नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
"नहीं मामा, मैं किसी की आश्रिता बनकर नहीं रहूँगी, माधवी का फ्लैट तो है ही।
पर तुमने क्या दिल्ली छोड़ने का पक्का निश्चय कर लिया है मामा?"
"हाँ, बेटी, एकदम पक्का।"
एक दीर्घ श्वास लेकर अन्ना उठ गई। वह अपने इस भाई को जानती थी। बचपन में भी
वह जब कभी कोई निश्चय लेता था तो बाबू भी उसे नहीं डिगा सकते थे।
"देवी, मुझे एक ही बात का डर है।"
उसने कहा तो देवेन्द्र ने हँसकर दीदी के कंधे पर हाथ धरकर कहा था, "मैं जानता
हूँ, तुम्हें किस बात का डर है दीदी, पर जो जितनी बड़ी डींगें हाँककर, लोगों
को सहमाता है, वह उतना ही बड़ा कायर होता है, समझीं। एक यही सत्य तो मेरे
पेशे ने मुझे सिखाया है। एक से एक घाघ अपराधी पकड़े जाने पर न जाने कैसी-कैसी
धमकियाँ देते हैं कि छूटने पर तुम्हें देख लेंगे, पर क्या बिगाड़ पाते हैं?
वह भी बातों का ही धनी है। चिन्ता मत करो दीदी, पहाड़ जाने पर हमारा क्या
बिगाड़ लेगा?"
"तू उसे नहीं जानता रे देवी-वह कुछ भी कर सकता है। तेरे नित्य का सरदर्द तो
बन ही सकता है-इसी से सोच ले, चलना ही है तो कहीं दूर चल, ऐसी अनजानी जगह
जहाँ हमें कोई भी नहीं जानता हो।"
"नहीं, मैंने सोच लिया है। मैं अपने पुराने ही घर को आबाद करूँगा। सच बता
दीदी, तेरा मन नहीं तरसता वहाँ जाने को? कितने सुख का बचपन बीता है वहाँ हम
बहन-भाइयों का! और फिर मैं सोचता हूँ, जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, अपनी मिट्टी
मनुष्य को उतनी ही तीव्रता से अपनी ओर खींचती है।"
“पर यह क्यों भूल जाता है देवी, वह पहाड़ जो हमें पहचानता था, और जिसे हम
पहचानते थे, वह क्या जाने पर वैसा ही मिलेगा जैसा हम छोड़ आए थे? फिर यहाँ
रहकर हमें जिन सुख-सुविधाओं की आदत पड़ गई है, वह क्या वहाँ जुटेंगी? उन
सुविधाओं के बिना क्या अब हम वहाँ रह पाएँगे? वह भी इस उम्र में, जब न तन में
शक्ति रह गई है, न मन में धैर्य!" पर न उसे अन्ना ही अपनी दलीलों से रोक पाई,
न कालिंदी।
इतने वर्षों तक अवहेलित जन्मभूमि ने सचमुच ही फिर उससे कसकर प्रतिशोध लिया
था-अपने उस उजड़े दयार को देख एक बार तो उसने भी आयुध डाल दिए। छत पर पटे
बड़े-बड़े पत्थर किसी ने, न जाने कब निकाल लिये थे, वे द्वार, जिन पर अंकित
काठ के बड़े-बड़े गलमुच्छों वाले द्वारपाल बनाने कभी बाबू ने पिथौरागढ़ से
राज-मिस्त्री बुलाए थे, उन्हें भी किसी दस्यु ने हृदयहीन मूर्तिभंजक की
निर्ममता से नोंच-खसोट ऐसा क्षत-विक्षत कर दिया था कि किसी की नाक ही गायब
थी, किसी का आधा काकपक्ष! नीबू के उस ऐतिहासिक पेड़ का भी किसी ने आमूल
विध्वंस कर, वहाँ धूप तापने के लिए पत्थर बटोर कर भद्दा-सा चबूतरा बना दिया
था-वैसी धूप का निखालिस थक्का अल्मोड़ा के कितने घरों में आता था? इसी धूप के
टुकड़े पर कुशासन बिछा कभी तीनों भाइयों को बाबू संध्या-पूजन की दीक्षा देते
थे। मुँह, नासिका, चक्षु, कर्ण, नाभि, हृदय, कंठ, सिर, भुजा, करतल एवं
करपृष्ठ पर जल छिड़क इन्द्रिय स्पर्श कर तीनों भाई एक साथ कोयल से कुहुकते-
ओं वाक् वाक्! ओं प्राणः प्राणः! ओं चक्षुः चक्षुः
ओं श्रोत्रम् श्रोत्रम्। ओं नाभिः ओं हृदयं, ओं कंठः
ओं शिरः ओं बाहुभ्याम् यशोबलम् ओं करतल करपृष्ठे!
उस खंडहर में खड़े देवेन्द्र की आँखें गीली हो आई-फिर उसके अब तक के सुप्त
संस्कार, चैतन्य हो उसे भी सचेत कर गए-दाहिने हाथ की अनामिका से भूमि स्पर्श
कर उसके ओठ स्वयं बुदबुदाने लगे।
ओं अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपिवा
यः स्मरेत् पुंडरीकाक्षं शः बाह्याभ्यंतरः शुचिः
मन-ही-मन इष्ट का स्मरण कर, कर्मचक्र के अनुसार आने वाले कष्टों से मुक्ति
प्रदान करने वह बार-बार एक ही पंक्ति दुहराने लगा :
बाह्याभ्यंतरः शुचिः
फिर स्वयं चित्त शान्त हो गया। डरते-डरते उसने वर्षों से लटके ताले में चाबी
घुमाई तो चाबी घूमने से पहले ही, जीर्ण जंग लगा ताला किसी वयः भार नमित वृद्ध
के लटके ढीले दाँत-सा स्वयं ही खुल उसके हाथ में आ गया।
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