नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
कैसी भयानक लग रही थीं वे अश्रुहीन कोटरग्रस्त बड़ी-बड़ी आँखें!
"चल, चल, मैं चलता हूँ, पास-पड़ोस में खबर दी या नहीं?" एक शॉल ओढ़ मामा
बदहवास से चप्पल ही डालकर निकल गए थे।
अन्ना और शीला-दोनों स्तब्ध खड़ी थीं।
सहसा कालिंदी ही टूट गई-धम्म से जमीन पर बैठ, दोनों घुटनों में सिर डाल वह
निःशब्द रोने लगी।
दुर्वह वेदना की कैसी गरु पोटली छाती पर ही धरे चली गई लाल मामी!
“रो मत चेली!" माँ ने उसकी पीठ पर हाथ धरा।
"अच्छा हुआ, तू यहाँ आ गई थी, जाने से पहले उसका कुछ दुख-दर्द तो तूने बाँट
ही लिया-तू न होती तो बेचारी गू-मूत में पड़ी कलपती रहती-भाग्यवान थी, माँग
का सिन्दूर सहेजे, बसन्त के कन्धे पर तो जाएगी। चल, उठ, हमें भी वहाँ जाना
चाहिए-बसन्त का और है ही कौन!"
वे वहाँ पहुँची तो पास-पड़ोस की भीड़ आ जुटी थी। जमीन गोबर से लीप, तुलसी के
गमले और शालिग्राम की मूर्ति सिरहाने धर, लाल मामी को लिटा दिया गया था-उसके
दोनों हाथों की अंगुलियाँ जो महीनों से सीधी नहीं हो पाती थीं, आज स्वयं सीधी
हो परस्पर गुंथी, मामी की छाती पर धरी थीं। मामी का वही लाल रंग, कुछ क्षणों
के लिए मृत्यु बड़े औदार्य से लौटा गई थी। शव का चेहरा जैसा विवर्ण हो जाता
है, वैसा एकदम ही नहीं था, अर्धोन्मीलित क्लांत आँखों को शीला मामी ने ही हाथ
धर मूंद दिया था, फिर शीला ने ही लाल मामी को नहला-धुला, लाल साड़ी पहना
नन्हा-सा यूँघट निकाल दिया। हाय, सुदीर्घ व्याधि में घुल-घुलकर छिपिल-सी देह
कैसी सिकुड़ कर बित्ते भर की रह गई थी! हाथ में उन्हीं वर्षों की घिसी काँच
की चूड़ियों के बीच न जाने कब की बँधी कलावे की विवर्ण डोरी!
नाक की लौंग का लाल पत्थर, जिसे बचपन में कालिंदी ने छूकर न जाने कितनी बार
लाल मामी को चिढ़ाया था : "लाल मामी की लाल फुल्ली!"
सोने का एकमात्र वही आभूषण था बेचारी मामी के पास, किन्तु आकांक्षाएँ थीं
असीम!...
“अरी चड़ी, देखना, मेरा पिंटुआ जब बहुत बड़ा अफसर बनेगा तो कहूँगी-तेरे बाप
ने तो कभी तीलाभर सोना भी नहीं लेकर दिया, अब तू ही मुझे ग्वालियर का
मंगलसूत्र बनवा दे-तिलड़ा मंगलसूत्र-वहाँ बहुत बढ़िया मंगलसूत्र बनते हैं री
चड़ी-और कहूँगी, पिंटुआ रे, एक हीरे की लौंग पहनने का बहुत मन है मेरा-और फिर
देखुंगी, कैसे कहती है-लाल मामी की लाल फुल्ली!"
पर मन की मन में ही लिये जा रही थी लाल मामी! पैरों में पड़ी मैल से काली पड़
गई शकुंतलाचेन, कई जगह टूटे रंग-बिरंगे तागों से बँधी, बार-बार खिसकती सर्र
से घुटनों तक चली जा रही थी। देवेन्द्र मामा ही भाग-भाग कर महाप्रस्थान की
सामग्री लाकर रखते जा रहे थे-बाँस, लाल दुशाला, सफेद कोरा खोल, कोरी हंडिया,
कुश, घी।
बसन्त मामा तो बुत बने शून्य दृष्टि से, बिछुड़ी जीवन सहचरी की निष्प्राण देह
को टकटकी लगाए देखे ही जा रहे थे। कालिंदी को उनकी वह अस्वाभाविक दृष्टि
देखकर भय हो रहा था, कहीं आकस्मिक आघात से सनक तो नहीं गए थे मामा!
पहाड़ में रात को मिट्टी कम ही उठाई जाती है-पर पुत्र के आने की तो कोई
सम्भावना थी नहीं, लाल मामी के मायके में था ही कौन, एक अन्धे भाई ही तो बचे
थे, वह आ नहीं सकते थे। इसी से मिट्टी पौ फटते ही उठा दी गई थी।
एक प्रकार से कालिंदी और लाल मामी ने एक साथ ही अल्मोड़ा छोड़ा था। वह चार
कन्धों पर जा रही थी और कालिंदी बस में। 'राम नाम सत्य' का गगनभेदी उद्घोष,
सुबह के सन्नाटे में कुछ और तीव्र होकर पहाड़ों से टकराता, दःसाहसी दस्यु-सा
सीधे बस की सीटों तक चला आया।
"आहा रे कौन भागवान गया रे, आज वैकुंठ एकादशी के दिन!"
कालिंदी के पास ही गोद में पोटली लिये बैठी एक वृद्धा ने कहा और तब ही बस चल
पड़ी।
उसे विदा देने न मामी आ सकी थी, न अम्मा!
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