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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


जन-कोलाहल से अछूती ऐसी कोई जगह दिल्ली में हो सकती है, क्या कोई कभी सोच भी सकता था? कभी-कभी अवसन्न चिताओं की धुंधली क्षीण धूम्ररेखा, अगरबत्ती के धुएँ-सी कुंडली मारती, शून्याकाश में विलीयमान हो जाती, बहुत दूर से आती, कभी ऊँची और कभी धीमी करुण गूंज-'राम नाम सत्य है, गोपाल नाम सत्य है!'

घर लौटी, तो मिसेज वर्मा की बहन अपनी जैनी ससुराल में लौट चुकी थी।

उसका कमरा पूर्ववत् शान्त बन गया था। दिन का खाना वह कैन्टीन में खाती थी, रात को कभी सैंडविच खा लेती, कभी सूप ही पीकर सो जाती। एक बार मि. वर्मा ने उससे कहा भी था-"इस उम्र में तो बड़ी भूख लगती है डॉक्टर पन्त, तुम सैन्डविच खाकर ही कैसे रह लेती हो? रात का खाना हमारे साथ क्यों नहीं खा लेती? हमें तो खुशी ही होगी, रंजना के जाने के बाद अकेले खाना अच्छा नहीं लगता-क्यों, है न शारदा?" उन्होंने बड़ी ललक से समर्थन के लिए पत्नी की ओर देखा।

पर शारदा केवल एक भावहीन हूँ' कहकर भीतर चली गई थी।

"थैक्यू अंकल!" उसने बड़ी विनम्रता से उनका प्रस्ताव तत्काल फेर दिया था, "मेरी ड्यूटी कभी दिन की रहती है, कभी रात की, फिर मुझे रात को हल्का खाने की आदत पड़ गई है।"

उसी रात को फिर उसने मि. वर्मा को उनके औदार्य के लिए पुरस्कृत होते भी सुन लिया था-आधी रात तक भुन्न-भुन्न लगा शारदा ने न उसे सोने दिया था, न पति को!

"तुम्हारे दिमाग में क्या अब भी गोबर भरा रह गया है जी? न जाने कैसे फौरिन सर्विस में आ गए-कौन कहेगा, तुम फर्स्ट सेक्रेटरी रह चुके हो! क्या जरूरत थी उससे कहने की कि रात का खाना हमारे साथ खा लो! मान. लो, छोकरी हाँ कर देती, तब?"

“अच्छा, शारदा, प्लीज, अब सोने दो-तुम जानती हो कि इस कमरे की हर फुसफुसाहट बगल के कमरे में बड़ी आसानी से पहुँच जाती है-उसे तो सोने दो, मुफ्त में नहीं रहती, किराया देती है, समझी? दिन-भर खटकर थकी-माँदी लौटती है. बेचारी।"

“अच्छा, तो अब वह बेचारी भी हो गई! मैं ही हूँ उल्लू की पट्ठी, क्यों? मोना ठीक ही कह रही थी कि. जीजी, मर्द तो कुत्ता होता है-कुत्ता, जहाँ मांस की बोटी दिखी, वहीं नथुने फड़कने लगते हैं उसके।"

फिर सिसकियों-पर-सिसकियाँ, खटर-पटर करते मि. वर्मा का तकिया ले कर सोफे में सोने चले जाना, सब कुछ न देखने पर भी वह कानों ही कानों में देख रही थी। नहीं, जैसे भी हो, उसे अब यह फ्लैट छोड़ना ही होगा, भले ही उसी मरघट में क्यों न सोना पड़े! कहीं सिर छिपाने की जगह नहीं मिली तो वर्किंग गर्ल्स होस्टल तो था ही! दिन-भर वह रहती ही कहाँ थी, रात ही काटने का तो प्रश्न था!

फिर उसी की एक मरीज ने उसके लिए एक, एकदम नया बना फ्लैट ढूँढ़ दिया। किराया कुछ अधिक था, पर उस स्वतन्त्र फ्लैट के लिए वह अपनी पूरी तनख्वाह लुटा सकती थी, शारदा वर्मा की ग्रे हाउंड की-सी संधानी आँखों से तो मुक्ति मिलेगी। उसने जब अपने प्रस्थान की सूचना देकर, किराए की अग्रिम राशि शारदा को थमाई तो उसका चेहरा खिल उठा, वहीं पर बैठे मि. वर्मा आश्चर्य से उसे देखते रहे-फिर भावावेश में उठकर उन्होंने उसके दोनों हाथ थाम लिये-"नो नो डॉ. पन्त, यू कैन नॉट लीव अस!"

दबंग शक्की पत्नी की उपस्थिति भी वे अपनी उत्तेजना में पल-भर को भूल गए।

फिर उन्होंने स्वयं ही आत्मस्थ हो, उसके हाथ छोड़ दिए।

शारदा की कठोर दृष्टि उन दोनों के चेहरों पर निबद्ध थी-लग रहा था, वह मूर्ख अविवेकी पति को खींचकर चाँटा जड़ देगी। उसके दोनों ओंठ काठिन्य से भिंचे थे, बरबस उन्हें दाँतों से दबाकर जैसे अपने क्षुब्ध चित्त की भड़ास प्राणपण से रोक रही थी।

मेरे पाप कटे, जब जा ही रही है चुडैल तो क्यों अपनी जबान खराब करूँ?-वह मन ही मन बड़बड़ा रही थी।

वह अब तक एक शब्द भी नहीं बोली थी-न उसने उससे रुकने का आग्रह किया, न यही पूछा कि आखिर वह जा क्यों रही है!

“आप लोगों ने मुझे बहुत आराम दिया।" कालिंदी ने एक बार भी शारदा वर्मा की ओर दृष्टि नहीं उठाई, वह तो केवल मि. वर्मा को ही सम्बोधित किए जा रही थी, "मैं रात-आधी रात आती थी, आपको बराबर डिस्टर्ब भी करती रही, पर आपने कभी कुछ नहीं कहा मुझे। जो फ्लैट मिला है, वहाँ से इंस्टीट्यूट वाकिंग डिस्टेंस पर है अंकल, यहाँ से मुझे बहुत दूर पड़ता था। फिर दो-दो बसें बदलनी पड़ती थीं।"

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