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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


कभी-कभी उग्रतेजी पत्नी के निरन्तर कोंचे जाने पर, वह शान्त निरीह व्यक्ति भी झल्ला पड़ता, “क्यों, पढ़ने की भी कोई उम्र होती है क्या? तुमसे तो नहीं कहता न पढ़ने को?"

"अजी जाओ, बहुत देखे हैं ऐसे कहने वाले-हमने क्या कम पढ़ा है? सुनो, आज मोना डे स्पेन्ड करने आ रही है, एक ब्रोयलर ने आओ। बेचारी को अपनी जैनी ससुराल में तो कुछ मिलता नहीं खाने को।"

कभी-कभी कुलभूषण भी छौंक लगाने में, अपनी सुप्त परिहास रसिकता को झकझोर कर चैतन्य कर लेते, "अरे निरामिष ससुराल में कुछ नहीं मिलता बेचारी को तो कहो, दस-पाँच दिन हमारी रंजना के पास पाकिस्तान चली जाए, वह भी मौसी को देखकर खुश हो जाएगी और तुम्हारी बहन भी जी भरकर टिक्का, पसन्दा बिरयानी खा आएगी..."

"सुनो जी-सुनाना है तो अपनी उसे सुनाओ जाकर।"

"किसे?"

“वही जिसकी खिड़की खुलते ही तुम्हारी आँखें वहाँ चिपक जाती हैं-तुम्हारी डार्लिंग टेनेन्ट डॉ. पन्त।” क्षण-भर पूर्व, दीवार भेदकर आ रही कुलभूषण की चुटकी सुन, कालिंदी के ओठों पर आई क्षणिक हँसी फिर उसी त्वरा से सूख गई थी जैसे गर्म तवे पर छनछनाती पानी की बूंद।

छिः-छिः, कैसी ओछी बात कह गई थीं वे! उसके पिता की उम्र के मि. वर्मा को लेकर ऐसी घटिया बात उनके दिमाग में आई कैसे?

क्या अविवाहित नारी की सदा यही नियति बनी रहती है? जिससे चाहा, उसका नाम जोड़कर उछाल दिया! एक बार जब उसके विवाह का प्रसंग उठा था तो वह भड़क गई थी-वह बिना देखे, पात्र परखे किसी अनजान व्यक्ति से विवाह नहीं करेगी-और विवाह करे ही क्यों?

"मामा, बड़ा आश्चर्य होता है कि आप भी अम्मा की तरह यही सोचते हैं कि बिना विवाह किए कोई लड़की जी ही नहीं सकती। मैं विवाह को कभी जरूरी नहीं मान सकती। अपने पैरों पर खड़ी होने का साहस है मुझमें, और योग्यता भी है मामा!' '

"जानता हूँ चड़ी, जानता हूँ, यह भी जानता हूँ कि तू कभी किसी के अंकुश से दबना नहीं चाहती, तुझमें यदि अपनी योग्यता का, अपनी क्षमता का अहंकार है भी तो वह झूठा अहंकार नहीं है-पर देख बेटी, पुरुष और नारी में एक अन्तर अवश्य है, एक दूसरे से उनकी तुलना करना मूर्खता है क्योंकि न नारी को पुरुष से बड़ा सिद्ध किया जा सकता है, न पुरुष को नारी से दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं।"

"मैं नहीं मानती।"

"देख बेटी, नारी में यदि अहंकार है भी तो वह एक न एक दिन उसके उस अहंकार को शासित करनेवाले की स्वयं कामना करने लगती है-स्वयं का प्रभुत्व चाहती है पर जीवन के एक पड़ाव पर आकर किसी का प्रभुत्व भी स्वीकार करना चाहती है-भले ही वह पति हो, पुत्र हो, जमाता हो या पिता हो, भाई हो-यह दुर्बलता नारी की मज्जागत दुर्बलता है चड़ी! यदि वह प्राणपण चेष्टा से प्रकृति से विरोध भी करती है तो उसके भीतर की छटपटाहट उसे पल-पल पराजित करने लगती है-इसीलिए मैं विवाह को एक बायलोजिकल नेसेसिटी मानता हूँ चड़ी, एकाकिनी संगीविहीन नारी फिर जीवन के सूर्यास्त से पहले ही धीरे-धीरे नारी का लालित्य खो बैठती है, मैं नहीं चाहता कि तू भी वैसी ही बन जाए और लोग तेरी यह कह-कह प्रशंसा करें कि देखो, कैसे अद्भुत जीवट की लड़की है! क्या हिम्मत से जिन्दगी से जूझी है यह मर्दानी लड़की!"

तभी वह मामा का तर्क सुन जोर से हँस पड़ी थी, पर आज नहीं हँस पा रही थी-कभी कामार्त अखिलेश शर्मा, कभी उसकी मोहांध सखी, कभी अर्श तैमूरी और आज यह शक्की मिसेज वर्मा! मिस्टर वर्मा तो प्रायः ही उससे बतियाने चले आया करते थे-एक दिन तो उसकी मेज पर ढेर सारे फूल भी लाकर रख गए थे।

"देखता हूँ तुम्हारे कमरे में कभी फूल नहीं रहते। मेरी रंजना को फूलों का बेहद शौक था-नित्य उसके लिए वेणी लानी होती थी क्यों बेटी, तुम्हारे लिए भी ले आया करूँ? लगाओगी?"

“जी नहीं-मैं कभी नहीं लगाती।" उसने घबड़ाकर वह उदार प्रस्ताव वहीं फेर दिया था।

मिसेज वर्मा ने देख लिया तो वेणी सहित उसका सिर ही भाले पर लटका, सरेआम घुमा देगी। अखिल और माधवी तो उसे बदनाम करने पर तुले ही थे, मिसेज वर्मा ने भी कुछ कह दिया तो आग में घी पड़ जाएगा।

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