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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


..पर वह बार-बार उसके प्रस्ताव का खंडन करती रही, “ना बाबा ना, मैं दिल्ली की लड़कियों से बेहद डरती हूँ-क्या पता नशा-वशा करती हो और दिन-रात मुए कुँआरे छोकरे और भकुवे रंडुओं की भीड़ यहाँ जमी रहे-इस उम्र में अब हम यह आफत मोल नहीं ले सकते। हाँ, तुम होती तो दूसरी बात थी।"

माधवी उसकी पुत्री रंजना की स्कूल की सहपाठिनी थी।

"कैसी बातें करती हैं वर्मा आंटी, कालिंदी ऐसी लड़की नहीं है, उसे तो बस अपने काम से मतलब रहता है, मैं पूरा जिम्मा लेती हूँ आंटी, वह कभी कोई ऐसी बात नहीं होने देगी जिससे आपको तकलीफ हो।" और वह दूसरे ही दिन वहाँ रहने आ गई थी।

ठीक वैसा ही 'सुघड़ फ्लैट था जैसा वह चाहती थी, नाम की बरसाती थी, पर था अच्छा-भला कमरा। सामने खुली बालकनी, साफ-सुथरा टाइल्स लगा बाथरूम और बालकनी से लगा सनोवर का ऊँचा-सा पेड़, जो सामान्य-सी हवा का आभास पाते ही विजना डुलाने लगता। एक बार कॉलेज के मुशायरे में उसके एक प्रशंसक सहपाठी अर्श तैमरी ने, बार-बार उसकी ओर देख अपनी कविता पढ़ी थी :

सनोवर के सहारे
आसमां पे चाँद सोता था
कोई कमरे में मेरे सिसकियाँ
ले-ले के रोता था....

हैदराबाद से आया वह लजीला युवक महीनों तक उसके पीछे छाया-सा डोलता रहा था। एक ही बार बड़े साहस से उसने उसे मार्ग में रोक, अपने मौन प्रणय-निवेदन का अर्घ्य अर्पित करने की व्यर्थ चेष्टा की थी, "डॉ. पन्त!"

“कहिए?" वह मुस्कराकर खड़ी हो गई थी।

“जी, कुछ नहीं, टाइम पूछ रहा था।" वह लाल पड़कर हकलाने लगा था।

"ओह, पर आप शायद भूल गए हैं, घड़ी तो आपके हाथ में भी बँधी

उसने हँसकर कहा तो वह और भी घबड़ा गया, “सॉरी-सॉरी, सचमुच भूल ही गया था मैं।"

फिर वही उसके प्रणय-निवेदनं का आरम्भ और अन्त बन गया था-माधवी ने ही शोध कर उसे बतलाया था कि वह अब अमेरिका में है। शारदा हमेशा बहुत दूर की सोचती थी। इधर कुछ वर्षों से उसे उच्च रक्तचाप रहने लगा था, उस पर डायबिटिक भी थी, हर महीने ब्लड शुगर नपवाने अस्सी रुपए खरचने पड़ते थे, सोचा, चलो एक डॉक्टरनी चौबीसों घंटे घर पर रहेगी तो ब्लड भी ले लेगी और ऊंचवाकर ब्लड रिपोर्ट भी ले आया करेगी। ब्लडप्रेशर नापने के दो-दो यंत्र तो वह स्वयं ही विदेश से खरीदकर ले आई थी, यही छोकरी डॉक्टरनी जाँच लिया करेगी। उच्च रक्तचाप के मरीज़ तो कुलभूषण भी थे, पर पति की अधेड़ अविवेकी भुजा पर पट्टा बाँध, सुन्दरी जवान डॉक्टरनी को थमा दे, ऐसी मूर्ख नहीं थी वह। वह बाँह थामेगी तो रक्तचाप तो उसके स्पर्श से ही बढ़ जाएगा। पति को कई बार मुग्ध दृष्टि से कालिंदी को देखते वह पकड़ चुकी थी। कैसी मूर्ख थी वह-रसिक पति के जिस प्रमदाप्रिय चित्त से उसका परिचय था, वह रस का स्रोत तो कब का सूख चुका था, फिर कुलभूषण को, कालिंदी उनकी बिछुड़ गई लाड़ली रंजना की ही याद दिलाती थी, इसी से मौका पाते ही किसी न किसी बहाने उससे बतियाने स्वयं चले जाते-ऐसे ही स्नेहसिक्त प्रहार से रंजना भी तो उन्हें सम्मोहित कर देती थी, “एक कप कॉफी बना लाऊँ, पियोगे पापा?"

ठीक वैसी ही आवाज में एक दिन कालिंदी का पूछा गया प्रश्न, सहसा उनका कलेजा कचोट गया था-वह अपनी नाइट ड्यूटी से लौट, स्वयं काफी बना बालकनी में खड़ी पी रही थी कि वे पहुँच गए थे।

"एक प्याला कॉफी लेंगे सर, बना लाऊँ?"

"नहीं-नहीं, डॉ. पन्त, मैं तो आपको यह किताब देने आया था, कामू की 'प्लेग'-पढ़ी है आपने? पढ़िएगा-आपको अच्छी लगेगी।"

फिर तो बड़ी देर तक वे उस शान्त, सौम्य लड़की से बातें करते रहे थे। ऐसे अमूल्य एकान्त के क्षण, उनके जीवन में बहुत कम आते थे। चौबीसों घंटे, शारदा हाथ में हंटर लिए, उनके पीछे-पीछे घूमती रहती थी। "यह धुली कमीज क्यों पहन ली? कल ही तो बदली थी-मोना अपना छाता यहाँ भूल गई थी, कितनी बार तुमसे कहा कि ग्रेटर कैलाश जाकर, उसे लौटा आओ पर नहीं गए। आज, जौगिंग को भी नहीं गए, आई प्रेज्यूम! क्या होता जा रहा है आपको! हर वक्त हाथ में किताब, अब यह कोई उम्र है पढ़ने की? आँखों में कैटरैक्ट उतर आया है, कहा है न डॉक्टर ने?"

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