नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
दूसरे ही दिन उसे माधवी दिख गई। 'माधवी, माधवी' पुकारती वह उसे बधाई देने
भागती-भागती बढ़ गई।
“कांग्रेस माधवी, चुपचाप शादी भी कर ली और मुझे खबर तक नहीं दी?" उसने हँसकर
कहा, पर माधवी का चेहरा उसे देखते ही तमतमा गया।
"बहुत नाराज है न तू?" उसने बड़े लाड़-भरे स्वर में कहा, “आई एम सॉरी, पर मैं
बेहद होमसिक फील कर रही थी, तुझे बताती तो क्या तू मुझे जाने देती? अच्छा, अब
गुस्सा थूक दे।"
"कालिंदी, मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।" क्या हो गया था माधवी को? उसकी
आवाज ऐसे काँप क्यों रही थी? “मेरे साथ चलो, मुझे तुमसे कुछ कहना है।"
फिर वह तेजी से जाकर, पेड़ों के धने झुरमुट में बनी उस बेंच पर बैठ, उसकी
प्रतीक्षा करने लगी, जिसे लड़कियाँ लवर्स कॉर्नर कहती थीं।
"माधवी, कह रही हूँ न, मेरा घर जाना बहुत जरूरी था...मामा कई बार..."
"भाड़ में जाएँ तुम्हारे मामा।" उसने कालिंदी को उसका वाक्य भी पूरा नहीं
करने दिया।
कालिंदी स्तब्ध खड़ी उसे देख रही थी-क्या हो गया था आज उसे? मामा को तो वह
हमेशा देवता-सा ही पूजती थी।
"मुझे अखिल ने सब कुछ बता दिया है-तुम्हें और कोई नहीं मिला कालिंदी, जो मेरे
ही घर में डाका डालने चली आईं-वह भी जब मैं घर पर नहीं थी?"
कालिंदी का चेहरा विवर्ण पड़ गया।
"माधवी, आर यू क्रेजी? कैसी बातें कर रही है तू?"
“अब समझ में आया।" माधवी के होंठ व्यंग्य से तिरछे हो गए, “तूने उस दिन क्यों
अखिल और उस नर्स को लेकर वह सब कहा था। मेरा उससे मन उखड़ जाए और तू अखिल को
आसानी से लपक ले-यही सोचा था न तूने?"
हतप्रभ कालिंदी अवाक् होकर उसे देख रही थी-तो उस निर्लज्ज ने वही किया जिसका
उसे डर था!
“अच्छा हुआ जो अखिल ने मुझे कश्मीर में कुछ नहीं बताया, कह रहा था-आई डिड नॉट
वांट टू रुईन अवर हनीमून-मैं जब तुझे छोड़कर चर्च गई, तो तूने मेरी सौत बनने
उसे जकड़ लिया? आई से, यू शुड बी अशेम्ड औफ योरसेल्फ! मैं तो सोचती थी, ऐसी
हमारी हिन्दी फिल्मों में ही होता
है...अब वह पूरी तरह हाँफने लगी थी। उसका आकर्षक चेहरा कितना विकृत लग रहा
था-कितना भयानक और कितना अनचीन्हा!
"माधवीं!" कालिंदी का स्वर एकदम शान्त था, क्षण-भर पूर्व किसी शैतान बच्चे के
मारे गए पत्थर से विचलित नदी, जैसे पूर्ववत् शान्त और स्थिर बन गई थी।
“माधवी, तू अपने अखिल से जाकर पूछ कि किसने किसे जकड़ा थामैंने या उसने?"
"शट अप यू बिच...अपनी बेशर्मी ढकने को अब यही कहेगी-जी में आ रहा है..." वह
थरथर काँपती कभी प्राणों से भी प्रिय अपनी उस सखी की ओर ऐसी आक्रामक मुद्रा
में दाँत पीसती बढ़ी कि लगा, उसका मुँह ही नोंच लेगी।
“जी में आ रहा है कि सबके सामने चीख-चीखकर कहूँ-इसने आज तक आप सबको अपनी झूठी
इमेज से छला है, लोगों को पता तो चले कि इस संगमरमरी मूरत की असलियत क्या
है...सर्जरी में गोल्ड मेडल पानेवाली, अपनी मधुर मुस्कान और एयर होस्टेस की
सी चाल से, मेडिकल इंस्टीट्यूट के हजार-हजार हृदयों की धड़कनों को रोक
देनेवाली हमारी डॉ. पन्त है क्या? ए मैन-ईटर, नरभक्षिणी जिसे किसी दूसरे के
मुँह का ग्रास छीनने में कभी कोई आपत्ति नहीं हो सकती-आज मेरे मुँह का ग्रास
छीनने का दुस्साहस किया है, तो कल आपका छीनेगी। क्यों, है न? कह दे, यह सब सच
नहीं है-यही तो कहेगी अब!"
किन्तु, कालिंदी वैसे ही खड़ी थी-निर्विकार, निरुद्वेग, निःसंशय! एक पल को
उसका चेहरा अव्यक्त क्रोध से तमतमाया अवश्य, पर उसने उस मिथ्या अपवाद का खंडन
करने में अपने विवेक का अपव्यय नहीं किया।
इस मूर्ख, अविवेकी, प्रेमांध लड़की से बहस करना व्यर्थ था। वह पलटी और तेजी
से चली गई। सामने से आ रहे अखिल से वह टकराते-टकराते बची-वह स्वयं भी थमककर
खड़ा हो गया था।
"बाप रे बाप, मैंने तो सोचा, कोई सुपरफास्ट ट्रेन ही पटरी से उतरकर धंसी चली
आ रही है! क्यों डॉ. पन्त, क्या बात है, कहाँ चली गई थीं आप?"
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