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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


माधवी उससे नाराज भी हो गई थी, किन्तु कालिंदी जानती थी कि माधवी के कट्टर कैथोलिक परिवार ने उसके हिन्दू सहपाठी के साथ विवाहबद्ध होने में घोर आपत्ति की है और एक ऐसी शर्त रख दी है, जो माधवी के भावी सहचर को कदापि मान्य नहीं होगी। वह शर्त थी कि बिवाहपूर्व हिन्दू पात्र गिरजाघर जाकर, स्वयं विधिवत् कैथोलिक धर्म ग्रहण करे। माधवी फिर भी अपने निश्चय पर अडिग खड़ी थी, वह विवाह करेगी तो डॉ. शर्मा से अन्यथा आजन्म कुँआरी रहेगी।

यद्यपि अखिलेश शर्मा, कालिंदी को कभी प्रभावित नहीं कर पाया-माधवी जैसी गम्भीर सुलझे स्वभाव की लड़की, उसके भ्रामक व्यक्तित्व के छलावे में आ कैसे गई, यही वह समझ नहीं पा रही थी। अखिलेश का नारी साहचर्य-लोलुप चित्त-भ्रमर, कभी एक ही पुष्प पर नहीं मँडरा पाएगा। कई बार वह उसे अपनी कई सहपाठिनियों के इर्द-गिर्द मँडराता देख चुकी थी, माधवी ने न देखा था, ऐसा भी नहीं हो सकता था, फिर भी वह अपने उस प्रमदाप्रिय प्रणयी को नाना उपहारों से लाद, पूर्ण वश में कर चुकने का दावा करती थी। उसके माता-पिता प्रगतिशील विचारों के थे, स्वयं उन्होंने प्रेम-विवाह किया था। माधवी को छोड़ उनके दो बेटे थे, दोनों बेटों ने अमेरिका की सिटिजनशिप ले वहीं विवाह कर लिया था, किन्तु जहाँ तक उनके धर्म का प्रश्न था, वह किसी प्रकार का समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे। वहीं पर अखिलेख के माता-पिता को कोई आपत्ति नहीं थी, किन्तु पुत्र को स्वधर्म त्यागने की अनुमति उन्होंने भी नहीं दी। अखिलेश की माँ ने थोड़ी-बहुत आपत्ति की थी, उन्होंने अपने गोरे उजले पुत्र के लिए सुन्दरी गोरी बहू के सपने देखे थे, माधवी साँवली ही नहीं काली थी, यद्यपि उसके, केरल के विशुद्ध नारियल तेल से सिंचे एड़ी-चुम्बी बाल और कटी-कटी कर्णचुम्बी आँखों में, अपना अनोखा ही आकर्षण था। हँसने पर काले बादलों के बीच चमकती विद्युत छटा-सी दन्तपंक्ति उसका पूरा चेहरा उद्भासित कर उठती। पहनने-ओढ़ने में उसकी रुचि अद्वितीय थी। साड़ियों के रंग, असली जरी की किनारियाँ, भारी-भारी कांजीवरम् पट्टाम्बर परिधानों की छटा, उसके व्यक्तित्व को ऐसे सँवारकर प्रस्तुत करतीं कि लगता, चलने-फिरने, उठने-बैठने में लड़की मॉडलिंग ही कर रही है-कभी भारी आँचल को सीधा-आड़ा कर, कभी माथे पर घूँघट-सा बना लजीली हँसी का अंगराग बिखरा वह भावी सास को भी मना ले गई।

अखिलेश के पिता पुत्र की ही भाँति दूरदर्शी थे। उन्हीं ने फिर पत्नी को समझाया था, "देखो मीना, यह युग सुन्दरी बहू पसन्द करने का नहीं है, अब बाप के बैंक का सौन्दर्य देख लड़की पसन्द करते हैं समझदार माँ-बाप, समझीं? मातृसत्ता का परिवार है, चाय के सोना उगलने वाले बगीचे, बड़ी-बड़ी कोठियाँ एक त्रिवेन्द्रम में है, दूसरी कोचीन में, तीसरी ऊटी में-एक ही बेटी, आखिर कितने दिन बेटी की ममता त्याग पाएँगे? मिलेगा तो सब हमारे अखिल को ही यकीन मानो मीना, अब हमारा-तुम्हारा जमाना नहीं रहा, जब एक दूसरे के नैन-नक्श, रंग-रूप देखकर हम रीझते थे, यहाँ सूरत नहीं देखी जाती, लड़की के बाप की मूरत देखी जाती है।"

दोनों सखियाँ, गले में आला लटका, डॉक्टरी लबादे की ढीली जेबों में हाथ डाल साथ-साथ चलतीं तो मनचले सहपाठी फब्तियाँ कसते, "देख, देख रात-दिन एक साथ चले जा रहे हैं!"

कालिंदी आग्नेय दृष्टि से उन्हें भस्म कर, कुछ कहने को उद्यत होती तो माधवी उसका हाथ दबा, फब्तियाँ कसने वाले दुःसाहसी सहपाठियों की ओर, अपनी मीठी मुस्कान उछाल देती। दोनों में यही अन्तर था, माधवी के लिए पुरुष मित्र थे, कालिंदी के लिए शत्रु। अपने रिश्ते की व्यर्थता के बाद, उसे पुरुष मात्र से घृणा हो गई थी। इसी बीच, अचानक घट गई एक दुर्घटना ने उसे और भी पुरुष-द्रोही बना दिया था।

तीन दिन की छुट्टियाँ, सहसा परिवार के औदार्य से चार दिन की बन गईं तो माधवी उसे अपने साथ खींच ले गई थी। वह पहाड़ जाने का प्रोग्राम बना रही थी, मामा कई बार लिख चुके थे–'एक बार अपने नए घर की कायापलट तो देख जा, क्या आला मौसम है, तुझे कौसानी दिखा लाऊँगा-एक बार देख लेगी तो दिल्ली भी भूल जाएगी...' पर माधवी हाथ धोकर पीछे पड़ गई थी, “नहीं तुझे पहाड़-वहाड़ नहीं जाना होगा, दो दिन आने-जाने में लग जाएँगे और दो दिनों में तू कौन-सा पहाड़ घूम लेगी-इससे तो गरमियों में जाना, मुझे भी तब कोचीन जाकर, अपने मूर्ख ममी-डैडी को समझा-बुझा, अन्तिम गुडबाय करनी है-चल अभी मेरे साथ, एक साथ घूमेंगे, शॉपिंग करेंगे, मुझे अपना...भी तो जुटाना है।"

तीन दिन देखते ही देखते बीत गए थे, इतवार को माधवी सुबह नहा-धोकर गिरजाघर जाती थी। "नाश्ता लौट कर करेंगे कालिंदी, तब तक तू नहा-धोकर तैयार हो जाना, फिर कहीं बाहर खाना खाने चलेंगे-है न ठीक?"

नहा-धोकर उसने माधवी की ही एक साड़ी पहन ली थी, माधवी ने उसे अपनी साड़ियाँ लाने ही कहाँ दी थीं, "मेरी इतनी साड़ियाँ तो पड़ी हैं, तू कुछ मत ले चल..." और फिर जाते-जाते कह गई थी-"कोई भी साड़ी निकाल कर पहन लेना।"

सामने ही लटकी, सफेद वेंकटगिरी ही उसने निकालकर पहन ली थी। हलकी पीली बूटियाँ, वैसा ही पीला बॉर्डर और अँगुली-भर की आकर्षक कन्नी। बाल अभी गीले ही थे, उन्हें अंगुलियों से सुलझाती वह बाल्कनी पर खड़ी सुखा रही थी कि देखा, सामने से अखिलेश आ रहा है-उसे खड़ी देख, वह वहीं से हाथ हिलाकर हँसा, "व्हट ए प्लीजेंट सरप्राइज! तुम कब आईं? माधवी नहीं है क्या?"

कालिंदी ने हँसकर कहा, "माधवी गिरजे गई है, तुम ऊपर आओ न अखिल, वह आती ही होगी।" फिर वह द्वार खोलने मुड़ी।

अखिल मुस्कराता खड़ा था-लाल रंग की टी-शर्ट में उसका खिला चटक गोरा रंग, और भी गोरा लग रहा था। आँखों पर धूप का चश्मा और ओठों पर दुष्टतापूर्ण स्मित, “वाह, गजब लग रही हो डॉ. पन्त, बैठने को नहीं कहोगी?"

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