नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
बाबू तो कम ही जाते थे, दादी एक दिन भी नहीं छोड़ती। संध्या पूर्व ही सबको
खिला-पिला तैयार हो जाती। उसका वही अधैर्य कभी-कभी भट्ट परिवार को यहाँ समय
से इतने पहले पहुँचा देता कि मंच के पात्र तैयार भी नहीं हुए होते।
एक दिन तो अधीर आमा ने पर्दे को खोल झाँक लिया और बड़बड़ाने लगी, “आग लगे इन
बेशरमों को, छिः छिः।"
"क्यों, क्या देखा आमा?" अन्नपूर्णा ने पूछ लिया तो वह भुन्नाकर बोली, "क्या
देखा, अपना सिर देखा। सीताजी दाढ़ी बना रही हैं री अन्ना, मैं तो सोचती थी,
साच्छात सीतामैया उतर आई हैं, यह तो अपने भोलादत्त का भतीजा भौनिया है री!
मैं क्या जानूँ, वही सीता बनता है!"
और हँसते-हँसते चारों भाई-बहन लोट-पोट हो गए थे। कितनी भोली थीं आमा!
उस दिन भी वे समय से पूर्व ही अपनी बेंच पर जम गए थे। एक तो लीला का प्रसंग
भी ऐसा ही था, 'सीता स्वयंवर', इस बार पूरी पोशाकें, मथुरा की सुख संचारक
कम्पनी से विशेष ऑर्डर देकर मँगवाई गई थीं। यह सूचना स्वयं शाहजी घर-घर जाकर
दे आए थे। तब तक अल्मोड़ा में बिजली नहीं आई थी, गैस के बड़े-बड़े
पेट्रोमेक्स से निकलती भँवरों की सी गूंजनध्वनि, धौत चन्द्रिका के उज्ज्वल
प्रकाश में साटन के लाल-लाल अर्ध विभक्त पर्दे और शतसहन कंठों का कलरव! पर्दा
उठाने के लिए समवेत कंठों से निकली सीटियों में सबसे तीखी सीटी थी मनोहर जोशी
की, जो ठीक दीदी के पीछे बैठा, बार-बार सीटी बजाता चीखता जा रहा था, “ओहो,
रामचन्द ज्यू हो-तोड़ो धनुष जल्दी-कहीं स्वयंवर की निराश सीता मायके ही में
जिन्दगी न काटती रहे..."
उग्र दृष्टि से उसे महेन्द्र ने देखा तो वह चुप हो गया। उसकी व्यंग्योक्ति
किस निरीह पर है-ये तीनों भाई समझ गए पर कौन उलझता उस नंगे से। पूरे शहर में
तो काना बदनाम था, उस पर शरीर की शक्ति थी प्रचंड। लोग कहते-ये पायजामे के
नेफ़े में हमेशा रामपुरी चक्कू लिए घूमता है। सुनहले बाल, कंजी आँखें और भूरी
मूंछों के कारण, लोग उसे पीठ पीछे पुकारते थे-भुरे खाँ। दादी चुप नहीं रह
सकी, बोलीं, चुप्प रह रे-भुरे, अपनी एक आँख से चुपचाप लीला देख।"
एक बार उसने बहुत पहले नरेन्द्र को एक अठन्नी थमाकर कहा था, "ले रे नरिया
भट्ट, तू भी क्या कहेगा कि किस रईस से पाला पड़ा है! जा, हेमंत वैद की दुकान
का दाडिमाष्टक चूरन खा लेना डियर इस अठन्नी का! पर देख, मेरा एक काम करना
होगा।"
"क्या?" नरिया के लिए हेमंत वैद की दुकान की दाडिमाष्टक की पुड़िया बहुत बड़ा
आकर्षण थी।
"यह चिट्ठी अपनी दीदी को देकर कहना, मनोहर जोशी ने फौरन से पेश्तर जवाब मांगा
है।"
मनोहर के हैंहैं, तू बीच में क्यों खोल रहा है रे भुकलर' कहने पर भी नरिया ने
त्वरित गति से चिरकुट खोलकर पढ़ लिया था।
अंग्रेजी में लिखे उन तीन शब्दों का अर्थ समझने में फिर उसे विलम्ब नहीं हुआ।
“आई लव यू" उन दिनों इन तीन अंग्रेजी शब्दों ने अनेक किशोरों की चमड़ी
उधड़वाई थी, कई प्राइवेट ट्यूटर भी अपनी किशोरी छात्राओं को ऐसे चिरकुट थमाने
पर तत्काल सेवानिवृत्त कर दिए गए थे।
नरेन्द्र ने गुस्से से वह कागज, अठन्नी सहित मनोहर के मुँह पर पटक दिया और
ऐसा बगटुट भागा कि पलटकर भी नहीं देखा।
इसके बाद फिर मनोहर ने कभी ऐसी हरकत नहीं की। एक तो दूसरे ही दिन, महेन्द्र
ने कॉलेज में ही उसका टेंटुआ पकड़ उसे चेतावनी दे दी थी, "देख साले हरामजादे
मेरी बहन को लेकर कभी ऐसी घिनौनी हरकत की तो समझ ले, फिर तेरी बहन को भी नहीं
छोड़ेगा महेन्द्र भट्ट!"
पर रामलीला में उस दिन, दर्शकों के बीच साक्षात् वैदेही रूपा अन्ना को देख वह
सब चेतावनी भूल गया। उस दिन माँ की बक्से में धारी, मखमली किनारे की गोट लगी,
धानी साड़ी निकाल कर अन्नपूर्णा ने पहन ली थी। कभी उसकी माँ ने दिल्ली से वह
मखमली पट्टी मँगवा, कई दिन लगा गुलाब के नन्हे फूल और हरी पत्तियों से सँवार
कर काढ़ी थी-मंच की सीता की छटा को भी मलिन करती उसी अन्ना की अपरूप छवि देख,
वह रावण फिर चीख कर खप्पर बजाने लगा था। अचानक पर्दा उठा, कुर्सियों पर
चमकीली सलमा-सितारे जड़ी पोशाकों में दमकते विभिन्न नृपतियों का. वर्णन,
शाहजी नेपथ्य से ही अपनी विशिष्ट परिहासपूर्ण शैली में देकर दर्शकों को
लोटमपोट कर रहे थे।
"और ये हैं खत्याड़ी के राजा, इन्हें बहुत ठंड लगती है, ओ राजसैप हो, जरा
दिखा तो दीजिए, आप कितनी पोशाकें पहन स्वयंवर में पधारे हैं।" और पूरे
होल्डौल बने खत्याड़ी के नेरश, चालू हो गए थे। एक-एक कर न जाने कितने कोट,
वास्कट, स्वेटर, पैंट, पाजामे उतरते चले गए। सामने वस्त्रों का स्तूपाकार
गट्ठर और उस गट्ठर के बीच केवल एक धारीदार कच्छे-बनियान में मुस्कराते
खत्याड़ी नरेश।
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