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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


उसकी क्षणिक चुप्पी, कालिंदी को आश्वस्त कर गई, वह आएगा, निश्चय आएगा।

"नहीं चड़ी, मैं नहीं आ सकता। आई एम सॉरी। बाबू को समझा देना।"

कालिंदी ने गुस्से में फोन पटक दिया, उसके कुछ न कहने पर भी उसके पास खड़े बसन्त मामा सब समझ गए।

"मैं जानता था चड़ी, वह कभी नहीं आएगा, एक तरह से अच्छा ही हुआ, 'पिल फुट पीड़ गे'-फोड़ा फूटा और दर्द गया। कम से कम झूठी आशा में तो बैठे नहीं रहेंगे-मैं ही उसे डोली में बिठाकर घर लाया था, मैं ही कंधा देकर उसे घाट भी पहुंचा सकता हूँ-अच्छा है, ऐसे कठोर कपूत के कन्धे उसे न मिलें।"

और फिर आँखों के आँसू छिपाने ही शायद वे बिना उनकी ओर देखे, भन्नाकर निकल गए थे।


दूसरे ही दिन कालिंदी को दिल्ली लौटना था। अम्मा ने उसके रास्ते का खाना बनाकर धर दिया था, मामी ने बाजार से पहाड़ी मिठाई के सौगाती डिब्बे लाकर पूरी टोकरी तैयार कर दी थी-सेब, नाशपाती, अखरोट और अचार!

“लो मामी, एक ही बैग लेकर आई थी, सोचा था, हलकी-फुलकी यात्रा रहेगी, तुमने एक और बोझ बढ़ा दिया।"

"अरी कौन-सा ढाई मन का बोझा है, दो हाथ दिए हैं भगवान ने, दो थैले लटका लेना।"

“आज बसन्त बड़ा उदास है," देवेन्द्र ने कहा, “कह रहा था चड़ी चली गई तो मैं क्या करूँगा रे देबी-बोल तो नहीं सकती पर उसकी लाल मामी उसे बहुत मिस करेगी।"

पर तब किसे पता था, लाल मामी उसे नहीं, वह लाल मामी को जीवन-भर मिस करेगी!

उस दिन बड़ी देर तक वह माँ, मामी के साथ टी.वी. देखती रही, नित्य की भाँति खाना भी नहीं खाया, फिर अन्नपूर्णा ने ही उसे जबरन उठा सोने भेज दिया था, “जा, अब समय पर सो जा, तुझे पहली बस पकड़नी है न?"

तब ही घंटी बजी और चारों को एकसाथ झटका-सा लगा।

"देख तो देबी, कौन आया इतनी रात को! कोई मिलनेवाला तो हो नहीं सकता, आज शनिवार है। शनिवार और मंगल के दिन भला कौन पहाड़ी इष्टमित्र मिलने आ सकते हैं!"

मामा ने द्वार खोला तो पागलों से बाल बिखराए लाल-लाल आँखें लिये, चित्रांकित से बसन्त मामा खड़े थे।

“क्या बात है बसन्त, भीतर आ न, द्वार पर ही क्यों खड़ा है?" देवेन्द्र ने मित्र का हाथ पकड़कर खींचा।

"नहीं, भीतर नहीं आऊँगा, सूतक लग गया है रे देबी, वह गई..."

"क्या बात कर रहे हो बसन्त, अभी सात बजे तो हम मिलकर आए थे!" अन्ना हड़बड़ाकर खड़ी हो गई।

"जानता हूँ, तुम मिलकर आई थीं दीदी, अपनी चड़ी के हाथ का दूध भी गटक कर गई है मेरी सरु-सीधे सरग जाएगी।"

उसी शून्य दृष्टि से बसन्त मामा ने उन्हें देख फिर अपनी मांसहीन भुजा आकाश को उठाकर कहा, "सरग सीधे सरग!"

दिमाग फिर गया था क्या बेचारे मामा का!

आजकल बात-बात पर पिल्ल से रो देनेवाला यह पिलका बसन्त आज रो क्यों नहीं रहा था?

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