नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
यह भयानक सम्भावना तीनों को सहमा गई पर तब ही मौका देख, नरिया ने लपककर एक
फाँक निकाल मुँह में धर ली, और हँसकर कहने लगा था, "तो क्या हो गया, रास्ते
में भी तो गिर सकती है। पूछेगे तो कह देंगे-बाबू, रास्ते में गिर गई होगी, आप
तो जेब से रूमाल निकाल चश्मा पोंछते रहते हैं।"
फिर भी जीत बड़े भाई की होती-काठ की कठौती में तीनों हिस्से से अधिक भाग लेकर
वह सब भाई-बहनों से दूर जाकर बैठ जाता, अपना हिस्सा अधैर्य से उदरस्थ कर
लेता, कोई फिर उससे न माँग बैठे। आज इतने वर्षों बाद भी तो वह यही कर रहा था।
कॉलेज छूटते ही तीनों छुट्टे अलमस्त साँडों से घूमते रहते, दादी लकड़ी बीनने
दीदी को लेकर घंटों के लिए निकल जाती, बांबू, सुन्दरशाह की दुकान के बहीखाते
देखने जाते तो दिन डूबने से पहले नहीं लौटते। यह कार्य वे बिना वेतन लिये ही
करते थे पर मानदेय के रूप में, घर भर के मसाले, तेल, दाल स्वयं शाह जी घर
पहुँचा जाते। वैसे तो घर में खाने-ठूगने की प्रचुर सामग्री रहती। बड़े से काठ
के बक्से में, यजमानों के यहाँ से मिले मेवे, पोस्ते के मीठे बीज चिपकी पुष्ट
बाल मिठाई, हरे पत्तों में ठसाठस भरी कुल्फी के आकार की सिंघौड़ी जिनमें
किशमिश और गरी अधिक रहती, खोया कम-मेथी के लड्डू, गोंद की बर्फी और फिर भुटी
कुन्द के लड्डू (भुने खोये के लड्डू) जिन्हें खाना और बनाना अब भाग्यहीन
कुमाऊँ एकदम ही भूल-बिसर गया है। पर चिलगोजे, अखरोट, बादाम और मुनक्कों से
भरे उस राजकोष की चाबी, सदा दादी के लहँगे में खुसी रहती। मजाल थी जो कभी
भूले से भी बुढ़िया घर पर छोड़ जाए और एक दिन तो मुँहफट नरिया ने अपनी
व्यंग्योक्ति से बूढ़ी आमा को रुला भी दिया था।
“आमा, क्या तू यह चाबी अपने साथ ऊपर ले जाएगी? अगर ले गई तो हमारी इजा का भी
हिस्सा करना, उसके बच्चों को तूने यहाँ तरसाया ही ज्यादा है।"
आमा जोर-जोर से रोने लगी थी, “सुन रही है अन्ना, मैंने तुम्हें यहाँ कभी कुछ
नहीं दिया, खुद खाया है सुना तूने? मैं बुढ़िया-न मुँह में दाँत, न पेट में
आँत-टक्क-टक्क दाँतों से तोड़ छिपा-छिपाकर अखरोट ही तो खाती रही हूँ-संग्रहणी
की मरीज हूँ फिर भी बाल-सिंघौड़ी खाती हूँ। क्यों, है न?"
“अरे नरिया, गू-मूत किसने धोया है तेरा?"
सहमकर नरिया भाग गया और दिन-भर घर नहीं लौटा था। गोली मर्म स्थान पर जाकर ही
लगेगी, शायद उसने नहीं सोचा था। फिर तो वह परा महीना, कभी दादी के पैर दबाता,
कभी उसके बालों के काल्पनिक लीख अकारण ही चुन नाखूनों पर धर मारने
लगता-पुट्ट-पुट्ट!
सबसे आनन्ददायक, अब तक जीवन्त बनी स्मृति थी रात्रि पर्व की। दिन डूबते ही
दीदी, लोहे के बड़े ‘सग्गड़' में बाँज के कोयले और गोबर मिश्रित कोयले के
चूरे से बने गोले धधकाकर कमरे में रख जाती-और पूरा घर ही उसे तने से धधकते
सग्गड़ से दहकने लगता। देश-विदेश में कई बार घम आए देवेन्द्र को वह आनन्द फिर
कभी वहाँ की सेंट्रल हीटिंग भी नहीं दे पाई। भले ही उत्तराखंड की माघी
विभावरी में, ऋषि-मुनियों के-से अडिग धैर्य से खड़े बाँज, बुरुंश और देवदार
के वृक्ष ठिठुरकर दोहरे हो जाएँ, उस कमरे में धरा सग्गड़ पास बैठे पहनने
वालों के स्वेटर-पंखी भी उतरवाकर रख देता। दीदी, फिर बड़े से ही लगे कटोरे
में गुड़ गलाने सग्गड़ में रोप जाती, थोड़ी ही देर में वह अनुपम स्वादिष्ट
गुड़ पू बनकर स्वयं तैयार हो जाता। कैसा अद्भुत स्वाद होता था उसका! इतने
वर्षों में विदेशी चॉकलेट के कैसे-कैसे वैविध्यपूर्ण स्वाद चखने पर भी पहाड़ी
जिह्वा अब तक उस स्वाद को नहीं भूल पाई थी, यहाँ तक कि स्विस चॉकलेट भी उसे
निःस्वाद ही लगी थी।
वही सग्गड़, तब उनका माइक्रोवेव चूल्हा भी, किनारे-किनारे धरे गए तीनों
भाइयों के दूध के गिलास, मन्दी सग्गड़ की आँच, जिस पर मलाई की मोहक परतें
जमाती चली जाती। कभी-कभी तो हिमशीतल पानी के गिलास भी वे उसी गर्म राख में
रोप देते, ठंडा पहाड़ी पानी जीभ जो ऐंठ कर धर देता था! दादी स्वयंपाकी थी।
बाबू खा लेते तो तीनों भाई-बहनों को वह एक कतार में बैठा, मोटी-मोटी रोटियों
में, परम औदार्य से घी चुपड़, वहीं से बाउंसर-सा उछालती और किसी दक्ष क्रिकेट
खिलाड़ी की अचूक भंगिमा में उसे थाम छोटा नरिया, तत्काल कमेंट्री में चालू हो
जाता, "व्हट ए कैच! व्हट ए कैच!"
"चुप कर रे नरिया! हमें पता है, तुझे अंग्रेजी आती है-खा चुपचाप।" बड़ा उसे
एक धमक लगाता।
“आमा, तवे की पहली रोटी मेरी।" नरेन्द्र हमेशा एक ही माँग दोहराता, पर
महेन्द्र हमेशा बीच ही में पहली रोटी बढ़कर कैच कर लेता। आमा भी उससे डरती
थी, आमा ही नहीं, एक बाबू को छोड़ पूरा घर उससे थर्राता था। हुक्मउदूली करने
पर, चौड़ी खाँटी-पहाड़ी हथेली का झापड़, दाँत की जड़ें उखाड़ने में समर्थ था,
इसके साक्षी आमा के साथ-साथ तीनों भाई-बहन रह चुके थे। उस घटना के बाद
निरपराधिनी दीदी का घर से निकलना ही बन्द कर दिया गया था।
उन दिनों, अल्मोड़ा में दो रामलीलाएँ प्रसिद्ध थीं : एक बद्रेश्वर की, दूसरी
पांडखोला की। बद्रेश्वर की रामलीला की तब विशेष ख्याति थी। वहाँ का संगीत
पक्ष सम्हालते थे अल्मोड़ा के कई संगीत-रसिक रईस, वायलिन, तबला, हारमोनियम और
फिर स्वयं श्री राम के मधुर कंठ से, बिना किसी नेपथ्य की प्रौम्पटिंग के
निःसृत धाराप्रवाह चौपाइयाँ, दोहे और छन्द। उस पर बीच-बीच में दिखाए गए
'सीनों' की उन दिनों ऐसी ख्याति थी कि रानीखेत, बागेश्वर, गरुड़ से रसिक
दर्शक मोटरभाड़ा खर्च कर देखने चले आते। तब अखबार के एक वयोवृद्ध हॉकर शाहजी
ही घर-घर आकर चन्दा बटोरते और जैसा चन्दा दिया जाता, वैसा ही आरक्षण अनायास
प्राप्त हो जाता। सबसे बड़ी गैंग भट्टजी के यहाँ से ही जाती। तीनों भाई बड़ी
लगन से अक्षर बना-बनाकर अपना रिजर्वेशन स्लिप लटका देते, वह भी अंग्रेजी
में-पंडित रुद्रदत्त भट्ट एंड फैमिली।
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