा आघात दिया था, उसे वह भूल नहीं पा रही थी। जहाँ रात को पलंग पर लेटती, उसे लगता, बड़ी-बड़ी आँखों से आग बरसाती, माधवी उसे भर्त्सनापूर्ण दृष्टि से देखती, उसके सिरहाने खड़ी हो गई है। कभी-कभी वह बिस्तर छोड़, खिड़की खोलकर खड़ी हो जाती, वह सड़क शायद दिल्ली की सबसे मुखर सड़कों में से एक थी-चौराहे का एक मोड़, सीधे हवाई अड्डे तक जाता था, इसी से रात-आधी रात निरन्तर कारों का तांता लगा रहता। जान-बूझकर ही उसने इधर मामा को चिट्ठी नहीं लिखी थी। मामा को वह जानती थी, कहीं भूले से भी भानजी की यत्न से छिपाई गई वेदना चिट्ठी में रेंग गई तो वे फौरन उसे खींचकर घर ले चलेंगे।

कुछ ही महीनों में उसका सहज स्वच्छन्द जीवन कैसे उलट-पुलट गया था! जीवन और मृत्यु की जटिलता, अपमान, दुख, सुख-शान्ति का अभाव बोध-क्या-क्या नहीं देख चुकी थी वह!

गरमी की छुट्टियों में अभी पूरा एक महीना बाकी था। इस बार जैसे ही कड़ाके की ठंड पड़ी थी, ऋतु-परिवर्तन उसी होड़ में आग बरसाने लगा था, अप्रैल आधा भी नहीं बीता था, पर पेड़ों के पत्ते किसी क्रूर दैवी आदेश से धमककर सहम गए थे। हवा का एक झोंका भी नहीं। उधर बिजली का पंखा, मेहताब आतिशबाजी की-सी गर्म फूत्कार से प्राण कँपाए दे रहा था। शारदा की छोटी बहन मोना, बड़ी बहन के साथ डे स्पेन्ड करने आई थी, इतवार की छुट्टी में वह अलस पड़ी कुछ देर से ही उठी थी और दोनों बहनों का एक-सा कंठ-स्वर स्पष्ट हो, कानों में हथौड़ा पीटने लगा था। जब वह कार से उतरी तो वह कार का शब्द सुन खिड़की पर खड़ी हो गई थी, कहीं सब कुछ भूल-बिसर, अपनी मारात्मक भूल पर पछताती माधवी तो नहीं आ गई? शब्द तो उसी की मारुति का था, रंग भी वही! फिर उस अपरिचिता को देखते ही वह स्वयं हट गई थी पर दोनों ने उस संक्षिप्त झलकी में भी एक-दूसरे को देख ही लिया था।

मोना अपनी बड़ी बहन की तुलना में निश्चित रूप से अधिक आकर्षक थी-बड़े सलीके से पहनी गई फीरोजी औरगैंडी की साड़ी, उसी से मेल खातें स्लीवलैस ब्लाउज से निकली उसकी पुष्ट गोरी भुजाएँ और आँखों पर धूप का चश्मा-एक भुजा पर सोने का मोटा अनन्त था, नाभि स्पर्श करती सोने की दुलड़ी चेन ऐसे झकाझक दमक रही थी, जैसे अभी-अभी किसी झवेरी के शोकेस से निकाल गले में डाली हो।

प्लक किए भ्रूभंग को धनुष की प्रत्यंचा-सा उठा उसने कालिंदी की ओर ही पहला तीर साधा था! वयस चालीस के ऊपर ही होगी, शरीर मेदाक्रान्त न होता तो सत्ताईस-अट्ठाईस की लगती पर उन्नत उदर और प्रशस्त कटि के बीच झूल रही मेद की दुहरी-तिहरी परतों ने शरीर की प्रौढ़ वयःसन्धि को कुछ अधिक ही प्रखर बना दिया था। अठन्नी के आकार की दक्षिणी कंकु की बिन्दी, चेहरे को और पृथुल कर गई थी।

“जीजी, तुम्हारी टेनेन्ट इज गुडलुकिंग-तुमने कभी फोन पर भी नहीं बताया, जीजा को बचाकर रखना, समझीं?" और फिर दोनों बहनों की सस्ती चुहल के उत्तर-प्रत्युत्तर सुन, वह मन-ही-मन खीज उठी-आज ही मरना था उसे, इतवार की छुट्टी भी गई!

"तेरी बातें, बचाऊँ कैसे? जब देखो तब बालकनी में खड़े रहते हैं। कल मैं नर्सरी से कुछ पौधे लेने गई, मंगु से कह गई थी कि साहब को चार बजे चाय दे देना-तुझे तो पता है, तेरे जीजा को ठीक चार बजे चाय चाहिए-मैंने लौटकर मंगू से कहा-क्यों रे, साहब को चाय दे दी थी? तो हरामजादा हँस कर कहने लगा-जी, माँ जी, मैं तो पौने चार ही में चाय देने आ गया था पर साहब तो बरसाती वाली मिस साहिब के कमरे में चाय पी रहे थे, मैं फिर क्वार्टर में जाकर सो गया।"

"मेरी समझ में एक बात नहीं आई जीजी, बुरा न मानो तो कहूँ?"

"अब क्या बुरा मानूँगी! कभी क्या तेरी किसी बात का बुरा माना है?"

"मैं जब तुम्हारे साथ थी, तुम जीजा के मुँह में थोबड़ा बाँधे उनके साथ-साथ रहती थीं, मेरा भी विश्वास नहीं था तुम्हें। अब इस बला को क्यों पाल लिया? आखिर कितना किराया मिल जाता है तुम्हें? एण्ड व्हाई डु यू नीड इट?"

कालिंदी और नहीं सुन सकी। वह जिन कपड़ों में थी, उन्हीं में बाहर निकल गई-निरुद्देश्य। जहाँ दोनों पैर ले जाएँ, वहीं चली जाएगी और तव ही लौटेगी जब वे दोनों बहनें बिछुड़ जाएँगी।

जब कभी उसका विभ्रान्त चित्त अशान्त होता, वह अपनी उसी निभृत वनस्थली में जाकर घंटों बैठी रहती-दूर-दूर तक चिड़ही का बच्चा भी नहीं। बस, गरमी की वही चिड़िया बीच-बीच में उस निःस्तब्धता को भेदती टहूँक उठी...टुटुटटटी, टुटुटटी-कभी माधवी ने इस चिड़िया का नाम धरा था- 'इम्तहान की चिड़िया'। जहाँ वह बोलना आरम्भ करती, तीन-चार दिन के बाद ही परीक्षा का नोटिस निकल जाता।

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