नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
'राम नाम' का उद्घोष जैसे बस के साथ-साथ चल, उसका पीछा कर रहा था, वह अपने
गह्वर को और रोक नहीं पाई, दोनों हाथों से मुँह छिपा लिया, पर बड़ी चेष्टा से
छिपाई गई सिसकी नहीं छिपी।
उसी बुढ़िया ने बड़े स्नेह से उसकी पीठ पर हाथ धरा, “के चेली, सौरास जाणों
छी?" (क्यों बेटी, ससुराल जा रही हो क्या?)
वह चुप रही पर वृद्धा बार-बार अपना वही प्रश्न दुहराती रही।
"हाँ।" उसने प्रश्न से मुक्ति पाने के लिए गर्दन हिला दी।
“आहा रे, किसका घर उजाला किया है तूने-चेली! मरद सरकारी नौकरी में है क्या?"
"हाँ!” उसे भी वे घेर घुमावदार पहाड़ी मोड़, धक्का दे-देकर वाचाल बना रहे थे।
"तब ही तो मैं कहूँ, किसी अफसर की ही घरवाली है यह-इतना सोना पहने है, क्यों
री चार तोले की तो होंगी?" उसने फिर बड़ी अंतरंगता से उसकी चूड़ियों को
सहलाकर ऐसे पूछा, जैसे वर्षों से उसे जानती हो, “यहाँ के सुनार की गढ़ी तो
हैं नहीं, देसी सुनार की बनाई हैं न?"
"हाँ।"
“तभी तो कहूँ, हमारे तो ये मरे पहाड़ी सुनार, बस एक पहुँची ही बनाना जानते
हैं-चाहे चूहादती बनवा लो, चाहे मटरदंती!"
"मेरे पास तो सतलड़ी है जी," उसने अपना पोपला मुँह उसके कानों से ऐसे सटा
लिया जैसे सहयात्रियों ने सुन लिया तो चट बस रोक, उतर पड़ेंगे और चूल्हे के
नीचे गहरे तक गड़ी उसकी सतलड़ चुराकर भाग जाएँगे!
"मेरे ससुर ने लैंसडौन से बनवाई थी, पूरे दस तोले की है। रामनौमी भी थी सात
तोले की, पर बहू को चढ़ावे में दी थी कि फिर वापस ले लूँगी, पर चतुर
चौगरखियों की जनी मेरी वह बहू, मेरे भी कान काट ले गई-लौटाना तो दूर, मेरे
पिटार में धरे झुमके भी कानों में लटका, बेशरम खीवे निचोड़ खडी पछने लगी-देखो
इजा, कैसी लग रही हूँ मैं! तब ही से बचा-खुचा गहना, चूल्हे के नीचे, ऐसे गहरे
गड्ढे में गाड़कर रख आई हूँ कि पूरा घर भी खोदेगी तो नहीं ढूँढ़
पाएगी..."-फिर अपनी कार्य-कुशलता पर वह स्वयं ही निछावर होती, पटपट उसकी पीठ
पर अपनी हथेली थपकाने लगी थी। "क्यों चेली, कैसा है तेरा मरद? तेरा ही सा
गोरा-उजला है या साँवला? इस दुनिया में तो अच्छी जोड़ियाँ देखने को ही कब
मिलती हैं-अब मुझे ही देख-अब तो इस असौज में सत्तर पूरे कर लूँगी, जब ब्याह
हुआ तो चौदह की थी-ऐसा रंग था कि छूने से भी मैला होता था-नाक तो अभी भी देख
ही रही है। मेरी विदा हुई तो इजा मेरे ससुर के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गई
थी-एक ही बिनती है समधी ज्यू, बड़ी बान (रूपसी) है मेरी परु, इसकी डोली किसी
पेड़ के नीचे मत 'बिसाने' (विश्राम करने) देना, छल (भूत) चिपट जाएगा और मेरा
दूल्हा?"
फिर अपनी बेमेल जोड़ी की सरस भूमिका बाँधती वह वाचाल सहयात्रिणी उसे दुख के
उन दुर्वह क्षणों में भी हँसा गई थी।
“सेब के बगीचों में, जैसा पुराना कोट-टोप-पैंट पहना खबीस खड़ा करते हैं न
पहाड़ में, एकदम ठीक वैसा ही। उस पर तुतलाता ऐसे था, जैसे दो साल का बच्चा
हो! ल और र को कहता था-ग!
“पगु, पगु, चल डुनखुट्टी खेलें..." प्राइमरी स्कूल में पढ़ाता था, शादी के
दूसरे ही दिन मुझे अपने स्कूल की प्रार्थना सुनाने लगा :
सकग बगमांड से न्यागा
हमारा देश हिन्दुस्तान!
"मैं समझ गई, मैंने कहा-पगु, फूट गए तेरे भाग! पर दिल का बड़ा नेक है चेली,
मुझे बहुत प्यार करता है, सास कंकाला थी, मुझसे लड़ती तो वह मेरा ही पच्छ
लेकर, मुझे बचा लेता, एक से एक गहने गढ़वा दिए थे उसने! मैंने भी अपना पूरा
करज मय सूद-ब्याज के तार दिया, उसे पूरे सात बेटों का बाप बनाकर-चाहे अब दो
ही बचे हैं, नरैण और सदानन्द-के हो डराहभर ज्यू-गरम पानी कब आएगा?" फिर
पिलगंट-सा फटक उसने प्रसंग बदल दिया।
"क्यों, वहीं उतरना है क्या आपको?"
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