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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


अब दूर-दूर तक भी उनका कोई आत्मीय नहीं रहा-एक व्यक्ति अभी भी था, किन्तु उसे देखने की न किसी को कामना थी, न अवकाश। यही सना था कि वह अब खुले खजाने-अपनी रक्षिता अनवरी बाई को अपने घर किसी सनातनी आश्रम में विधिवत् हिन्दू बना, ले आया है, उसका नाम धरा है आनन्दी।

"क्यों री दीदी, अब तेरी खटरागी सास उस आनन्दी के हाथ की चाय कैसे पीती होगी?

“उस बार तुझे पहुँचाने तेरी ससुराल गए और तू चाय बनाने उठी, तो हमें गोमूत्र का छींटा डाल उस खूसट ने कहा था-हाँ, हाँ, तू मेरी चाय मत छना बहू, तू उस अघोरी भट्ट की भतीजी है। सुना, मसानघाट में धूनी रमाते हैं री दीदी?" दीदी का फक पड़ गया चेहरा देख, देवेन्द्र ने ही उस दिन, बड़े कौशल से प्रसंग बदल दिया था, “देख दीदी, क्या लाया हूँ तेरे लिए-बृहज्जातक, चौंसार के कृपादत्त पंडितजी से माँग लाया हूँ। कह रहे थे. ऐसी टीका अब कहीं नहीं मिलती।" अपने प्रिय विषय का उल्लेख ही अन्ना का मलिन चेहरा उद्भासित कर गया था-"देखू-देखू," कह वह पुस्तक उठा. घंटों उसमें ऐसी डूबी रहती कि दाल के धधकते अदहन में कभी-कभी दाल ही छोड़ना भूल जाती।

कैसी गुणी थी अन्ना! और भाग्य ने कैसा क्रूर खिलवाड़ किया था उसके साथ! कैसा त्याग कर उसने अपने उन तीनों भाइयों को पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाया, आज वे दोनों अकृतज्ञ सहोदर, अपनी उस उदार सर्वस्वत्यागिनी बहन को भूल गए थे। कितना अकृतज्ञ बन जाता है मनुष्य! जिस दीदी का ऋण, उसने उसकी पुत्री का सौभाग्य द्वार खोल, चुकाने का सपना देखा था, उसे एक बार फिर विधाता ने, ताशों के महल की भाँति एक ही क्रूर पद-प्रहार से धरा पर बिखेर दिया था। आज तक वह यही मानता था कि अवकाश प्राप्ति के बाद भी, वह इसी शहर में बना रहे-अब वह मना रहा था-उसकी बदली हो जाए और वह परिवार को लेकर, ऐसे निभृत कोने में जा छिपे, जहाँ कोई जिज्ञासा, कोई कौतुहली संधान उसे त्रस्त न कर पाए।

जिस स्वाभाविकता से कालिंदी ने पूर्ववत् अपना कार्यभार संभाल लिया था, उसे देख वह दंग रह गया था-उस अवांछित प्रसंग का घर में अब उल्लेख भी नहीं होता था। बीच में, वह जाड़ों की छुट्टियों में, अपनी सहपाठिनी माधवी नायर के साथ त्रिवेंद्रम भी हो आई थी। उसके मासूम चेहरे को नैराश्य, छलना या प्रवंचना की एक भी रेखा विकृत नहीं कर पाई थी। समय कितनी जल्दी बीत गया किन्तु इसी बीती अवधि में, समुद्र के से तीव्र ज्वार-भाटे ने पूरे देश को क्लांत-श्रांत कर, पुनः किनारे पर पटक दिया था। देवेन्द्र जानता था कि कभी उसे भी उसी हृदयहीनता से कहीं दूर पटक दिया जाएगा जैसे उसके अनेक सहयोगी पटक दिए गए थे। 'हम किसी से कोई प्रतिशोध नहीं लेंगे, न किसी को दंडित ही करेंगे,' जैसी निरर्थक घोषणाएँ स्वयं ही नित्य व्यर्थ सिद्ध हो रही थीं। ऐसे ही एक दिन, उससे बहुत जूनियर छोकरे से अफसर को, उसके अनुभवी कंधों पर बिठा दिया गया तो वह तिलमिला गया। आखिर क्या अपराध किया था उसने? योग्यता में, क्षमता में, सीनियोरिटी में वह सर्वोपरि था. फिर यह अन्याय क्यों? केवल इसलिए कि वह पूर्व प्रभु का एक आज्ञाकारी निष्ठावान स्वामिभक्त अनुचर था? पर वह तो एक अदना सरकारी अफसर था। उसके लिए तो जैसे नागनाथ थे, वैसे ही साँपनाथ! फिर वह अपना नया कार्य-भार सम्हालने गया ही नहीं। उसके त्यागपत्र की खबर हवा-सी फैल गई थी और अनेक हितैषी मित्रों ने उसे समझाने की व्यर्थ चेष्टा भी की थी।

“कैसा पागलपन कर रहे हो तुम, अभी तुम्हारे रिटायर होने में पूरे पाँच साल हैं, सरकारी नौकरी में किसके साथ पूर्ण न्याय होता है?"

“नहीं, मैं जान-बूझकर मक्खी नहीं निगल सकता। मैंने बहुत सोच-विचार कर ही यह फैसला किया है, तुम क्या सोचते हो, जिसने हमेशा मेरे पैर छुए हैं, आज मैं उसके पैर छूने झुकूँ?"

एक दीदी ने ही उससे कोई कैफियत नहीं माँगी। वह मन-ही-मन समझ गई थी कि अब यह शहर, उसके भाई को, हड़के कुत्ते का-सा ही काट खाने को दौड़ रहा है। एक तो भानजी की वारात का आकस्मिक प्रत्यावर्तन, दूसरा उसके साथ किया गया अन्याय, उस आत्मसम्मानी निरीह व्यक्ति को बुरी तरह झकझोर कर रख गया है।

“पर मामा, हम आखिर जाएँगे कहाँ? यह सरकारी कोठी भी तो छोड़नी पड़ेगी।" एक कालिंदी ही ऐसा प्रश्न पूछ सकती थी।

"क्यों, मैंने कहा था न कि रिटायर होते ही पहाड़ चले जाएँगे।"

"पर तुम रिटायर हुए ही कहाँ हो?" "समझ ले कि हो गया हूँ।" कैसी उदास हँसी थी मामा की!

"तू चिन्ता मत कर चड़ी," फिर देवेन्द्र ने बड़े दुलार-भरे स्वर में कहा, "अभी तो मार्केट रेट देकर तुम लोग छः महीने यहाँ रह ही सकते हो-तब तक मैं घर की मरम्मत करा एकदम नया बना लूँगा। हाँ, तब तक तुम्हारे लिए एक फ्लैट देखना होगा, तुम तो पहाड़ जा नहीं सकतीं।"

"क्यों? तुम जा सकते हो, अम्मा जा सकती है और मैं क्यों नहीं जा सकती?"

"इसलिए कि तुम्हें अपना कैरियर चौपट नहीं करना है। मैंने अतुल से बात कर ली है। वह मेरा पुराना मित्र ही नहीं, सबसे बड़ा हितैषी भी है। बसन्त विहार में उसकी बहुत बड़ी कोठी लगभग खाली ही पड़ी है, दो प्राणी अकेले ही तो हैं, बेटे-बहू अमेरिका में हैं-वह तो सुनते ही उछल पड़ा था। कहने लगा, 'हमारे रहते कालिंदी कहीं और नहीं रह सकती।"

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