नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
"वह केकड़ है," कहते ही उस व्यक्ति का पूरा चित्र सामने आ जाता है, वसन्त को
भी उसकी बिरादरी इसी अलंकरण से अलंकृत किया करती थी। अपनी व्यथा, उपालम्भ,
आक्रोश वह कभी जबान पर नहीं लाता, पुत्र एक बार हो आया पर उस संक्षिप्त अवधि
में भी वह अपनी 'केकड़ी' में ऐंठा ही रहा। पत्नी की बीमारी की सूचना, वसन्त
ने उसे अवश्य दी थी पर उसने कोई पत्र नहीं लिखा, हाँ, किसी मित्र के हाथ, कुछ
विदेशी टॉनिक, चॉकलेट, एक स्टीम की इस्त्री, पिता के लिए एक इलेक्ट्रोनिक
शेवर और माँ के लिए एक बड़ी-सी मिक्सी भेज मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो गया था।
प्रत्येक नवीन वर्ष के आगमन पर वसन्त के दोनों पौत्र कार्ड भेजना कभी नहीं
भूलते थे। एक बार तो एक ऐसा कार्ड भेजा था, जिसे खोलते ही बाजा बजने लगता था।
रुग्ण दादी के लिए 'ग्रैन्नी गैट वेल सून' या 'यू आर द बेस्ट ग्रैन्नी' जैसे
वाचाल कार्ड भी इधर कई बार आए थे।
"क्या बताएँ यार देबी," वसन्त ने बड़े व्यंग्य से हँसकर कहा था, "लगता है,
माँ-बाप के प्रति सारा प्रेम, अब हमारी कठुआ औलाद, इन्हीं कार्डों में भर
सालाना भेज, माँ-बाप के प्रति अपने कर्ज-फर्ज से एक साथ छुट्टी पा लेती है और
फिर साल-भर तक साँस नहीं लेती।"
“तुम भी एक बार कहीं घूम क्यों नहीं आते यार?” देवेन्द्र ने कहा तो वह फिर
फकीरी हँसी हँसा।
"इसे कहाँ छोड्, किसके भरोसे? तू भूल जाता है देबी, मैं पति हूँ बेटा
नहीं-पचास साल पहले इस बुढ़िया का अँगूठा पकड़ा था, अब इस बुढ़ौती में इस
लाचार बुढ़िया को छोड़, घूमने चला जाऊँ? न यह करवट बदल सकती है, न अपना उघड़ा
बदन ही ढक सकती है। इतनी हैसियत है नहीं कि एक दिन-रात की नर्स धर लूँ। इसी
से बुढ़िया को घर ही पर रख, सेवा करता रहता हूँ। पलंग की गूंज बीच से काट,
नीचे चिलमची धर दी है, पड़े-पड़े ही फारिग हो लेती है और मैं उठाकर बाहर फेंक
आता हूँ-अब तू ही बता, कहाँ जाऊँ और कैसे जाऊँ?"
देवेन्द्र ही बीच-बीच में फल-मिठाई लेकर मित्र से मिलने चला जाता पर
भिनभिनाती मक्खियों और एक असह्य दुर्गन्ध के भभके के मारे, वहाँ दस मिनट भी
बैठ पाना दूभर हो उठता। सच ही कहा था दीदी ने, जो अल्मोड़ा उन्हें पहचानता था
और जिसे वे पहचानते थे, अब कहीं खो गया था। शहर की आत्मा अभी भी थी, किन्तु
अतीत के यक्ष की भाँति निर्वाक्, अडिग, अचल-वे सड़कें, जिन पर वे तीनों भाई
कभी निर्भीक हो, तार के पहिये चलाते हवा के वेग से दौड़े जाते थे, अब संकुचित
हो स्वयं ही सिकुड़ बित्ते भर की रह गई थीं। विराटकाय बसें, ट्रक, सरकारी
जीपों की अशेष कतार, राहगीरों के चलने के लिए छोटा-सा हिस्सा ही छोड़ती थी,
चालक जरा सा भी चूके तो राहगीर का मलीदा बन जाए।
वह छोटा था, तो दीदी उसे मुँडेर पर बिठा देती, “आमा ने कहा है, देखते रहना,
अभी 'लकड़ियाँ' निकलेंगे, मोल-तोल कर ऊपर ले आना, एक अठन्नी से ज्यादा मत
बढ़ना...।"
देखते-ही-देखते, सिर पर बाँज की लकड़ियों का, अशक्य बोझा दो भागों में विभक्त
कर 'लकड़ियों' का रेले का रेला सड़क घेर लेता-गट्ठर के बीच खुंसी रहती स्थूल
पहाड़ी लौकी या पीली ककड़ी या अनार से मीठे दाडिमों की पोटली-बैठे-बैठे ही वह
पेशेवर दलाल की सी बोली लगाता-“ले आ ऊपर, चवन्नी दूंगा..."
"नो हो लाल ज्यू, लूट है क्या?"
"अच्छा, चल, ककड़ी के साथ अठन्नी ले लेना।"
आठ आने में आधी मन लकड़ी का वह बोझा और साथ में पूरे चार किलो की ककड़ी, वह
भी ऐसी मोटी कि संपेरे का बीन!
फिर भी आमा झल्लाकर उसे डपटती, “बच्चा देख के ठग लिया रे तूने प्रधान।"
"रहने भी दो आमा, बाँज की लकड़ी है, दूर से ही दियासलाई दिखाओगी तो दप्प से
जल उठेगी।"
रसोई के ऊपर ही काठ की खपच्चियाँ लगा, लकड़ी का वह स्टोर स्वयं बाबू ने बनाया
था।
फिर वे तीनों भाई, स्टूल लगा लकड़ियों का अम्बार ऐसे सजाते जैसे हलवाई लड्डू
का थाल सजाता है। उसी चौके में, तीज-त्यौहार के दिन, आमा पकवान बनाने बैठती,
तो वे तीनों लार टपकाती बिल्ली के से ही चक्कर काटने लगते, कि कब पूजा
सम्पन्न हो और नैवेद्य मिले-आमा की चौड़ी स्वस्थ मुष्टिका से बने कुरकुरे
सिंगल, गणेश के मोदक, बड़ी-बड़ी खसता रोट और पंजीरी-पकवानों की घृत-गुड़
मिश्रित सुगन्ध पूरे चौके में फैल जाती। तीज-त्यौहार तो थे ही, श्राद्धों का
भी क्या कम आयोजन होता था! बस, उस दिन एक ही बात उन्हें अखरती थी, विभिन्न
गृहों में श्राद्ध सम्पन्न कर बहुत पहले से बुक्ड पंडितजी, कभी-कभी दिन डूबे
उनके यहाँ पहुँचते, फिर जब तक पितरों की पातली न परसी जाए, उन्हें खाना मिल
भी कैसे सकता था? श्राद्ध के उस मीनू में भी रत्ती-भर फेरबदल नहीं किया जा
सकता था, पाँच दालों के मिश्रण से बनी गाढ़ी दाल-चावल, बड़े-बड़े उड़द के
बड़े, रायता, चटनी, कदू और पंचमेल सब्जी फिर 'खिरखाजे' जिसे पकाने से पूर्व,
दीदी चावल के प्रत्येक दाने को घर के घृत में नहला कर विशुद्ध दूध में छोड़ती
थी। फिर बड़ी-सी जल-भरी परात में चलायमान पिंडों को तीनों भाई विसर्जित करने
ले जाते, तब कहीं खाना जुट पाता था। इसके बाद भी उनकी एक और ड्यूटी लगती,
तिमिल पत्रों में परसा गया श्राद्ध का प्रसाद, घर-घर जाकर बाँटना होता।
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