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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


चिता दाह शमनार्थं...

आज क्या अपने सगे छोटे भाई की आत्मा की प्रेत-मुक्ति नहीं करा सकेंगे?

"नहीं, किसी पंडित को नहीं बुलाएँगे हम, हम करेंगे।"

पिता की समस्त व्यवहृत सामग्रियों को जलप्रवाहित कर जब उनकी पूजा की पुस्तकें भी प्रवाहित की जाने लगी तो अन्ना फुक्का फाड़कर रो पड़ी थी-वाबू का चश्मा, उनकी पंखी, आसन, ब्रह्मरूपी, कुश और मयूरपंख जिससे वे बीमार पड़ने पर बड़ी ममता से उसे झाड़ते मीठे स्वर में मंत्रजाप करते थे-

रोगानशेषान न पहंसितुष्टा
रुष्टात् कामान् सकलानाभीष्टान्
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रितानां हयाश्रयतां प्रयांति।

यह तो जल में बहती पुस्तकें नहीं, स्वयं बाबू ही जैसे उन चारों से अंतिम विदा लेते कह रहे थे-“आपस में झगड़ना नहीं अन्ना, अब तू ही इन तीनों की माँ है, तू ही बाप।" यह उसके मन का वहम था या सचमुच ही जल में अर्धनिमग्न खड़ी अन्ना के कानों से मुँह सटाकर बाबू की प्रेतछाया फुसफुसा गई थी?

"जेठ बौज्यू (ताऊ), अब तुम हमें छोड़कर मत जाना, यहीं रहना, हमेशा हमारे पास।" देवी ने उनसे कहा तो एक पल को उनकी वैरागी आँखों में भी ममता की आर्द्रता छलक आई थी, “नहीं वेटा, गुरु को दिया वचन मिथ्या नहीं कर सकता-सीधे रौरव नरक में जाना पड़ेगा। तेरे बाप ने बहुत पहले वचन लिया था, "दाज्यू, मैं तुमसे पहले ही जाऊँगा, वचन दो कि तुम्हीं मेरा कर्म निबटाओगे। मेरे बेटों के पास न इतना अनुभव होगा, न श्रद्धा-तुम्हीं को गाय की पूंछ पकड़ा, मुझे वैतरणी पार करानी होगी-उसी वचन से बँधा मैं आज आया हूँ बेटा।" वे फिर सहसा गम्भीर होकर कहने लगे थे, “यह घोर कलियुग हैं बेटा, कलियुगे धन्ये जनाः ये मृताः-कलियुग में जो मर जाते हैं, वे धन्य हैं। यहाँ तो अब धीरे-धीरे लोग क्रिया तो दूर, शव दहन करना भी भूल जाएँगे-मोटरों पर चढ़कर मुर्दे घाट जाएँगे और क्या पता, किसी दिन कर्तव्य संस्कारच्युत मानव, शवदाह का भी कोई वैज्ञानिक तरीका ढूँढ ले!"

एच.जी. वेल्स की-सी ही दिव्यदृष्टि थी जेठ बौज्यू की। यही तो अब हो रहा था। पिछली बार अपने बड़े साले की मृत्यु का समाचार पा, वह हवाई यात्रा सम्पन्न कर, अरथी उठने से पहले पहुँच तो गया, पर अरथी उठी ही कहाँ। उनके दो पुत्रों में से एक था मालद्वीप, दूसरा श्रीलंका, पिता की देह बर्फ की सिल्लियों पर धरी प्रतीक्षा कर रही थी कि कब बेटे आएँ और कंधा दें-बेटे तो आए पर कहाँ मिले कंधे? मौर्चरी से ही पिता की देह, सीधी उठी, शववाहक मोटर की छत पर, जहाँ से आकाश दर्शन करती पहुँची, इलेक्ट्रिक क्रिमेटोरियम और बटन दबाते ही पंचतत्त्व का चोला पंचतत्त्व में विलीयमान हो गया। कैसी कपालक्रिया और कैसी चिता की परिक्रमा-न हंडिया थी, न घी। यहाँ तक कि आपादमस्तक अंग्रेज बन गए पुत्रों के पास, पहनने को मर्दानी धोती भी नहीं थी, शीला की ही पतली जरीदार किनारे की वेंकटगिरी साड़ियों को धोती का अधोवस्त्र बना, दोनों भाई पिता को ले गए थे।

"तुम दोनों, मोटर में चढ़ाने से पहले तो पिता को कंधा देते नबल," देवेन्द्र ने बड़े साले से कहा था। "शव को कंधा देने से सौ बार गंगा नहाने का पुण्य होता है, तुम्हारे पिता थे न।"

“डोंट बी सिली जीजाजी!” उसने हँसकर हाथ के सिगार की झाड़ी गई राख के साथ ही उसकी सीख को झाड़कर दूर फेंक दिया था-

"ये सब प्रिमटिव बातें हैं-सिर मुंडाना, चिता में जला बाप का सिर बाँस से तोड़ना-लकड़ी तो अब मिलती नहीं, अधजली देह को देखना क्या तुम्हें अच्छा लगता? हमें तो नहीं लगता।"

जेठ बौज्यू की भविष्यवाणी, अक्षरशः सत्य हो गई थी-वे दिन सचमुच ही आ गए थे-“मुट्ठी बाँधे आया था और हाथ पसारे जाएगा" -पंक्ति की सार्थकता स्वीकार कर लेने में ही अब श्रेय था।

पिता की मृत्यु ने तीनों भाइयों को असामान्य रूप से बुजुर्ग बना दिया था। महेन्द्र ने अपने को दिन-रात कठिन अध्यवसाय में डुबो दिया। उसके जीवन का अब एकमात्र लक्ष्य था, ऊँची नौकरी पाना। वही हुआ। वह सम्हला तो दोनों भाई भी अग्रज के पदचिन्हों पर चल पड़े-आमा को तो अब कोई चिंता नहीं थी।

"मैं कहती थी ना री अन्ना,” वह बड़े गर्व से कहती, "जैक बुण बिगड़ वीक कुड़ बिगड़-जिसका बड़ा बेटा बिगड़ता है उसका कुटुम्ब ही फिर नष्ट हो जाता है। हमारा बड़ा बेटा लायक निकला है तो दोनों छोटे भाई भी वैसे ही बनेंगे।"

ताऊ की मृत्यु का समाचार, दादी की मृत्यु के दूसरे ही दिन, एक कोने से चिरा कार्ड दे गया था : “गत श्रावण शुक्ला सप्तमी को मेरे शिष्य पंडित हरदत्त भट्ट ने श्रीपद प्राप्त किया।" -स्वामी भवानन्द।

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