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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


"मेरा ससुर कभी ऐसी माँग रखेगा तो मुँह नोंच लूँगी उसका!" वह कह मुँह बिचकाती उस नौटंकी का अवशिष्ट भाग देखने, मर्दो के बीच जाकर खड़ी हो गई थी।

पीली साड़ी में सकुची वनकन्या-सी निराभरण कालिंदी सहसा हिंन शेरनी बन उठी। वह माधवी को धकेलती द्वार पर खड़ी हो गई।

जबहिं महाराज चौक में आए
चंदन चौक पुराये हो
मथुरा के हो वासी

उस पारम्परिक पहाड़ी स्वागत गीत की गूंज भी अभी शायद अम्मा के होंठों पर ही धीमी नहीं पड़ी थी कि उस अप्रत्याशित वज्रपात ने झुलसा दिया। वर को परछन करने अक्षत-खील अभी भी अन्ना की मुट्ठी में ही बँधे थे। क्रुद्ध पुत्री को नंगे सिर बारात के आमने-सामने खड़ी देख मुट्ठी खलकर खील बिखर गए-कालिंदी की दृष्टि पहले माँ के सफेद चेहरे पर पड़ी, फिर निरीह मामा पर-दोनों हाथ बाँधे वे दीन-हीन याचक की मुद्रा में वर के पिता के सम्मुख नतजानु खड़े एक ही बात दोहरा रहे थे, “क्षमा करें जोशीजी, यहाँ पर इतनी बड़ी रकम रखना मुझे उचित नहीं लगा था-आप विश्वास करें-पूरी रकम का बैंक ड्राफ्ट सेफ में धरा है।"

"क्यों जी, सेफ में क्यों धरा है? आपने तो कहा था, धूलिअर्घ्य की थाल में रखेंगे।"

"सुनिए तो जोशीजी," मामा का कंठ-स्वर निम्न अवरोह में उतर आया, "यहाँ रखता तो आप ही की बदनामी होती। लोग कहते..."

“क्यों कहते जी लोग? लोगों की ऐसी की तैसी-दस लाख का बेटा दे रहे हैं आपको, क्या मुफ्त में ही जेब में डालने का इरादा था?" उनकी मदालसी लाल-लाल आँखों में, विदेशी आसव का मद पूरे का पूरा उतर आया था, लटपटी जबान उनकी दुरवस्था का परिचय स्वयं दे रही थी, उस पर इधर-उधर पड़ रहे डगमगाते कदम। लगता था, आने से पूर्व ही नशा उनके विवेक को एकदम ही धो-पोंछकर बहा चुका था।

ठीक है," मामा का स्वर अब खीज से ऊँचा हो गया, "आपको मुझ पर इतना ही अविश्वास है तो रुकिए पंडितजी, अभी शाखोच्चार न करें-मैं लिफाफा ले आता हूँ।"

सहमे-डरे स्वर में शाखोच्चार करने को उद्यत कन्या पक्ष के पुरोहित ने मन्त्र कंठ ही में घुटक लिये। देवेन्द्र भीतर जाने लगे ही थे कि साक्षात् चंडी रूप में अवतरित उग्रतेजी कालिंदी उनका मार्ग अवरुद्ध कर खड़ी हो गई, "नहीं मामा।" उसने दोनों हाथ फैलाकर उन्हें रोक दिया।

लड़की के गौर मुखमंडल की पारदर्शी त्वचा के भीतर, सहसा गुजरात के नवरात्रि के मृत्तिकापात्रों के गर्भगृह में जल रहे दीपों से ही असंख्य प्रदीप जल उठे। क्रोध से तमतमाए चेहरे पर न संकोच था, न नववधू की वीड़ा।

खुले बालों की एक लट, हाथ में बँधे कंकण की डोर से उलझ खिंचे धनुष की प्रत्यंचा-सी तन उठी।

"नहीं मामा, अब आपको कहीं नहीं जाना होगा-आपने तो कहा था कि एक संभ्रान्त कुल के ब्राह्मण स्वयं हाथ फैलाकर केवल मुझे माँगने इतनी दूर से चले आए हैं। आपने यह नहीं बताया कि एक दरिद्र शराबी भिखारी : अपना बेटा बेचने आ रहा है।"

“श्रीमान,” फिर वह आगे बढ़ उस चकित स्तब्ध खड़े मदालस व्यक्ति के सम्मुख तनकर खड़ी हो गई, “आपका बेटा हमें नहीं खरीदना है। जाइए, इसी क्षण अपनी बारात लौटा ले जाइए और जहाँ अपने पुत्र का मुँहमाँगा दाम मिले, वहीं बेच आइए।"

फिर अतिथियों के अभिमुख हो उसने शान्त स्वर में दोनों हाथ जोड़कर कहा, "आप सबसे मैं मामा की ओर से क्षमा माँगती हूँ कि यह सस्ती नौटंकी देखने में आपके समय को हमने व्यर्थ नष्ट किया, पर यकीन कीजिए, मुझे इस लेन-देन की शर्त के बारे में जरा भी पता होता तो मैं यह घड़ी कभी आने ही न देती, चलो मामा!"

वह फिर एक प्रकार से हाथ पकड़ मामा को भीतर घसीटने ही लगी थी कि वह व्यक्ति पुनः सजग होकर विफर उठा, “ए लड़की, जबान खींच लूँगा तेरी। तेरी यह अस्पर्धा? मुझे शराबी कहती है, भिखारी कहती है? जानती है, मैं दुबई में इस समय सबसे समृद्ध भारतीय हूँ-स्विमिंग पूल मेरा है, आलीशान महल है, मकराना से संगमरमर मँगवाकर फर्श पटवाया है मैंने, अपना चार्टर्ड प्लेन है। मेरे इस इकलौते बेटे के बारे में क्या जानती है तू-क्या, ऐं?" जबान फिर लटपटाने लगी थी।

"अच्छा?" व्यंग्य से तिर्यक वे मोहक अधर चिढ़ाई गई कोयल की सी अधीर कुहूक में उसे जान-बूझकर चिढ़ाने लगे, "बड़ा आश्चर्य है कि इतने समृद्ध व्यापारी होने पर भी आपको अपना बेटा बेचना पड़ा-वह भी कुल अस्सी हजार में!"

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