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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


यह क्यों भूल जाती हो मँझली," मामा ने हँसकर कहा, "इतने बरसों तक हम भी तो इस शहर से उखड़े-उखड़े रहे-अब यहाँ के लोग हमें स्वार्थी, भगोड़े समझते हैं, उनकी भाषा में हम 'देसी' बन गए हैं, बहुत हुआ तो चार-पाँच साल में एक बार आ गए, जून, गहत-भट्ट, बाल सिंघौड़ी बटोर फिर चले गए-सरकारी सेमिनार के विशुद्ध सरकारी पाहुने बनकर ही तो आते हैं हम पहाड़ी अफसर! सरकारी अतिथिशालाओं का आतिथ्य ग्रहण कर, भूले-भटके आत्मीय स्वजन मिल गए तो नमस्कार-वमस्कार कर लिया, नहीं तो उलाहना मिलने पर कह दिया-क्या करें, मीटिंग से ही फुर्सत नहीं मिली। न अपने बच्चों को ही अपनी भाषा सिखा पाए. हैं, न आचार-व्यवहार-कितने पर्वतपुत्र आज चरण तल नमस्कार का व्याकरण समझते हैं-हाय, हैल्लो या बहुत हुआ तो बड़ी अनिच्छा से दो हाथ जोड़ लिये।"

“क्यों जी, क्या नहीं सिखाया हमने?"-मँझली ने तुनककर कहा, "हम पैलागा कहना भूल गए हैं क्या? पूजापाठ, धर्मकर्म, श्राद्ध-क्या नहीं मानते हमने?"

"अच्छा, बताओ तो 'खतडुवा' मनाया है कभी?" देवेन्द्र रह-रहकर उसे उकसाने पर तुला था।

"वह क्या होता है मामा?"

"देखा दीदी, तुम्हारी बेटी पूछ रही है वह क्या होता है-इन्हीं छोटी-छोटी भूलों का दंड, पहाड़ हमें अब दे रहा है! उसके लिए तो उसका हर त्यौहार सवा-सवा लाख का होता है। जानती है चड़ी, जब हम छोटे थे तो यही त्योहार, हम कितनी धूमधाम से मनाते थे, पूछ अपनी माँ से-दूर-दूर की पहाड़ी चोटियों पर मशाल से जलते अग्निस्तूल और चीखते-चिल्लाते बड़े-बूढ़े बच्चे-भेल्लोजी भेल्लो, भेल्लो खतडुवा-लम्बे-लम्बे डंडों में बंधे, हरी कच्ची ककड़ी के नन्हे ‘फुल्यूण', वही फिर प्रसाद रूप में बाँटे जाते-एक बार नरिया आग पीटने में पूरी हथेली ही जला बैठा था, याद है दीदी, बाबू कैसे बिगड़े थे! पर उसे कहाँ थी परवाह, वह तो नाच-नाचकर गा रहा था :

भेल्लोजी भेल्लो
भेल्लो खतडुवा
गैकी जीत खतडुवै की हार
खतडू लागो धीरे धार!

अम्मा और मामा को ऐसे खिलखिलाते कालिंदी, बहुत दिनों बाद देख रही थी।

फिर वे उसी की ओर मुड़े, “क्यों री, कितनी छुट्टियाँ हैं तेरी?"

"बस, चार दिन, इतवार को चली जाऊँगी, इसीलिए काठगोदाम से ही रिटर्न टिकट लेकर आई हूँ।"

"इतने कम दिनों के लिए आई ही क्यों री?"

नहीं-अब आई हूँ तो कहती है, क्यों आई? चलूँ, नहा लूँ, फिर कुछ खाने को दो मामी, बेहद भूख लगी है-कहीं एक कुल्हड़ चाय भी नहीं जुटी..."

अम्मा बड़े उत्साह से खड़ी हो गई, “जा, नहा-धो ले, अब तो गुसलखाने में चौबीसों घंटे पानी रहता है।"

नहा-धोकर वह फिर हीटर खींचकर मामा से सटकर बैठ गई।

"हाँ, तो भानजी, कैसी चल रही है तेरी नौकरी? माधवी कैसी है, उसे भी साथ ले आती।"

माधवी के नाम के साथ ही कालिंदी का चेहरा म्लान हो गया, फिर वह अपने को संयत कर हँसी, “वह कैसे आती मामा? उसकी शादी है अगले महीने।"

"क्यों, माँ-बापं राजी हो गए क्या?"

"नहीं, पर वह कहती है, वह उनकी अनुमति की अब और प्रतीक्षा नहीं करेगी।"

माधवी की शादी की सम्भावित तिथि सुनकर देवेन्द्र सोच में डूब गए, कालिंदी तो अब दिल्ली में एकदम ही अकेली रह जाएगी।

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