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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


आज तीव्र कालप्रवाह में वे समग्र कर्मकांड बहकर न जाने कहाँ खो गए थे। सिटौली और बल्ढौटी के वे खेल के मैदान जो कभी बाँके गुरखा खिलाड़ियों के बूटों की ठोकर से धूलिम्लान हो, धूल के अम्बार में खिलाड़ियों तक को पल-भर के लिए अदृश्य कर देते थे, आज वहाँ श्मशान का सन्नाटा था। गिरजे की वे घंटियाँ, जो अपनी गुरु गम्भीर ध्वनि से 'बानड़ी' से लेकर सै देवी की चोटियों तक गूंजती चली जाती थीं, आज किसी मरणासन्न रोगी की क्षीण साँसों-सी ही धीमी पड़ गई थीं-क्या घंटा ही घिस गया था या घंटा बजाने वाला? एक ही बदलाव, देखते ही पहचान में आता था, बिजली का जगमगाता प्रकाश अब दूर-दूर तक की चोटियों पर दिखने लगा था, बानड़ी, गागर, सै देवी, मुक्तेश्वर तक फिर भी उसे लगा था कि पहाड़ के अधिकांश दृश्यों के बल्ब, एक साथ फ्यूज हो गए हैं।

जिन गिरि-कन्दराओं से, पहाड़ी लोकगीतों की मनमोहक स्वर-लहरी गूंजती थी, उन्हें लता मंगेशकर और आशा भोंसले के कंठ का सुधावर्षण, कब का पराजित कर चुका था। जनखे की सी चाल-ढाल और जनानी सूरत वाला वह प्रसिद्ध लोकगायक भवानीलाल शाह न जाने कब का मर-खप चुका था। वह भी कभी देवेन्द्र का सहपाठी था। गणित में नित्य गोला ही लाता पर कंठ था गन्धर्व-किन्नर का-सा मीठा, लचीला, सुरीला। सदा अल्मोड़ा के नवीनतम स्कैंडल में गुँथे, उसके सर्वथा मौलिक गाने, स्वरचित ही होते, प्रतिष्ठित व्यक्ति पर भी छींटे कसने से वह बाज नहीं आता था। हाँ, उसके गीतों में, सत्य का पुट अवश्य रहता-कहा जाए, तो वह कुमाऊँ का पहला खोजी संगीतकार-कम- पत्रकार था। इसी से उसकी लोकप्रियता का अन्त नहीं था।

"हिट परु परेड करली।"

अरी परु चल परेड करने। आँखें मूंदकर वह सुरीला आलाप लेता, और कान पर हाथ धर फिर वही पंक्ति दोहराता-रानीखेत की मर्कटमुखी आस्ट्रेलियाई सेना की टुकड़ी की प्रियतमा परु को तब कौन नहीं जानता था? कभी-कभी उसकी खोज अश्लीलता की परिधि भी लाँघ जाती :

"देबुली सटपट माम दगाणी।"

अपने रिश्ते के भाई से ही जोड़े गए पुत्री के इस प्रणय-गीत को सुन, उसकी माँ ने लज्जा से स्तब्ध हो स्वयं अपने गले में फाँसी का फंदा डाल लिया था। सुनकर वही रसिक लोकगायक भवानीलाल, फिर एक ही रात में भवानीभगत बन गया और गोरिल देवता के जागर गीत गाने लगा था। ऊँचे पहाड़ पर खड़े होकर, वह दोनों कानों में अँगुली डाल अपनी लम्बी सुरीली लय का विलम्बित आलाप लेता तो लगता, उसके मधुर आह्वान से रीझ, स्वयं गोरिल देव, उसके कंठ में बैठ गए हैं :

“मैं छ्यूँ मेरा दामी निंदरा भूल्यूँ
अरी मेरा दामी, मैं छ्यूँ सेयूँ
झलक्या रया बिस्तर
घुघराल्या चरपाई
अरे मेरा दामी

ढोल की दमदम
नगाडों की गूंज
मैं अयूँ गाड़न बगी तेरी पन्दर पच्चीसी
अरे मेरा दामी तू मैके
फूल सा खिलै दे
भौंरु सा उड़े दे...

हे मेरे दामी (दमामा बजाने वाले) मैं तो नींद में डूबा था और झिलमिलाते बिस्तर घुघरू वाली चारपाई पर सोया था, तूने ढोल की धमक और नगाड़े की गूंज से मुझे बुलाया, मैं नदियों से बहता, पहाड़ों से लुढ़कता यहाँ आया हूँ। तू मुझे बाजे बजा नचाकर, फूल-सा खिला दे, और भौरे-सा उड़ा दे।

किन्तु जगरिये का विनिपात तो पहले ही हो चुका था। गुलाबी अतलस की रंग उड़ी कमीज पर सारंगी बाँधे साथ की नर्तकी चुलबुली रजुला को लेकर, अल्मोड़ा की गली-गली में घूमता, दराबी की-सी चपटी केश पट्टी को छपाछप तेल से बिठा, भवानी का वह मित्र ही उसका सर्वनाश कर गया था। वह मैत्री उसे उस कुख्यात रोग का तोहफा दे गई थी, जिसकी लज्जा से तब उसने एक दिन, अचार के तेल के साथ अफीम चाट, स्वयं मुक्ति पा ली। सारंगी बजा, उसका वह मित्र, नित्य अपनी नक्की आवाज में एक ही वासी गाना दोहराता :

"सुना दे सुना दे, सुना दे किसना
तू बाँसुरी की तान सुना दे किसना।"

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