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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


कमरों में एक भी सामान नहीं बचा था, न बाबू की पुस्तकों से भरी अलमारी, न किवाड़, न पलंग, न उनकी आरामकुर्सी, न हाथीदाँत जड़ा कलमदान और न तीनों भाइयों के तीन डेस्क, जिन्हें बाबू ने कभी अपना नमूना देकर, हलद्वानी फर्नीचर मार्ट से बनवाए थे। तिथि-नक्षत्र देख, पुण्य-नक्षत्र में ही उनमें कापी धर तीनों ने एक साथ ही नींगल की कलम से मुक्ताक्षरों से सरस्वती वंदना की प्रथम पंक्ति अंकित की थी :

या कुंदेदु तुषारहार धवला
या शुभ वस्त्रावृता

उन्हीं दैवज्ञ प्रतिष्ठित डेस्कों की महिमा ही ने तो तीनों को ऐसे-ऐसे ऊँचे ओहदों पर बैठा दिया था। लगता था, गृहस्वामियों के सुदीर्घ प्रवास ने ही उस कुटिल दस्युदल को, ऐसा दुःसाहसी बना दिया था कि खिड़कियों के चौखट भी नहीं बचे थे। छत की वह पुख्ता पाटी, जिस पर दस हाथी भी ताथैया कर नाचते तो न टूटती, अब भग्न धनुष सी फर्श छूने को तत्पर थी। पूरे कमरे में मोटे-मोटे चूहे दौड़ रहे थे। यहाँ कैसे रह पाएगी दीदी जो सप्ताह में दो बार स्वयं अपने हाथों से गोबर-मिट्टी लगा, इसी फर्श को लीप-लाप मखमल-सा बनाए रखती थी। टूटे चूल्हे का भग्नावशेष अभी भी उसी कोने में धरा था, यहीं पर चौड़ा पटला डाल वे तीनों भाई जीमने बैठते और दीदी थक्क से कलछुल-भर आलू-मूली की भाँगे डली सब्जी, उनकी थालियों में परस देती। गर्म-गर्म रोटी का गस्सा तोड़, सब्जी में डुबो, जीभ पर धरते ही लगता किसी ने पूरे छप्पन व्यंजन ही जीभ पर धर दिए हैं। उस स्वर्णिम युग के दो ही स्मृतिचिन्ह अब तक देवेन्द्र ढूँढ़ पाया था। एक अँधेरे कोने में पड़ा लोहे का विशाल सग्गड़, जिसे घेर सबसे गर्म कोण के निकट बैठने की धक्का-मुक्की में, तीनों भाई एक-दूसरे को ऐसे धकेलने लगते कि आमा अधीर शंकित हो कर कहती, "हाँ, हाँ, सग्गड़ में जलने का इरादा है क्या? रुक जाओ, आ रही हूँ, तीनों को एक साथ झोंक दूं, छुट्टी तो मिले...अरे नरिया, चल इधर

बैठ...मेरे पास, तू ही है दुरजोधन, लड़ने को तेरे ही हाथ-पैर हमेशा खुजलाते रहते हैं..."

सग्गड़ एकदम ही गतायु होकर जटायु की विवशता से पड़ा था, इसी से शायद घर को मुंड खोखला बनाने वाला लोभी दस्यु भी उसे कोने में पटक गया था। सग्गड़ के कलेवर को, कालचक्र ने बड़ी बेरहमी से तोड़ा, मरोड़ा था, उसकी चार टाँगों में से दो टाँगें गायब थीं और शेष दो-एकदम ही वक्र हो, दो विभिन्न दिशाओं में मुड़ गई थीं-कोई उसे ले जाकर करता भी क्या! देवेन्द्र को लगा, स्वामिभक्त प्राण त्याग रहे, वायुग्रस्त श्वान की-सी विवश अश्रुविगलित दृष्टि से वह सग्गड़ उसे देख रहा हैं। कभी वर्फीली हवा के घातक झोंकों से, इसी दहकते सग्गड़ ने, इस गृह के गृहवासियों को, जननी की सी ममता से, छाती से लगा बचाया था।

दूसरा स्मृतिचिन्ह मिला था टूटी छत की पाटी में। वर्षों पूर्व आमा की तीखी नजर से बचाकर छिपाई गई नरेन्द्र की गुलेल! दादी और दीदी, दोनों ही नरिया की इस गुलेल को देख नहीं सकती थीं, यही आयुध, उनके पासपड़ोसियों के अनेकानेक उपालम्भ लेकर आए दिन उन्हें बौखलाता रहता। स्वामी के हाथ में आते ही, वह आडम्बरहीन आयुध, कृष्ण का सुदर्शन चक्र बन जाता। नरेन्द्र का निशाना था अचूक और पड़ोसियों के सेब-नासपाती के वृक्षों का वैभव था अशेष! नरिया की यही गुलेल देखते ही फलों से लदे वृक्षों को पल-भर में मूंड कर रख देती थी। कई बार दीदी उसकी इस गुलेल को दूर जाकर फेंक आई थी, पर फिर वह कासिम के जूते की तत्परता से, उसी के पास लौट आती। फिर कभी वह दीदी से बचाने को ही छत की पाटी में छिपा स्वयं वह गुप्त स्थान भूल गया था। आज इतने वर्षों बाद, छोटे भाई की वही अमूल्य विरासत नीचे लटक आई थी।

पर देवेन्द्र ने भी हिम्मत नहीं हारी, एक होटल में डेरा डाल, उसने अपने उस खंडहर बन गए गृह को अभिनव रूप दे दिया। प्रकृति तो अभी भी अपना वैभव लुटाने में उतनी ही उदार थी। सूर्य की प्रथम किरणें, एक बार फिर छत को सतरंगी अबरकी चमक से रँगने लगीं। नर्सरी से कई फूलों के गमले मँगवाकर, देवेन्द्र ने गतयौवना वाटिका की छटा को फिर सँवार लिया। छत का वह चौड़ा पत्थर, जिस पर बैठ दीदी, अपने बाल झटक-झटककर सुखाती थी और जिसके अशक्य भार को उठाने में असमर्थ दस्यु वहीं छोड़ गया था, फिर पूर्ववत् अपने स्थान पर आ गया। गृह को सँवारकर वह अपनी खोई मित्रमंडली को ढूँढने निकला-अधिकांश इधर-उधर चले गए थे-कुछ स्वदेश, कुछ परदेश और कुछ परलोक सिधार चुके थे। दो को उसने फिर भी ढूँढ़ लिया था। अपनी भोली बचकानी मासूम शक्ल-सूरत के बावजूद, महाउपद्रवी बसन्त, जिसकी शैतानियों से कॉलेज के अध्यापक भी काँपते थे और तीनों भाइयों का अंतरंग मित्र एल्फी जिसे देखते ही आमा के तन-बदन में आग लग जाती थी और कोई नहीं जुटा तुम्हें जो इस किरिस्तान से दोस्ती पाल ली? न जाने कैसी-कैसी कूड़बुद्धि सिखाएगा तुम्हें! मैं इसे सिगरेट फूंकते दो बार देख चुकी हूँ, वह जो भी करे, बाप भले ही बामण हो, नाक तो कटा ही दी-बामण होकर किसी खनसामिन के पीछे ऐसा दीवाना हुआ कि एक ही रात में भुवनचन्द्र पंत से रोबर्ट बन गया-देख लेना, तुम छोकरों को बरबाद कर देगा।"

आमा की बातों में कुछ तथ्य तो था ही। सिगरेट का पहला कश, देवेन्द्र ने इसी विधर्मी मित्र के सौजन्य से खींचा था और खाँसते-खाँसते पसलियाँ दखने लगी थीं। उसके बाद कितनी इलायची और हरा धनिया चबाकर वह अमरकोश रटने बैठा था, कहीं बाबू के तेज नथुने उसके जघन्य अपराध को न पकड़ लें!

और फिर इसी दुर्लभ मैत्री ने उसे जीवन में पहली बार आमलेट का सर्वथा नवीन स्वाद चखाया था।

“खाया है कभी?" एल्फी ने बड़े गर्व से अपनी वौरस्टेड की हाफपैंट की जेव में हाथ डालकर पूछा था, "खाएगा? चल, मेरे घर चल, मेरी बहन एल्सी गजब का आमलेट बनाती है, हरा धनिया, प्याज और फेंट-फेंट कर ऐसा मोटा आमलेट, कि पहाड़ी दुम्बा!"

और फिर वह, गजब के दुःसाहस से, उस बहुप्रशांत देवदुर्लभ वस्तु के रसास्वादन के लिए, मित्र की पिछवाड़े की ऊँची दीवार फाँद उसके वरामदे में पहुँच गया था। कैसा साफ-सुथरा घर था और कैसा स्नेही परिवार-बोलने में तो जैसे प्रत्येक सदस्य शहद उड़ेलता था! उसके ओवरकोट धारी धर्मभ्रष्ट सुदर्शन पिता, छींट के फूलदार ड्रेसिंग गाउन में स्केट-सा करती स्थूलांगी ममी, जिन्होंने तो उसे बाँहों में भर चूम लिया था-"वैलकम, वैलकम सनी, रोज आया करो और हम तुम्हें रोज आमलेट खिलाएँगे।"

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