नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
कालिंदी ने पूछा तो उसने हँसकर मुँह बिचका लिया, "लो और सुनो, गरम पानी भी
कोई जगह है उतरने की-हमें तो हल्द्वानी उतरना हैहल्द्वानी!" उसने ऐसे गर्व से
कहा जैसे हल्द्वानी बम्बई से कुछ कम न हो! "वहाँ मेरा छोटा बेटा है सदिया,
यही तो करती हूँ मैं, कभी बड़े बेटे नरैण के पास और कभी सदिया के पास । वहाँ
जाकर बुड़ज्यू को भेज दूंगी अल्मोड़ा और जब अल्मोड़ा जाती हूँ तो फौरन उनका
हल्द्वानी का टिकट कटवा देती हूँ। एक साथ माँ-बाप दोनों का भार, क्या आजकल के
बहू-बेटे उठा पाते हैं? बेटों के पास बारी-बारी से थोड़े दिन रहो तो वे भी
खुश और हम भी खुश-कम से कम इतना तो सुनने को मिल ही जाता है चेली, कि इजा,
थोड़े दिन और रह जा, 'बाबू', अभी यहीं बने रहो और जहाँ हमेशा रहने को गए तो
पड़ेंगे भेल (नितम्ब) में डंडे।"
पास बैठे सहयात्रियों को भी वाचाल वृद्धा की सरस उक्ति गुदगुदा गई, "वाह आमा,
लाखे की बात कै गोछा हो!” (वाह दादी, लाख की बात कह गई हो!) अप्रस्तुत हो गई
कालिंदी का चेहरा लाल पड़ गया था।
“जी रया च्यालो, जी रया!” (जीते रहो बेटो, जीते रहो!)
अपनी उक्ति का समर्थन पाकर बुढ़िया ने आशीर्वादों की वृष्टि कर दी। फिर
अधैर्य से कहने लगी, “मर जाए ये गरम पानी, आ भी नहीं रहा है, आए तो कुछ पेट
में डालूँ, वैसे बहू ने गुड़पापड़ी (भुने आटे की मीठी पंजीरी) साथ में रख दी
है पर गरम पानी का खाना कौन छोड़ेगा? अब गंगा में कल्पवास के बाद, मैंने चोखे
जूठे का परहेज छोड़ दिया है चेली, पर अब उजड़ गई हैं गरम पानी की
दुकानें-आहा, नरैण के बाबू के साथ कैसी-कैसी पुड़ियाँ खाई हैं यहाँ-या डब्बल
पूड़ी, दो-दो सब्जियाँ, रायता और आलू के गुटके! अब तो नासपीटे दाल-भात परसने
लगे हैं, उस पर शराब की बोतलें सामने रख भकाभक भकोसते हैं अब पन्त-पांडे-नाक
काटकर मुँह ही में धर ली है री हम बामणों ने! पर एक दुकान अभी भी बची है,
वहीं ले चलूँगी तुझे।"
और उसके ना-ना करने पर भी वह जिद्दी वृद्धा उसे अपने साथ खींच ही ले गई थी।
होटल के खुले खाने पर भिनकती मक्खियों को देखते ही, उसका डॉक्टरी चित्त
विद्रोह कर उठा था पर बुढ़िया ने एक नहीं सुनी। उसका जी ही नहीं कर रहा था कि
एक कौर उठाकर मुँह में धर ले, उधर बुढ़िया पूड़ियों पर पूड़ियाँ दागती चली जा
रही थी।
“ले, तब से एक पूड़ी भी नहीं चर पाई तू? यह भी कोई खाना है? चड़ी की सी भूख
है क्या तेरी?"
“मेरा नाम सचमुच ही चड़ी है आमा,” उसने हँसकर कहा तो वृद्धा ने मुग्ध होकर
उसका चिबुक थाम लिया।
“आहा रे, कैसा ठीक नाम धरा है तेरे माँ-बाप ने! सचमुच ही चड़ी है तू, वैसी ही
नाजुक, सुन्दर चहकती चड़ी!"
कुछ ही घंटों का परिचय दोनों को प्रगाढ़ स्नेहसूत्र में बाँध गया था। पहले
कालिंदी का ही पड़ाव पड़ता था, वह उतरी और उतरने से पूर्व उसने उस आनन्दी
सहयात्रिणी के पैर छुए तो वह रोने लगी, “देखो भगवान की माया, कुछ घंटे पहले
तुझे कभी देखा भी नहीं था और आज लग रहा है, सगी नातनी ही ससुराल जा रही है।
जा बेटी, जा...अपने मालिक का भरपूर सुख भोग...सदा अपने ससुराल की लक्ष्मी बनी
रहे...अखंड सौभाग्यवती पुत्रवती बने।"
दिल्ली पहुँचकर कालिंदी को लगा, वह जैसे पूरे ब्रह्मांड का परिभ्रमण कर लौटी
हो। बन्द घर का ताला खोला, तो पैरों से चिट्ठियों के अम्बार को ठोकर लगी।
माधवी की चिट्ठी? तब क्या वह भी कहीं चली गई थी? माधवी ने बड़े गुस्से में ही
शायद उसे चिट्ठी लिखी थी, पूरे पत्र में उसने उसे केवल जली-कटी ही सुनाई थी।
वह उससे बिना मिले, बिना कुछ बताए ऐसे चली जाएगी, यह कभी सोच भी नहीं सकती
थी। अखिलेश के माता-पिता, उनकी विलम्बित सगाई से बुरी तरह ऊबने लगे थे, उस पर
अगले ही महीने उसके पिता की वायपास सर्जरी भी थी, चाहते थे, उससे पहले उनका
विवाह हो जाए। इसी से उसे अचानक विवाहसूत्र में बँधना पड़ा। अपने आकस्मिक
विवाह की सूचना देने वह सबसे पहले उसी के पास आई तो देखा, उसके द्वार पर ताला
लटका है। देखो, हनीमून के लिए कश्मीर गए थे, अगले इतवार को लौटेंगे।
तो माधवी लौट आई होगी।
पर कहाँ होगी-अपने फ्लैट में या ससुराल?
दूसरे लिफाफे की विदेशी मुहर देख उसने उसे पलटकर देखा और जैसे हाथ में चढ़ा
बिच्छू ही डंक दे गया।
उसका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। डॉक्टर जोशी! हिम्मत कैसे हुई उस नीच की!
बिना पढ़े ही चिट्ठी के टुकड़े-टुकड़े कर उसने कूड़े की टोकरी में डाल दिया।
जिस निर्लज्ज व्यक्ति को इतना भी विवेक नहीं रहा कि, उसके मामा से वसूली गई,
अधूरे विवाह के बयान की रकम, जाने से पहले उन्हें लौटा दे, वह आज इतने महीनों
बाद उसे पत्र लिख रहा है? क्या अब क्षमा माँगने ही वह पत्र लिखा था-या दहेज
की रकम, कुछ कम पर पुनः सेहरा बाँधने का मंतव्य देकर, उसके लालची पिता ने
पत्र लिखवाया था? अच्छा ही हुआ जो उसने बिना पढ़े ही फाड़कर फेंक दिया-पढ़ती
तो शायद वह रिसता घाव फिर खुल जाता, जिसे उसने बड़ी प्राणांतक चेष्टा से लगभग
सुखा लिया था।
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