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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


"बाबू ने पहना दी थी, तुम्हारे ही नाना ने तो पहनाने को कहा था, मैं बचपन में बहुत जिदियाया करता था-जो माँD वही मिले नहीं तो धांत (दाँती लगना) चढ़ जाती थी मुझे।"

“अच्छा! फिर?" उसने अपनी तीखी नाक कपाल में चढ़ा बड़े अल्हड़पन से पूछ दिया था, “अब नहीं जिदियाते?"

उसी समय अम्मा उसके लिए चाय लेकर न आ जाती तो शायद वह
लजीला निवेदक, अपने बचपन की धांत निःसंकोच होकर, दोहरा देता।

फिर तो अल्मोड़ा ही छूट गया और पूरे तीन वर्षों बाद, मामा को उसने एक पत्र में, अपने विवाह की सूचना देकर आग्रह किया था कि वे ही इस शुभ या दुःसम्वाद का समाचार उसके पिता तक पहुंचा दें, स्वयं पिता की छाती में वह हथगोला मारने का शायद उसे साहस नहीं हुआ था। पर क्या देखा होगा पिन्टू ने उस मुटल्ली में! विवाह के चित्र में ही वह चार बच्चों की अम्मा लग रही थी। अब तो उसके बेटे थे-अनैल और सुनैल। दोनों के नाम अनिल और सुनील का ही वह अमेरिकी विकृत उच्चारण उसके पिता को बौरा गया था।

"क्यों रे हतभागे, अमेरिका ने तेरी जबान भी ऐंठ दी है क्या?"

न फिर कालिंदी ने उसे कभी देखा, न उसने-पर पुरानी फाँस शायद उसे अभी भी साल रही थी, क्योंकि बसन्त मामा को जब भी पत्र मिलता, उसमें कालिंदी का उल्लेख अवश्य रहता।

वह कहाँ है, क्या कर रही है, कहीं उसके विवाह की बात चल रही है या नहीं?

लाल मामी की दुरवस्था देख, फिर उसके पहाड़ आने का समस्त उत्साह ही ठंडा पड़ गया था, उस पर बसन्त मामा का निष्कपट निवेदन उसे और भी विचलित कर गया। उसे क्या पता था कि पिन्टू दा के मन में, उसके लिए ऐसी दुर्बलता छिपी थी और थी भी तो वह चुप क्यों रहा? कहता भी तो क्या होता! लाल मामी की ऐसी दुर्दशा न होती?

पर उसके मन में तो कभी कोई विकार नहीं था, न तब और न अब, फिर भी बीच-बीच में उसे ऐसी आत्मग्लानि क्यों क्षुब्ध कर रही थी? क्या तब उसी की उपेक्षा ने, उस लजीले संकोची युवक को, बरबस उस मुटल्ली विदेशिनी की बाँहों में ठेल दिया था? फिर जी में आया, क्यों न बसन्त मामा से, उसका फोन नम्बर लेकर उसे फोन पर लाल मामी की शोचनीय अवस्था की सूचना देकर, उससे घर आने का आग्रह करे! यदि अब भी उसके हृदय में उसके लिए वही दौर्बल्य रह गया है तो वह उसका आग्रह कभी नहीं ठुकरा पाएगा। यदि ऐसा हुआ तो-बेचारी लाल मामी, पुत्र को देख शान्ति से तो जा सकेगी! इतना तो वह मामी के लिए कर ही सकती थी। फोन करने का अर्थ, यह तो नहीं होगा कि वह अपने उस विस्मृत तथाकथित प्रणयी को व्यर्थ बढ़ावा दे रही है? उसने मामा से पूछकर ही फोन मिलाया था, वह कहीं गया हो और वह अपरिचिता विदेशिनी फोन उठाए तब? पर फोन उसी ने उठाया। आवाज इतनी साफ आ रही थी, जैसे उसी की बगल में खड़ा बोल रहा हो।

"पिन्टू दा, मैं हूँ कालिंदी!”

"कौन?"

"चड़ी! अल्मोड़ा से बोल रही हूँ।"

"अरे चड़ी, तुम? कैसे आई, कब आई?" वह जैसे अधैर्य से बौराता, बाँहें फैलाता, टेलीफोन के आले में ही घुसा चला आ रहा था।

चड़ी को हँसी आ गई और उस विस्मृत, प्राणों से प्रिय परिचित हँसी की खनक, एक पल को सुननेवाले को शायद गूंगा बना गई।

"पिन्टू दा, सुन रहे हो न?"

"हाँ-हाँ, सुन रहा हूँ-बोल न चड़ी..."

"लाल मामी बहुत बीमार हैं पिन्टू दा।"

"जानता हूँ चड़ी, बाबू की चिट्ठी मुझे मिल गई है, पर कैसे आऊँ, तुम ही बताओ-मुझे आज ही वियना जाना है, बहुत बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के सामने मुझे अपना पेपर पढ़ना है..."

"तुम्हारा पेपर क्या लाल मामी से ज्यादा इम्पोर्टेट है पिन्टू दा? मामी की हालत बहुत खराब है, ज्यादा से ज्यादा आठ-दस दिन में तुम फौरन चले आओ..."

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