नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
फिर आए, हास्यास्पद हरकतें करते, रानीखेत मछखाली, कत्यूर नरेश। वे एक-एक कर
धनुष को छूते और उसमें किसी अदृश्य करेंट का झटका-सा खा, पिलंगट से फटकते,
धराशायी हो जाते। फिर अंत में पधारे थे, देवेन्द्र के सहपाठी स्वयं रघुकुल
तिलक राम, जिनकी दुकान से वह उस दिन सुबह ही एक किलो अरहर की दाल तुलवाकर
लाया था। राम के पिता अयोध्या नरेश की, तब त्रिपुरसुंदरी के मंदिर के नीचे,
किराने की दुकान थी-क्या रंग था लड़के का और कैसी भुवनमोहिनी हँसी! लक्ष्मण
भी उनकी क्रिकेट टीम का एक अजेय सेनानी था, कुमाऊँ का गावस्कर! कोई उसे आउट
कर तो दे! किन्तु क्रिकेट का यही योद्धा जब उसी रणकौशल से, एक ही कक्षा को
तीन वर्षों तक धन्य करता रहा तो बाप ने अपनी दुकान में जोत दिया।
स्वयंवर सम्पूर्ण होने में उस दिन अनावश्यक विलम्ब हो रहा था, पूरी रात ही
बीत गई। चारों भाई-बहन और आभा घर लौट रहे थे कि एक निभृत मोड़ पर सहसा घुप
अंधकार ने घेर लिया। वहाँ से घर तक फिर कोई रास्ते की बत्ती नहीं थी।
महेन्द्र ने टॉर्च जलाई ही थी कि पीछे से एक साथ कई तीखी सीटियाँ बजी, साथ ही
वही हृदयहीन उक्ति-“रामचन्द ज्यू हो, तोड़ो धनुष जल्दी-कहीं-"
"कौन हे रे, माँ का दूध पिया है तो सामने आ...” महेन्द्र ने गरजकर कहा और
चार-पाँच लड़के पीछे पलट नौ दो ग्यारह हो गए।
“क्यों, क्या सड़क तेरे वाप की है रे मुर्दे?" मनोहर भी सेर पर सवा सेर था।
“चल महेन्द्र, घर चल।" आमा ने उसके कोट की बाँह खींची, "क्यों मुँह लगता है
काने के? काण कन्याई, डुन अन्यायी!" (काना हमेशा कुटिल और लंगड़ा अन्यायी
होता है)।
“अच्छा बुढ़िया, कितने दाँत बचे हैं तेरी इस पोपली खोह में, आकर एक साथ पेट
में डाल तेरी भी छुट्टी करूँ अपनी भी।"
उसने सचमुच ही आमा की ओर घुसा तान लिया-पर वह भी जबरजंग थी, उसने लपककर उस
भुजंग की भुजा थाम ली और तब ही पड़ा था महेन्द्र का झाँपड़।
“ओरे बौज्यू (बाप) हो, मार दिया रे हत्यारे ने-खून-खून," कहता वह क्षण-भर
पूर्व सिंह-सा दहाड़ता योद्धा मारे गए पिल्ले-सा बिलबिलाने लगा था।
उसे वहीं छोड़ आमा चारों को भेड़-सा हँका ले गई थी।
"क्यों इजा, बड़ी देर कर दी तुम लोगों ने! क्या रामलीला आज रात-भर चली?”
रुद्रदत्त हाथ में लालटेन लिये, द्वार पर ही खड़े थे-उनसे कौन कह सकता था कि
वे दूसरी ही लीला देखकर आ रहे हैं।
पर दूसरे ही दिन, मनोहर की कलहप्रिया कर्कशा जननी जानकी और साक्षात
दुर्वासारूपी हरस्त, पुत्र के सूजे मुँह में हल्दी-चूना पोत बीभत्स बनाकर
लड़ने आ गए थे।
बड़ी देर तक तर्क-वितर्क, आरोप-प्रत्यारोपों की बहार देखने भीड़ ही जुट गई
थी। फिर स्वयं ही राजीनामा हो गया। होता भी कैसे नहीं, हरस्त पिछले सात सालों
से भट्टजी से ले ली गई दो हजार की रकम का एक धेला भी नहीं चुका पाए थे। पर
उसी दिन से, दीदी के बाहर जाने पर घोर प्रतिबंध लग गया था। यहाँ तक कि कभी
शादी-ब्याह, जनेऊ, अन्नप्राशन पर भी आमा उसे साथ ले चलने का आग्रह करती तो वह
स्वयं कच्छप-सी मूडी छिपा लेती, "नहीं आमा, मैं नहीं जाऊँगी; तू नरिया को
लेकर चली जा।"
दीदी के उदास चेहरे को जितनी ही बार महेन्द्र देखता, उतनी ही बार मन-ही-मन
अपनी प्रतिज्ञा दुहराता, “होने दो मुझे बड़ा, देख लेना दीदी, तुझे कहाँ-कहाँ
घुमाता हूँ..."
फिर तो घर में ही नजरबंद दीदी बाबू की मृत्यु के बाद ही पहली बार घर से बाहर
निकली थी-आमा ताऊ के साथ। वे बाबू की क्रिया करने हरिद्वार गए थे। वह उन
चारों की प्रथम रेलयात्रा थी। जितनी ही वार इंजन डकारता, उतनी ही बार वे
चारों सहमकर दीदी से चिपट जातें। साथ में थे बाबू के बड़े भाई भवानीदत्त-रूखा
चेहरा, लाल-लाल रक्तजवा-सी आँखें, माथे पर भस्म का बड़ा-सा टीका और निरंतर
मंत्रजाप में बुदबुदाते ओंठ। विधुर ताऊ, अकेले ही गढ़वाल के किसी छोटे से
ग्राम में रहकर, अपने तांत्रिक गुरु के साथ, पिछले बीस वर्षों से साधनारत थे।
दीदी पहले उन्हीं के साथ रहती थी फिर ऊबकर अल्मोड़ा चली आई थी, 'कर्णपिशाची
बन गया है अभागा, मसान घाट में रात-रात भर बैठा न जाने किस सिद्धि के पीछे
भाग रहा है- न जागने का वक्त, न सोने का, न खाने-पीने का। मैं नहीं रह सकती
उसके साथ।
छोटे भाई की मृत्यु का समाचार सुन वह संसार-त्यागी विरक्त अघोरी ऐसे अचानक
उपस्थित हो जाएगा, यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। यहाँ तक कि बूढ़ी
आमा ने भी नहीं सोचा था कि उनका वह अघोरी ज्येष्ठ पुत्र आकर अपने इन
अनाथ-अबोध भतीजों का मार्गदर्शन करेगा। वे ही अपने साथ पूरे परिवार को
हरिद्वार उठा ले गए थे।
कनखल की उस भुतही धर्मशाला का पूरा नक्शा इतने वर्ष बीत जाने पर भी देवेन्द्र
की आँखों में खिंचा था। छोटे से कमरे की जालीदार खिड़की का झिलमिली प्रकाश
कमरे को उज्ज्वल धूप चढ़ने पर भी आलोकित नहीं कर पाता। ब्रह्ममुहूर्त ही में
फिर ताऊ सव को तिलांजलि दिलवाने घाट खींच ले जाते-सतीघाट की क्षीण धारा की
पृष्ठभूमि में वह खंडहर-सी विश्रामस्थली जिसके पास खड़े बृहत्काय अश्वत्थ के
मोटे तनों में लटक रहते रंग-बिरंगी चीर, जिन्हें बाँध न जाने कितने आत्मीय
स्वजनों ने पीपल पानी कर, दिवंगत प्राणियों को प्रेतयोनि से मुक्त किया था।
सब पंडे-पंडितों को, ताऊ ने लाठी लेकर हँका दिया था, "साले क्या खाकर हमसे
क्रियाकरम करवाएंगे, संस्कत के मंत्रों का सही उच्चारण तो कर नहीं पाते।" ठीक
भी था, जीवन-भर तो
उन्होंने स्वयं यही किया था, आज कनखल के अधिकांश कर्मकांडी ब्राह्मण उन्हीं
के तो चेले थे। स्वयं उन्होंने न जाने कितने पुत्रों को, पिताओं को, जननी
पुत्रवधुओं को इसी घाट में तिलांजलि दिलवाई है।
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