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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


“हाँ, चल न कालिंदी-रात को तो लौट ही आएँगे।" माधवी ने बड़ी ललक से उसका हाथ पकड़ लिया।

"नहीं माधवी, मैं तो वैसे भी आज जा ही रही थी, कुछ पहले चली जाऊँगी तो मुझे सुविधा ही होगी, देर से पहुंची तो दूधवाला, ब्रेडवाला, नौकरानी सब ताला देखकर लौट जाएँगे।"

दोनों को वहीं छोड़ वह फिर अपना बैग लेकर तेजी से बाहर निकल आई थी। घर पहुँचते ही वह सीधी पलंग पर, कटे वृक्ष सी ढह गई।

छिः-छिः, उस नीच कामातुर व्यक्ति का स्पर्श उसे अभी भी डंक दे रहा था। माधवी, निष्कपट, भोली माधवी, क्या कभी उसके साथ रह पाएगी? उन दोनों की वर्षों की मैत्री, क्या उससे यह आशा नहीं करती थी कि वह उसे सब कुछ बता दे?

क्या उसका यह कर्तव्य नहीं था कि समय रहते वह अपनी प्रिय सखी को, उस कुटिल व्यक्ति के प्रति सचेत कर दे?

छिः-छिः, जब उसने अपनी भावी पत्नी की सबसे अन्तरंग सखी के साथ ही यह बेहूदी हरकत करने का दुःसाहस किया तो वह औरों के साथ क्या करता होगा? एक बार उसने उसे एक बदनाम नर्स के साथ ऐसे ही हँसतेबतियाते देखा और माधवी से कह दिया तो वह उसी पर बरस पड़ी थी-“यू डोंट नो हिम, ऐसा जिंदादिल इंसान है, तुम तो मेरी दादी की-सी बातें करने लगी हो कालिंदी-डॉक्टर है तो नौं से भी बातें करनी पड़ेंगी-कौन सा अँधेर हो गया!"

और फिर उसने कभी कुछ नहीं कहा, पर इतनी बड़ी बात उससे छिपा गई, तो वह कभी अपने को क्षमा कर पाएगी? पर कैसे कहे? कहीं अखिलेश ने झूठमूठ, उसे ही लपेट लिया तब? अपनी छवि अम्लान बनाए रखने के लिए वह ऐसा भी तो कर सकता था। वह तो फिर अपने प्रेमी का ही विश्वास करेगी-पूरी रात, उसने इसी उधेड़बुन में काट दी थी, कहे, या चुप रहे। जब, पहले कभी दोनों में नारी मुक्ति आन्दोलन को लेकर बहस चलती, तो वह हमेशा माधवी से उलझ पड़ती थी-यदि आज नारी पुरुष के समकक्ष खड़ी होने का दावा करती है तो फिर क्यों अपनी समस्याएँ स्वयं नहीं सुलझा पाती? क्यों अभी भी घर्षिता-शोषिता नारी समाचार पत्रों का समर्थन चाहती है, क्यों प्रधानमन्त्री का जहाँगीरी घंटा बजाने भागती है? अपराधी को तत्काल स्वयं दंडित नहीं कर पाती? याद है, उस बार उस सामूहिक बलात्कार की शिकार, उस सुशिक्षित युवती ने कैसे दबाव में आकर, दूसरे ही दिन अपना बयान बदल हमारी मेडिकल रिपोर्ट झूठी बना दी? वहीं पर मेरी नौकरानी की लड़की ने, स्वयं अपने अपराधी को दंडित करने का साहस किया तो मजाल कि अपराधी आज तक सिर उठा पाया हो? निपट गँवार-अनपढ़, वह किशोरी एक प्रख्यात आर्किटेक्ट के यहाँ बर्तन मलती थी, उसकी पत्नी मायके गई थी। दोनों लड़कियाँ अपनी ससुराल में थीं, बुजुर्ग गृहस्वामी की गलित-पलित केश दन्तपंक्ति देखकर ही निश्चित हो, महरी ने उसे वहाँ काम पर लगाया था। गृहस्वामी ने जैसी कुचेष्टा करने का दुःसाहस किया, उसका उचित पुरस्कार भी उन्हें उस तेज-तर्रार लड़की ने तत्काल दे दिया था-

'बस, हमने राख से सना कलछुल उठाया और दे मारा साहेब के सिर पर, खून टपकते सिर को थाम वहीं भन्न से बैठ गया बदजात।

"यह है नारी-मुक्ति माधवी, यह नहीं कि टके में बिकने वाली सस्ती पत्रकारिता का दामन थाम, स्वयं ही अपराधिनी बन जाने की सम्भावना की खाई में कूद पड़े! क्यों आज भी नारी अपनी समस्त प्रताड़ना, शोषण की लज्जा को कंठ में ही घुटककर चुप रह जाती है। यही कारण है, पुरुष अब भी 'जबरा मारे और रोने भी न दे' कहावत को चरितार्थ करता है। कितनी बार तो हम सुनते हैं-वह लड़की बड़ी फास्ट है, किसी राजनीतिक दल ने उकसाया होगा, उस बुढ़ापे में भला फलाँ सज्जन उसे छेड़ेंगे? या फलाँ परिवार को हम जानते हैं जी, निहायत शरीफ लोग हैं, वे भला दहेज के लिए बहू को जलाएँगे? किस बात की कमी है उन्हें? बहू का किसी से विवाह से पहले ही सम्बन्ध था, मिट्टी का तेल डाल खुद तो जली ही, अपने बेकसूर ससुराल वालों को भी फंसा गई! यही कारण है कि बदनामी से डरकर, नारी स्वयं ही कलुष के मल को राख से ढक, जान-बूझकर मुँह फेर लेती है! पर देख लेना माधवी, मेरे साथ कभी ऐसा हुआ, तो वहीं पर राख से सना कलछुल मारने में कभी हिचकिचाऊँगी नहीं!"

पर कहाँ मार पाई थी राख से सना कलछुल?

क्या, उसने भी अपनी लज्जा स्वेच्छा से ही कंठ में नहीं घुटक ली थी?

अखिलेश को वह जानती थी। कहीं उसने कह दिया कि अकेले में, कालिंदी ही सिंहिका बन उसे ग्रसने आई थी, तब? कोई साक्षी तो था नहीं!

नहीं, वह चुप ही रहेगी! पर वह अब कुछ दिनों तक माधवी से एकदम नहीं मिलेगी, कहीं कुछ मुँह से निकल गया, तब? उससे बचने का एक ही उपाय था, वह कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पहाड़ चली जाए। उसने वही किया। यहाँ रहकर माधवी से भी कुछ नहीं कहा तो अखिलेश समझेगा, वह उससे डर गई है, और इस डर को वह कहीं अपनी जीत न समझ बैठे।

दूसरे ही दिन, वह छुट्टी की अरजी देकर बिना माधवी को कुछ बताए पहाड़ चली गई थी। जब वह बिना किसी को पूर्व सूचना दिए, हाथ में सूटकेस लटकाए घर पहुँची तो हीटर के पास बैठी, अन्ना हड़बड़ाकर उठ गई थी।

"हाय, मैं मर गई! अरी चेली, एक तार तो कर दिया होता, देबी लेने आ जाता। अरी मँझली, देख तो कौन आया है!"

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