नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
“अरे बैठो न, मैं चाय का पानी चढ़ा आई हूँ।"
अखिल, बड़े अन्तरंग अधिकार से तख्त पर, गावतकिया लगा अधलेटी मुद्रा में
सिगरेट जलाने लगा। फिर उठकर उसने बड़ी तेज आवाज में टी. वी. लगा दिया।
"प्लीज अखिल, कम कर दो जरा, मुझे टी. वी. से ही एलर्जी है, फिर यह मनहूस
मॉर्निंग ट्रांसमिशन तो मैं देख नहीं सकती। इतनी जोर से क्यों लगाया है?
वॉल्यूम कम कर दो प्लीज अखिल!"
उसने चाय-नाश्ता मेज पर धरा और हाथ से ललाट पर झुक आई बालों की लट हटा, हँसती
खड़ी हो गई। अखिलेश ने वॉल्यूम को और तेज कर दिया और उचककर बैठ गया,
"जान-बूझकर ही तेज किया है मैंने," भोली कालिंदी तब भी नहीं समझी, उसने दोनों
हाथों से कान मूंद लिये और उसी मुद्रा में किचन की ओर जाने लगी-वह मुड़ी ही
थी कि चील की भाँति झपट्टा मार, उसे दुःसाहसी पाहुने ने दबोच लिया था।
“अब समझ में आया, मैंने वॉल्यूम तेज क्यों किया था? ओह कालिंदी, तुम कितनी
सुन्दर हो! तुम जानती हो, जब तुम थर्ड इयर में थीं तब ही से तुमने मेरी नींद
हराम कर दी थी।"
कालिंदी एक क्षण को स्तब्ध रह गई थी-फिर उसने अपनी समस्त शक्ति लगा, अपने को
उस लौह बाहुपाश से छुड़ा लिया था। उसकी आँखों से आग की लपटें-सी निकल रही
थीं।
उसके जबरदस्त धक्के से लड़खड़ाता अखिलेश, उसी तख्त पर जा गिरा था जहाँ से उठा
था।
"छिः, छिः, अखिल, तुम इतने नीच होगे, मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।"
अचानक वह दीन विगलित स्वर में गिड़गिड़ाता, उसके सामने हाथ बाँधे खड़ा हो गया
था, "प्लीज, प्लीज कालिंदी, आई एम सॉरी, आई एम रियली सॉरी-तुम इतनी सुन्दर लग
रही थीं कि मैं सब कुछ भूल गया-माधवी अभी आती ही होगी-उससे कुछ मत कहना
कालिंदी-तुम उसे जानती हो, वह बेहद इमोशनल लड़की है-कहीं कुछ कर न बैठे!"
ठीक उसी समय घंटी बजी, माधवी आ गई थी। कालिंदी के दोनों आरक्त कपोल गर्म
इस्त्री से दहक रहे थे-क्या सोचेगी वह उसे इस अवस्था में देखकर?
फिर उसने साहस कर द्वार खोल दिया, माधवी ने पहले तख्त पर बैठे अपने प्रणयी को
नहीं देखा।
"कैसी फब रही है तुझ पर यह साड़ी-सच कहती हूँ कालिंदी, पुरुष होती तो इसी
क्षण तुझे बाँहों में भींच तेरा कीमा बना देती।"
“एकदम ठीक कह रही हो माधवी।" वह मुँहजोर चाय की चुस्कियाँ लेता बड़ी बेहयाई
से मुस्करा रहा था। “यही तो मैं कालिंदी से अभी कह रहा था-तुम आज बहुत सुन्दर
लग रही हो, कालिंदी।"
कालिंदी को लगा, अचानक उसके शरीर का समस्त रक्त तुंग शिखर पर पहुँच, उसकी
मस्तिष्क शिराओं को झनझनाता, नोंचता, कनपटियों पर हथौड़े चला रहा है।
“अरे, तुम कब आए अखिल, तुम तो आगरा गए थे न, अपने विदेशी मित्रों को ताज
दिखाने?"
“वही ताज तो मुझे ले बैठा माधवी।" उसने एक लम्बी साँस खींचकर कहा तो कालिंदी
का पिद्दी का-सा कमजोर कलेजा फिर धड़क उठा-अब कहीं अपने ही मुँह से तो सब कुछ
नहीं उगल देगा अभागा! पर उस बेहया ने, अपने दोनों पैर ऊपर उठा लिये और पालथी
मारकर, बड़े इत्मीनान से बैठ गया, "ताज देखने के बाद मैं अपनी मुमताज को
देखने व्याकुल कैसे न होता?" और फिर उसने बड़ी अन्तरंग आत्मीयता से माधवी को
अपने पास ऐसे खींच लिया कि वह 'क्या करते हो, क्या करते हो' कह उसकी गोद में
लुढ़क पड़ी।
उसी क्षण, पुरुष मात्र की शत्रु बन उठी थी कालिंदी-छिः छिः, ऐसी प्रवंचना,
थोथे प्रेम का ऐसा ओछा प्रदर्शन, क्या कभी नारी यह कर सकती है?
“माधवी, मैं तुम्हें लेने आया हूँ।"
"मुझे? कहाँ?"
"मेरठ से बुआ आई हैं, उन्होंने तुम्हें नहीं देखा, आज रात की गाड़ी से जा रही
हैं। कहा है, तुम्हें अपने साथ ले आऊँ-जल्दी से तैयार हो लो-आप भी चलिए ना
डॉ. पन्त?" फिर वह बड़ी विनम्रता से कालिंदी की ओर मुड़ा और उसके उत्तर की
प्रतीक्षा करने लगा।
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