नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
फिर जब 'तू बाँसुरी की तान अअं अं अं अं' कुछ अक्षर उसकी अं अं की नक्की गूंज
में खो जाते-बीच-बीच में उसकी क्लात सहचरी नाचते-नाचते, फट्ट से जमीन पर बैठ
जाती तो वह सारंगी के गज से उसे कोंचकर कहता, 'नाच साली, नाच' और ऊँचे परों
वाली किसी तितली की ही भाँति वह बेजान गरीब हाथ-पैर हिला फिर नाचने लगती।
और तब अल्मोड़ा की हर गली में कितने पागल मत्तगयंदों-से घूमते थे, लैला-मजनूं
का जोड़ा, ठिंगनी-सी चौकोर कद-काठी की वह बदसूरत लैला और लम्बा सींकिया देह
का स्वामी मजनूँ, दोनों ही पाताल देवी की किसी खोह में रहते थे, फिर उलझे
जटाजूट वाली देबुली पगली, जिसके पीछे मनचले छोकरों की एक लम्बी कतार रहती, वह
कभी नाचती, कभी गाती और कभी खिलखिला कर लहँगा उठाकर सर पर धर लेती-बुजुर्ग
मुँह फेर लेते और
छज्जों पर खड़ा नारी समुदाय, उस पर हजार फटकारें बरसाता-और किसी समृद्ध सुनार
का लड़का बिजूलाट जिसकी लार हर वक्त टपकती रहती, सुन्दरी लड़कियों को देख वह
बौरा जाता, फुटबॉल की मैच के विजेता "हिप हिप हुई" करते तो वह अपनी लटपटी
जिह्वा से उसी धुन को दोहराता-पिपी टू पिपी टू!
अल्मोड़ा का हर विस्मृत भिखारी, गूंगा, हर नाचने-गाने वाली की प्रेतछायाएँ,
अब भी जैसे उस जनसंकुल चिर परिचित सड़क पर हाथ हिला-हिलाकर नाचती, देवेन्द्र
को अँगूठा दिखा रही थीं-"क्यों रे बड़ा प्रेम उमड़ा था न जन्मभूमि पर! अब वह,
और जो भी हो 'स्वर्गादपि गरीयसी' नहीं रह गई है देवेन्द्र भट्ट!"
कुछ दिनों तक अन्ना को भी स्मृतियों ने विह्वल कर दिया था, पर धीरे-धीरे उसने
अपनी दिनचर्या स्वयं ही ऐसी बना ली कि ऊबने की गुंजाइश ही नहीं रही। सुबह वह
नहा-धोकर चाय बनाती, फिर सुदीर्घ पूजा। कभी दिन में उठने-बैठने वाली पूर्व
परिचिताएँ आ जातीं, कभी पड़ोस में भागवत सप्ताह होता, कभी कीर्तन और कभी
जागरण। फिर उसके असंख्य व्रतों का क्या कोई अन्त था? उतनी दूर अकेली पड़ी
पुत्री के लिए वह कभी-कभी अवश्य उदास हो जाती तो देवेन्द्र उसे पुरानी
स्मृतियों के प्रसंग से गुदगुदाने की चेष्टा करता-“याद है दीदी, तब अल्मोड़ा
की बहुत-सी विधवाएँ दल बाँध, पातालदेवी के किसी गुरु के पास नित्य भागवत
सुनने जाती थीं और बाबू कहते थे-छोकरो, घड़ी मिला लो, ग्यारह बज गए हैं,
अल्मोड़े का 'रांडी क्लब' पातालदेवी जा रहा है।"
अन्नपूर्णा को उस विस्मृत प्रसंग ने गुदगुदा दिया और वह हँसने लगी, "तू कुछ
भी नहीं भूला रे, बड़ी याद है तुझे।"
वह स्वयं भी तो कुछ नहीं भूली थी, सब कुछ तो वहीं था, एक अपना घर ही उसे
अनचीन्हा लग रहा था। कभी इस कमरे की छत की बल्लियाँ थीं चालीस, आज देबी ने छत
का नक्शा ही बदल दिया था, गुसलखाने में लगे गुलाबी टाइल्स और गीजर। कभी इस घर
के भीतर एक नल भी नहीं था।
बाहर चौराहे की टंकी में लगे नल पर ही पूरा मुहल्ला नहाने आता था। वहीं टंकी
पर कपड़े टाँग, माघ की कुहेलिका को चीरता, ठंड से थरथराते स्नानोद्यत बाबू का
स्वर साफ सुनाई देता-"विष्णु-विष्णु"। छोटा नरिया हँस कर कहता, "देख, देख
दीदी, बाबू 'सिटौल' का-सा स्नान कर रहे हैं।" (सिटौल नामक एक पहाड़ी पक्षी जो
क्षणिक डुबकी लगा स्नान चटपट सम्पन्न करने के लिए एक पहाड़ी कहावत ही बन गया
है।)
"चुप कर, पढ़ रहा है या यही सब देख रहा है?" अन्ना डाँटती तो वह बड़ी धृष्टता
से हँसकर कहता, “झूठ थोड़े ही ना कह रहा हूँ, जोर-जोर से विष्णु-विष्णु कहकर,
छींटे ही तो मार रहे हैं, वह भी शरीर पर नहीं टंकी पर। खुद देख लेना दीदी,
साफ दिख रहा है, बस हम पर रोज रौब झाड़ते हैं- छोकरो, रगड़-रगड़कर नहाओ, सिर
पर पानी डालो।"
तब कौन कह सकता था कि एक दिन रुद्रदत्त भट्ट के ये तीनों राजपुत्र, जादुई
कालीन में बैठ फुर्र से उड़ जाएंगे। उन अनेक मीठी-कड़वी यादों के बीच, एक याद
अन्ना को रह-रहकर भयत्रस्त कर उठती थी। उन दिनों अल्मोड़े में सहसा आ गई एक
सिद्ध भैरवी की घर-घर चर्चा थी। वह अचानक ही, किसी महामारी-सी आकर पूरे शहर
पर छा गई थी। खुले केश, कपाल पर चढ़ी लाल-लाल आँखें, तीखी नाक और गले में
नाना छोटी-बड़ी रुद्राक्ष मालाओं का जाल। निरन्तर धधकती धूनी के सामीप्य से,
पद्मासन- स्थिता उस भैरवी के कपोल ऐसे आरक्त रहते जैसे रंग लगाया हो, ओठों ही
ओठों में, वह किसी मन्त्रजाप के बीच सहसा हुँकार उठती :
पताल की नागणी मारों
आकास की डंकिणी
भुतणीचिसिणी संकणी
सेनानी मसानी, सब छलमारण सिखो
भगीना ना ऽऽऽ
कि सागर की जड़ी जावर की बुटी
कपट की कुंथली
चौबाटों की धूल, चेहानू का कोयला
भगीना ना ऽऽऽ
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