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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


नशे का औद्धत्य सहसा प्रचंड हो आँखों से आग की लपटें बरसाने लगा था। उन्हें उनके साथ आए बाराती न रोकते तो वे शायद दुःशासन की निर्लज्जता से कालिंदी का चीर ही भरी सभा में हरण कर लेते।

अब तक निर्वाक खड़े नौशे ने चेहरे का सेहरा उठा लिया-एक क्षण को कालिंदी ने उसे और उसने कालिंदी को देखा।

सृष्टि की गति अचानक उस धक्के खाती भीड़ के बीच थमकर रुक गई।

कैसा अपूर्व तेज था लड़की का और निर्भीक मुखमुद्रा! लग रहा था, वह आदमखोर शेर के खले पिंजरे में भी धकेल दी गई तो उसी अवज्ञा मिश्रित हँसी से उस आदमखोर को भी पालतू बना लेगी।

फिर वही आश्चर्यजनक दृष्टि सहसा चैतन्य हुई-क्या कह रही थी वह! क्या उसके पिता ने ऐसी ही कोई शर्त रखी थी? जिस तेजी से फिर कालिंदी ने मामा को भीतर खींच फटाक से द्वार बन्द कर लिया था, कुछ कहने-सुनने की गुंजाइश ही कहाँ रह गई थी!

“चलिए पापा. या और कुछ हिसाब करना बाकी है?" व्यंग्य से उसने पिता की ओर देखा और फिर बिना उनके उत्तर के लिए रुके ही सेहरा नाचकर उनके पैरों में पटक पैदल ही चला गया था।

बेबी ही, सुबह वह द्वार पर पड़ा ऊँचा सेहरा लेंकर, चाची के जले पर नमक छिड़कने भीतर ले आई थी, “लो मँझली चाची, तुम्हारा दामाद गुस्से में सेहरा यहीं फेंक गया है।"

पुत्री को आग्नेय दृष्टि से भस्म कर महेन्द्र ने झल्लाकर कहा था, “फेंक दे साले को बाहर! न जाने कहाँ से टुच्चे खानदान को ढूँढ़ लाई, तुम अन्ना-आजकल हम पहाड़ियों को यही विदेशी ललक तो खाए जा रही है। ग्रीन कार्ड होल्डर है तो बस टूट पड़ेंगे, भले ही वर के नाक-कान न हों!"

"कैसी बातें करते हो दददा!" देवेन्द्र ने अन्नपूर्णा का पक्ष लेने की चेष्टा की थी, "दोष क्या दीदी ही का है? दोषी तो हम सब हैं। सबसे बड़ा अपराधी तो मैं हूँ। मैं अब कभी अपने को माफ नहीं कर पाऊँगा।"

"मेरी समझ में अभी तक यही नहीं आया देबी, तू तो पुलिस का अफसर है, तुझे तो उसकी माँग सुनते ही सावधान हो जाना चाहिए था। जिसने अँगुली इस बेरहमी से पकड़ी हो, वह एक न एक दिन पहुँचा भी पकड़ेगा-यह नहीं समझ पाया तू?"

"तुम क्या समझते हो, पहचाना होता तो यह अनर्थ होता?"

“अब जो हुआ सो हुआ, लोगों में बदनामी तो हम सबकी हो ही गई है, हमें भी तो अभी एक बेटी ब्याहनी है, एक अक्षर हमसे तो पूछा होता!" महेन्द्र ने झुंझलाकर कहा, “अब यहाँ रुकने से क्या लाभ। मेरा तो दम घुटा जा रहा है। सोच रहा हूँ, कल सुबह की फ्लाइट से निकल जाएँ। किसी को भेजकर एयर टिकट मँगवा लेना।" फिर वह बड़ी रुखाई से पीठ फेर अपने कमरे में चला गया।

“जरा भी नहीं बदला है यह!" फिर अन्नपूर्णा ने उठकर, उदास खड़े छोटे भाई की पीठ पर हाथ फेरा, "तू क्यों जी छोटा करता है देबी, दोष क्या तेरा या शीला का था? दोषी हम नहीं थे रे देबी, दोषी था मेरा दुर्भाग्य। ऐसा ही जला कपाल लेकर मैं जन्मी थी। न ही मेरे भाग्य में पति-सुख लिखा था, न कालिंदी के। मुझे तो सारी चिन्ता उसी की लगी है। तब से कमरा बन्द किए पड़ी है, चाय भी नहीं पी। एक बार तू ही कहके देख, शायद दरवाजा खोल दे। मैं और मँझली तो विनती-चिरौरी कर-करके हार गईं उस पर बड़ी और पलीता लगा आई..."

"क्यों? क्या कह आईं?"

"बन्द दरवाजा खटखटाने पर भी जब नहीं खुला तो बोलीं-मन नहीं भरा हमारी नाक कटवा कर? झाँसी की रानी बन दरवाजे पर आई बारात को तो लौटा ही दिया, अब द्वार बन्द कर कुछ और तमाशा करने का इरादा है क्या?"

अन्नपूर्णा ने आँचल आँखों पर धर लिया-निरीह दीदी के आँसू शान्त प्रकृति देवेन्द्र को भी विचलित कर गए, “मरे साँप को मारने में तो बड़ी को हमेशा ही आनन्द आता है। अच्छा है कल जा रहे हैं, इससे तो आज ही चले आएँ।"

"ठीक है, तुम्हारी यही इच्छा है तो यही करेंगे, जा बेबी, अपनी ममी से कह दे, सामान तैयार रखे, मैं टैक्सी लेकर आता हूँ, शहर के किसी होटल में एक कमरा तो मिल ही जाएगा।"

और फिर, बिना खाए-पिए, वर्षों बाद घर लौटे भाई को न अन्ना रोक पाई, न देवेन्द्र। वे क्या जानते थे कि पर्दे की ओट में खड़ा महेन्द्र सब सुन रहा है। अन्ना ने एक बार कहा भी, “आज शनिवार है दद्दा, आज तो रुक जाते।"

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