नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
उसे लेकर तरह-तरह की अफवाहें फैलने लगी थीं। कोई कहता, उसका सम्बन्ध नागवंशी
रमोला बन्धुओं से है। कोई कहता, हिमाच्छादित पर्वत-शिखरों पर विचरण करनेवाली
परी आचरियों की वह बहन है और उसने स्वयं गुरु गोरखनाथ से बावन विद्याएँ पढ़ी
हैं और पुनः अवतार ले अल्मोड़ा पधारी हैं। फिर तो जहाँ उसका त्रिशूल गड़ता,
स्वयं कुबेर ही जैसे अपना छत्र लेकर वहाँ जम जाते, किसी चिरदरिद्र गृह का
दारिद्र्य, उस रहस्यमयी भैरवी की उपस्थिति से ही, कपूर के धुएँ-सा विलीयमान
हो गया, किसी की डरवी की लौटरी खुल गई, तीसरे का जन्मांध पुत्र देखने लगा, उस
भैरवी को, अपने-अपने घरों में प्रतिष्ठित करने में लोगों में, होड़-सी लग गई,
पर भैरवी तो अपनी मरजी की मालकिन थी, बुलाने से कहीं जाती थी?
अल्मोड़ा में, उन दिनों ऐसे अनेक सिद्ध थे-एक थे टच पंडित। जिसे टच किया; उसी
का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया। मनुष्य मात्र की ललाट-लिपि को डिसाइफर करने
में, उन्हें कमाल हासिल था। दूसरे थे डुनत्याड़ी। उनका एक पैर जन्म से ही
ग्रहणग्रस्त था, इसी से बैसाखी के सहारे, वे मचक-मचककर चलते। कहा जाता था कि
त्रिपुर सुन्दरी के मन्दिर में देवी की अटूट साधना कर वे कर्णपिशाची सिद्धि
प्राप्त कर चुके हैं, सिर पर उलझे बालों का जूड़ा, वट के प्ररोह-सी दाढ़ी,
लाल आँखें और ललाट पर भस्म का टीका। कन्या के विवाह के दिन घनघोर घटा छा जाए
और बिजली की चमक, गरज-तरज कन्या के माता-पिता को आशंकित कर दहला दे, कि कहीं
ऐन धूल्यर्घ के समय इन्द्रदेव पानी बरसा सब बरबाद न कर दें-पर वे भागकर
डुनत्याड़ी के चरण गहते, “महाराज, तुम्हीं बचा सकते हो हमें, बूंदें पड़ने
लगी हैं..."
“जा,” वे धूनी से एक चुटकी भस्म उठाकर दोनों के ललाट में टेक देते, "निश्चित
होकर कन्यादान कर, पानी नहीं बरसेगा..."
और सचमुच कन्या के विदा होने के बाद ही पानी बरसता-उनकी अलौकिक सिद्धि की तो
स्वयं अन्ना भी साक्षिणी थी। एक बार उसकी प्रतिवेशिनी मन्दा रोती हुई उसके
पास आई थी, "क्या करूँ री अन्ना, मेरी बेटी की लगन-तिथि ससुराल वालों ने
पक्की कर आज भेजी है-एक ही लड़की है मेरी, पर लगता है, कन्यादान का पुण्य
नहीं बटोर पाऊँगी।"
"क्यों?" बड़े आश्चर्य से उसने पूछा तो वह रुआंसे स्वर में बोली, “उसी तिथि
में, मैं अशुद्ध रहूँगी-छूत की पाल है री!"
फिर अन्ना ही उसे डुनत्याड़ी के पास ले गई थी और उन्होंने अपनी अर्धोन्मीलित
लाल आँखें तरेरकर पूछा, “क्या है? लड़के का रिजल्ट निकलने वाला है क्या?"
"नहीं महाराज,” मन्दा ने रुआँसे स्वर में कहा।
"मरद रंडियों के यहाँ जाने लगा है क्या?"
"नहीं महाराज।"
"तब क्या है री छोकरी-क्यों सुबह-सुबह परेशान करने आ जाती हो तुम लोग?"
मन्दा ने सिर झुका लिया, कैसे कहे अपनी समस्या!
फिर अन्ना ने ही धीरे स्वर में कहा था, "महाराज, इसकी एक ही बेटी है,
कन्यादान करना है..."
"तो करे ना, किसने पकड़ा है इसका हाथ?"
"महाराज, उसी दिन इसके अशुद्ध होने का भय है इसे।"
"ले।" उन्होंने आँखें बन्द कर न जाने कौन-सा सिद्धि मन्त्र पढ़ा और भस्म देकर
कहा, “जा, खा जा इसे और एक नहीं, सत्रह बेटियों का कन्यादान कर ले।"
गजब के सिद्ध थे डुनत्याड़ी! तीसरी थी एक विधवा ब्राह्मणी, जिनकी कुंडली गणना
का लोहा अल्मोड़ा के पुरुष ज्योतिषी भी मान चुके थे, फिर वहाँ और भी ऐसे
तान्त्रिक थे जो अपनी अचूक 'घात' की लौंगरेंज मार से सात समुद्र पार गए शत्रु
को भी परलोक पहुँचा सकते थे।
ऐसे ही, वर्षों से जमे सिद्धों ने इस भैरवी को देखते ही जेहाद छेड़ दिया
था-शराब पीती है, कच्चे माँस का भोग लगाती है, मादरजाद नंगी बन, कृष्ण
चतुर्दशी को बिसनाथ के मसान में बैठ चिताओं की आग तापती है। एक न एक दिन, यह
निश्चय ही अल्मोड़ा के सरल धर्मभीरु नागरिकों का काल बनेगी।
सब जानते थे कि भैरवी को नित्य प्रचुर मात्रा में आसव चाहिए। “देवी की साधिका
हूँ, देवी को प्रसन्न करके, उन्हें मदालस बना कर ही तो उनका आह्वान कर सकती
हूँ।” वे कहतीं।
और फिर, उन्हें अपने गृह में त्रिशूल गाड़ धूनी रमाने से रोक ही कौन सकता था!
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