नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
घर लौट, देवेन्द्र ने घिस-घिसकर उस स्नेहपूर्ण चुम्बन का स्पर्श मिटाया था और
दीदी से छिपा गोमूत्र के छींटे भी डाल लिये थे।
जो भी हो, उसके संस्कारशील चित्त ने लाख विद्रोह किया हो, वह अनुपम स्वाद उसे
सचमुच विभोर कर गया था। ठीक ही कहा था एल्फी ने, एक वार खाएगा तो अपने सिंगल
खजूरों का स्वाद भूल जाएगा।
उन दिनों पहाड़ के संभ्रान्त गृहों में अंडा खाना तो दूर, उसका स्पर्श भी
वर्जित था। उसे याद है, एक बार उसके सहपाठी की क्षयरोगिणी माँ को, अंडा खाने
के लिए डॉक्टर ने कहा, तो स्वयं उसके पुत्र ने भी अंडा छूने से मना कर दिया
था। लाता कौन? अन्त में, इकन्नी का अंडा लाने के लिए चार आने का उदार उत्कोच
ही उसे राजी कर पाया था। तब बाजार के सीमान्त की एक ही दुकान में मुर्गी का
अंडा मिलता था, भड़भूजी की दुकान से उसका वह सहपाठी वर्जित वस्तु, ऐसे रूमाल
में बाँध, शरीर से पर्याप्त व्यवधान धर लटकाए लाता था, जैसे मल की पोटली हो।
उसी एल्फी को जब देवेन्द्र ने ढूँढ़ निकाला तो देखता ही रह गया-क्या कोई इतना
भी बदल सकता है? पिचके गाल, सोंठ-सी देह और जीर्ण अल्लम-खल्लम कोट, जिसकी
बाँहों में, कुहनियों के पास दो चमड़े के टल्ले लगे थे।
क्या यह वही एल्फी था जिसके सूर्ख गाल सदा जलना के सेब-से लाल-लाल धरे रहे थे
और जिसके बालों के फुग्गे की सर्वथा मौलिक सज्जा देख, तीनों भाइयों की उद्धत
शिखाएँ, सहमकर रह जाती थीं!
आज वही सज्जाप्रिय बालसखा, कितना दीन-हीन, कितना दरिद्र लग रहा था!
देवेन्द्र को देख, उसने पहले उसकी ओर पीठ कर अपने को छिपाने की चेष्टा की, पर
देवेन्द्र उससे लिपट गया था। एल्फी उसी उत्साह से वर्षों से बिछुड़े मित्र
को, गले नहीं लगा पा रहा था, उसका दारिद्र्य, दुर्भाग्य उसे प्रतिपल पीछे ठेल
रहा था। मित्र के स्नेहपूर्ण आलिंगन में, उसकी सींकिया देह, धनुषटंकार की
रोगी देह-सी ऐंठी जा रही थी।
“नहीं पहचान रहे हो मुझे? मैं देबी हूँ, देवेन्द्र भट्ट।"
मित्र के विदेशी ट्वीड के कोट से आती, 'मस्क' की सुगंधित फुहार ने, एल्फी को
सहसा चैतन्य किया। अपने फटे कोट की दोनों जेबों में हाथ डाल, उसने सिर झुका
लिया और खिसियानी हँसी से उसका म्लान चेहरा उद्भासित हो उठा।
“पहचानूँगा कैसे नहीं यार!"
“अच्छा, चल मेरे साथ, होटल में टिका हूँ, वहीं बातें करेंगे।" फिर मित्र को
देवेन्द्र अपने साथ एक प्रकार से खींचता-सा ले चला। वहीं घंटों दोनों में
बातें होती रहीं-उन अनेक मित्रों के विषय में, एल्फी ने उसे पूरी जानकारी दे
दी, जिनमें से कुछ नहीं रहे, कुछ उसी की भाँति, दरिद्रता के गुमनाम अँधेरे
में न मरकर भी प्रतिपल मर रहे थे।
स्वयं एल्फी, अपने पशुवत् जीवन से ऊब, हलद्वानी के किसी 'क्रिश्चियन होम फॉर
ओल्ड पीपुल' में जाने की पूरी तैयारी कर चुका था।
"क्यों, तुम्हारा परिवार कहाँ है एल्फी?" एक पल को उसके उस स्वच्छ बंगले की
एक याद देवेन्द्र की स्मृति को पानी के छींटे डाल-डाल चैतन्य कर गई-बरामदे
में लगे कतार की कतार ऊदे, लाल, जिरेनियम के गमले, बेंत की रंगीन गद्दीदार
कुरसियाँ, अखबार पढ़ रहे उसके पापा, स्नेहमयी स्थूलांगी जननी मिसेज रोबर्ट
पंत और लजाती-मुस्कराती, उसके लिए आमलेट बनाती बहन एल्सी।
वह निरुत्तर खड़ा रहा, जैसे कहने को उसके पास कुछ भी नहीं बचा था।
"तुमने क्या शादी नहीं की?"
"की थी।"
"किससे? विक्टोरिया से?"
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