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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


यद्यपि रुद्रदत्त भट्ट को ऐसी अघोरी साधना पर रंचमात्र भी श्रद्धा नहीं थी किन्तु एक दिन, जब भैरवी ने स्वयं आकर उनके आँगन में त्रिशूल गाड़ दिया, तो वे कुछ कह नहीं पाए।

“माई, अब कुछ दिन तेरे ही घर में भोजन पाएगा रे बामण,” उसने कहा तो उस दबंग साक्षात भवानी रूपा भैरवी के सम्मुख रुद्रदत्त भट्ट हाथ बाँधे खड़े ही रह गए थे।

तब अन्ना की सगाई हो गई थी, अगले महीने आषाढ़ में विवाह-तिथि निश्चित हुई थी।

"हूँ, क्यों रे बामण, तेरी लड़की की ‘मंगजै' (सगाई) हो गई है न?"

भैरवी ने प्रश्न के साथ वहीं पर खड़ी अन्ना को ऐसी तीखी दृष्टि से देखा कि उसे लगा, किसी ने उसके नंगे बदन में दो जलते अंगारे रख दिए हैं।

"हूँ, आषाढ़ में इसका ब्याह मत करना रे बामण-बहुत दुख पाएगी-सुना नहीं-आषाढ़े दुःखिता नारी?"

“जानता हूँ माई, पर इसके ससुराल वाले वड़े ऐबी हैं। कहते हैं, आषाढ़ का लगन ही उन्हें ठीक सूझता है।"

भैरवी ने आँखें बन्द कर लीं, जैसे अन्ना के भविष्य की झाँकी देख रही हों।

आँखें खोली तो देखा, गहरे सोच में डूबे चिंतित रुद्रदत्त भट्ट खड़े हैं।

"देख रे  बामण, तू पत्रा बाँचता है, अपनी बेटी का भाग नहीं बाँच सका?"

भैरवी का एक दाँत, गजदंत-सा उठा था और इसी उठे दाँत के कारण हँसने में उसके अधर, बड़ी मोहक तिर्यक भंगिमा में मुड़ जाते थे।

द्वार की ओट से अन्ना सब कुछ सुन रही थी-पिता ने शायद ओट में छिपी पुत्री को नहीं देखा, नहीं तो शायद अपना वह प्रश्न नहीं पूछते।

"आपने क्या देखा है जगदम्बा? कुछ अनर्थ होने वाला है तो निवारण बता दो माई!"

"हूँ,” वह हँसी, “भाग्य में जो लिखा होता है उसका निवारण नहीं होता रे बामण-तू जन्मकुंडलियों के कितने दुष्ट ग्रहों को साध पाया है अब तक? सुनना ही चाहता है तो सुन, तेरी इस पुत्री के भाग्य में सदा कृष्णपक्ष ही रहेगा, शुक्लपक्ष कभी आएगा ही नहीं।"

"ऐसा श्राप मत दो माई, तुम्हारी धूनी की एक चुटकी भस्म ही इसे बचा लेगी-बिना माँ की इस लड़की को मैंने छाती से लगाकर पाला है..." बाबू रो ही पड़े थे।

“कोई भस्म इसे सुख-शान्ति नहीं दे सकती, इसकी चिता भस्म ही इसे सुख-शान्ति देगी-समझा?"

उसी रात वह फिर त्रिशूल उखाड़ कहीं चली गई थी-अब तक वह शायद सृष्टिपर्व का खेल दिखा रही थी और अब आरम्भ हुआ था उसका संहार पर्व-शायद, उसका शहर उजाड़ने का पहला पड़ाव भट्ट जी का ही गृह बना था। फिर वह जहाँ गई, वहीं मेजबान का दुर्भाग्य, उसके त्रिशूल के साथ-साथ बहुत गहरे तक गड़ गया था। पहले गई महेश्वर पंत के यहाँ, उनका जवान कड़ियल दो ही दिन में ज्वर से चल बसा। डॉक्टर ने कहा, गर्दन तोड़ है पर लोगों में दबे स्वरों में कानाफूसी होने लगी-उसी भैरवी ने अपने तन्त्रबल से उसकी गर्दन मरोड़ दी है।

फिर पहुँची भवानीदत्त पन्त के यहाँ, उनकी भली-चंगी प्रौढ़ा पत्नी सहसा विक्षिप्त हो पति की चूड़ीदार पहन सड़कों पर डोलने लगी, एक बेटा घर से भाग गया, दूसरा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का मेधावी छात्र था, अधूरी पढ़ाई छोड़ वह भी गुमसुम बना अपने कमरे में बन्द रहने लगा।

किशोरी पुत्री भी उसी भविष्यवाणी को सुन ऐसी गुमसुम हो गई है, यह रुद्रदत्त भट्ट समझ गए थे। उन्होंने उसे बहुत समझाया, “तूने उस दिन जो सुना, वह सब उस अलक्षिणी भैरवी की बकवास थी री अनिया, तू अपना जी छोटा न कर-ऐसी ही सिद्ध होती तो क्या इतने घर बरबाद करती?" पर अन्नपूर्णा के नन्हे हृदय में तो जैसे भैरवी की भविष्यवाणी का भयावह त्रिशूल गड़कर रह गया था। इतने वर्ष बीत जाने पर भी वह उसकी वह बात नहीं भूल पाई थी। कहीं उसकी वही अभिशप्त ललाट-लिपि तो उसकी पुत्री के जीवन में अपना इतिहास नहीं दोहरा रही थी? कालिंदी ने, अपने लिए एक बरसाती ढूँढ़ ली थी, माधवी ने बहुत आग्रह किया था कि वह उसके साथ रहे। एक ही कमरे का बेडरूम क्यों न हो. दो पलंगें तो वहाँ आ ही सकती थीं।

नहीं माधवी, मैं जानती हूँ कि यहाँ एक पलंग और पड़नेवाली है, फिर मैं कहाँ जाऊँगी? अभी तो सिर छिपाने की जगह मिल रही है, हो सकता है, फिर यह भी न जुटे!"

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