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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


और भागकर मामी उससे लिपट गई तो उसे लगा, आतप से झुलसा उसका शरीर, मन दोनों देवद्रुम की शीतल छाया पाकर ठंडा गए हैं।

"तार क्यों नहीं किया री?" मामी ने भी अम्मा का उलाहना दोहराया तो वह हँसकर कहने लगी, “तार क्या आजकल वक्त से पहुँचते हैं मामी? करती तो भी शायद मेरे दिल्ली लौटने के बाद मिलता-अल्मोड़ा तो एकदम सभ्य हो गया है अम्मा, पहचान ही में नहीं आता।"

"हम भी उसकी पहचान में नहीं आते बेटी! न अब यहाँ धोबी जुटते हैं, न नौकर-अभी तक हमें कोई बर्तन मलनेवाली भी नहीं जुटी-तेरी मामी ही करती है सब।"

मामी ने गर्म चाय का गिलास थमाया तो वह हँसकर कहने लगी, “नहीं, अम्मा, अल्मोड़ा नहीं बदला, जरा भी नहीं। बदला होता तो ऐसे स्टील के गिलास में चाय थोड़े ही न मिलती! क्यों मामी, कहाँ गए तुम्हारे बोन चाइना के प्याले, चाँदी की केतली, चीनीदानी, दूधदानी?"

कैसे कायदे से चाय पीती थी मामी, चाँदी की ट्रे पर नित्य नवीन बिछाया गया लेस लगा ट्रेक्लॉथ, टी कोजी से ढकी केतली और पीने से पूर्व, गर्म जल से बँगाले गए नाजुक प्याले!

“अब वह अल्मोड़ा कहाँ रह गया है कालिंदी," एक लम्बी साँस खींचकर अन्ना ने आँचल से अपना गिलास थामकर कहा, “इसी शहर में टके के दो नौकर बिकते थे, भले ही तनख्वाह न दो, दो जून की रोटी भात-दाल में ही खुश, चाहे उन्हें फिर छः महीने में ही वह रोटी लग जाती थी-तेरे बाबू कहा करते थे-भड्डू दाल दाल करबरे ऊँनी, ज्यों-ज्यों कूनै जानी (बटलोही की दाल-दाल कहते आते हैं और फिर पत्नी-पत्नी की रट लगा चले जाते हैं)। एकदम ठीक कहते थे बाबू, हमारे यहाँ से न जाने कितने मदनिया, मौनिया, बिस्नुआ, सींक-सी देह लेकर आए, और भीम बनकर साल ही भर में शादी करने घर चले गए और वहीं के हो गए-उस सोबनिया की याद है तुझे, कानों में सोने के बटन पहनता था?"

“हाँ-हाँ, पर वह काम कहाँ करता था अम्मा, दिन भर तो तीनों मामाओं के साथ पतंग उड़ाता रहता था!"

“अरे वही, अब देखेगी तो पहचान भी नहीं पाएगी। बाबू ने ही उस ढीठ को देवी के संग स्कूल में भर्ती करा दिया था, इंटर किया, बी. ए. . किया, फिर एम. ए. पास कर आई. ए. एस. भी बन गया।"

"हाय अम्मा, सच?"

“और क्या झूठ, मैंने इस बार देखा तो लगा, सपना देख रही हूँ। हे भगवान, यह क्या वही सोबनिया है जो कोट की बाँह से नाक पोंछता था! पर एक बात कहूँगी, तेरे मामा के सामने खड़ा ही रहा, कुर्सी पर नहीं बैठा, तुझे बहुत पूछ रहा था।"

"कहाँ है अम्मा, मैं उससे ज़रूर मिलूँगी।"

"चला गया। कोटा में है, किसी जज साहब की बेटी से विवाह कर लिया है, उसकी बैचमेट थी, अब तो एक बेटा भी है।"

“लगता है, अम्मा, हमारे नौकर ही ऊपर उठ रहे हैं, हम धीरे-धीरे धरातल में फँसे जा रहे हैं।"

द्वार खोलकर देवेन्द्र खड़ा हो गया तो वह भागकर उससे लिपट गई।

"अरे, ये कहाँ से आ गई! क्यों री, कैसे आई? बस से या ट्रेन से, खबर क्यों नहीं दी?"

"सबर-सबर मामा, जब से आई हूँ तब से प्रश्नों से ऐसी ही बिंधी जा रही हूँ जैसे प्रेस कॉन्फ्रेन्स के चक्रव्यूह में घिरी प्रधानमन्त्री हूँ-आ गई हूँ, क्या इतना ही काफी नहीं है?"

"है क्यों नहीं, पर हम तेरे स्वागत की तैयारी तो करते।"

"आपने क्या कम तैयारी की है मामा-आई मस्ट से, यू आर ग्रेट मामा, सिंपली ग्रेट! घर को तो आपने महल बना दिया है!"

"पर तेरी मामी तो अभी भी खुश नहीं है री।"

"कौन कहता है, मैं खुश नहीं हूँ-बस, यहाँ के रूखे लोगों से शिकायत है मुझे-न जाने कैसे उखड़े-उखड़े रहते हैं ये अल्मोड़िए! कई जगह जा चुकी हूँ, कोई आता ही नहीं।"

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