नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
जब किसी शान्त संयत अल्पभाषी व्यक्ति को क्रोध आता है तो उसका वेग भी उतना ही
प्रचंड, उतना ही दुर्धर्ष और उतना ही दुर्वह होता है..."गेट लॉस्ट!" उसने कहे
तो दो ही शब्द, पर उसकी आँखों से निकलती लेजर की सी अदृश्य किरणों ने अखिल को
झुलसा दिया।
“तुम नीच हो अखिल शर्मा-नीच, एकदम घटिया आदमी!"
किन्तु उस निर्लज्ज व्यक्ति पर उसकी उस उक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा-वह उसी
निर्लज्ज मुग्ध दृष्टि से उसे आँखों ही आँखों में पीता, एक प्रकार से उसका
मार्ग अवरुद्ध कर खड़ा हो गया।
"क्या तुम जानती हो कालिंदी-तुम गुस्सा आने पर और भी सुन्दर लगती हो, इसलिए
एक हितैषी मित्र की सलाह मानो, तो कहूँगा कि अपने पुरुष प्रशंसकों पर कभी ऐसे
अकेले निर्जन कुंज में डोंट लॉस योर टेम्पर!"
उसके दुःस्साहस से बढ़े आ रहे हाथ को, एक जोरदार धक्के से विलग कर, वह तीर सी
निकल गई। साहसी से साहसी नारी के जीवन में भी कैसे-कैसे विकट परीक्षा के क्षण
आ सकते हैं, इसका अनुभव उसे जीवन में दूसरी बार हो रहा था-किससे कह सकती थी
वह यह सब! एकमात्र माधवी ही तो आज तक उसके सुख-दुख की संगिनी थी, आज वही उसकी
शत्रु बन चुकी थी...और यह गुंडा उसे बदनाम करने पर तुला था।
क्या करे, त्यागपत्र देकर मामा के पास चली जाए?
नहीं, इतनी कमजोर नहीं थी वह। यदि वह चली गई तो यह पलायन, उसका पक्ष दुर्बल
ही करेगा...कमरे में जाकर वह बड़ी देर तक चुपचाप्त कुर्सी पर बैठी सोचती रही।
पास के कमरे से मकान मालकिन मिसेज वर्मा की तीखी आवाज सीधे उसकी कनपटी पर
हथौड़े से मारने लगी। ओफ, यहाँ भी शान्ति नहीं थी...कैसी विचित्र महिला थी
शारदा वर्मा, विवाह को. पूरे चालीस वर्ष बीत चुके थे, पर इतने वर्षों में भी
वे अपने निरीह पति से समझौता नहीं कर पाई थीं...दिन-रात दोनों असील
मुर्गों-से ही लड़ते रहते। वे देखने में जितनी कदर्य थीं, मि. कुलभूषण वर्मा
उतने ही सुदर्शन थे, यद्यपि निरन्तर चले आ रहे गृहकलह ने समय से कुछ पूर्व ही
उनकी सौम्याकृति को, वृद्धावस्था की झुर्रियों से श्रीहीन कर दिया था, पर फिर
भी गोरा, गोल चेहरा देखकर कोई भी कह सकता था कि वे अपनी यौवनावस्था में मजबूत
कदकाठी के सुपुरुष रहे होंगे-ओठों से सदाबहार हँसी चौबीसों घंटे लगी रहती।
बीच-बीच में कन्धे उचका-उचकाकर वे जैसे अपने बरबस दबाए गए, व्यक्तित्व को सतर
करने की चेष्टा करते रहते, विशेषकर दबंग पत्नी की उपस्थिति में उनका कन्धे
उचकाना कुछ अधिक ही प्रखर हो उठता। न कभी नौकरों को डाँटते, न जोर से
हँसते-बोलते। कालिंदी देखती, प्रायः ही वे अपनी बालकनी में धरे पौधों को
सहलाते-सँवारते रहते। लगता, जीवन में अब उनके ये ही पौधे एकमात्र आत्मीय रह
गए हैं। एक बार तो उसने उन्हें बड़े गमले में लगे अपने गुलाबों से बातें करते
भी सुना। अपनी हँसी रोकने वह पर्दे की आड़ में खड़ी हो गई थी।
"क्यों रे, तूने आज फिर दाढ़ी नहीं बनाई? न मुँह ही धोया?" वे गुलाब से कहते
जा रहे थे और जग से पानी डाल उसे ऐसे सींच रहे थे जैसे सचमुच किसी आलसी
प्रियजन का मुँह धुला रहे हों-"देख बेटा, फूल और मनुष्य एकदम एक जैसे होते
हैं...फूलों को काट-छाँट दो, पानी डाल नहला-धुला दो, तो वे अच्छे लगेंगे,
नहीं तो ऐसे ही लगेंगे कि किसी ने दाढ़ी न बनाई हो, आँखों में कीचड़ लगा
हो-समझे बेटा?"
कुछ-कुछ सठिया गए थे क्या? या कर्कशा पत्नी के कठोर शासन ने ही उन्हें
फूल-पौधों के इतने करीब खींच दिया था? शारदा वर्मा वास्तव में कभी उनकी साली
थी, सगी बड़ी बहन के साथ ही रहने आई तो बड़ी बहन आसन्न प्रसवा थी। एक तो
माता-पिता की मृत्यु ने शारदा वर्मा को अनाथ बना दिया था, दूसरे उसकी बदली भी
उसी शहर में हो गई, जहाँ बड़ी बहन थी। वह स्वयं किसी गर्ल्स कॉलेज में
अर्थशास्त्र की प्राध्यापिका थीं। अर्थशास्त्र से कहीं अधिक सरस शास्त्र को
पढ़ने-पढ़ाने का सुअवसर चूके, ऐसी मूर्ख नहीं थी शारदा। बड़ी बहन की दुरवस्था
का पूरा लाभ उठा एक दिन स्वेच्छा से ही साली का पद त्याग वह सगे जीजा के
हृदयासन पर विराजमान हो गईं। बड़ी बहन जब चेती तो उसकी सोने की लंका जलकर खाक
हो गई थी, वह भी बड़े आन-बान की दिलेर औरत थी, तत्काल अपना बोरिया-बिस्तर
लपेट, कुछ दिनों छोटी बहन मोना के हॉस्टल में रही, फिर कहाँ गई, किसी को पता
नहीं चला। तीनों बहनों में सबसे छोटी मोना ही जरा नैन-नक्श में दुरुस्त थी,
वह हॉस्टल में रहकर पढ़ रही थी, कभी-कभी छुट्टियों में बहन के पास आती तो
शारदा का कठोर अनुशासन उसे आँखों ही आँखों के संकेत से उठाता-बिठाता। उसने
स्वयं बड़ी बहन के सौभाग्य पर डाका डाला था, कहीं यह छोटी बहन उसके सौभाग्य
पर भी किसी अरक्षित क्षण में डाका न डाल बैठे! एक तो वह आकर्षक थी, दूसरी
उससे पूरे दस वर्ष छोटी थी,
फिर वह उन दिनों अजन्मी पुत्री का भार वहन किए, एकदम ही नकली-सी लगने लगी थी।
हाथ-पैर दुबले किन्तु उदर का उभार एकदम गगनचुम्बी! फिर अपने पति पर उसे
विश्वास कम ही था। एक तो मनुष्य का स्वयं का कलुषित अतीत उसे स्वभाव से ही
शंकालु बना देता है, और कालिख तो उसके दामन में लगी ही थी, सगी बहन का घर तो
उजाडकर रख ही दिया था, इसी से वह एक पल को भी मोना को अकेली नहीं छोड़ती थी।
वह जानती थी कि कई महीनों से उसके पति के बुभुक्षित प्राण, कभी भी अपनी
अनुभवी कलाबाजी से शोख साली को प्रभावित कर सकते हैं। फिर इस बहन का विवाह भी
तो उसे ही करना होगा। कभी-कभी वह स्वगत भाषण करती, मरे माँ-बाप को कोसने
लगती, "बिना कुछ आगा-पीछा सोचे दनादन तीन बेटियाँ पैदा कर दी-न बीमा ही किया,
न मकान ही छोड़ा। फंड तो चाट-चूट ही गए, मकान भी गिरवी धर गए...अब निबटना तो
हमें ही होगा, जीजी तो किनारा कर गई!"
पर जीजी को किसने किनारे पर पटक दिया था?
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