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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


“आ बैठ, यहीं बैठें।" कुर्सी खींचकर वे एक लम्बी साँस खींचकर बैठ गए। दोनों हाथ सिर के पीछे वाँध, उन्होंने आँखें बन्द कर लीं, जैसे सोच रहे थे कि क्या कहें-कैसे कहें।

उसने चाय पीकर प्याला मेज पर धर दिया, फिर निश्चेष्ट बैठे मामा के घुटनों से सिर सटा, वह पालतू बिल्ली की ही भाँति, कपोलों के स्पर्श से, उन्हें दिवास्वप्न से झकझोरती कहने लगी, "मामा, मैंने आपको बहुत दुख दिया है न? आप ही की शर्म से मैं इतने दिनों कमरे में बन्द रही। सोच नहीं पा रही थी, क्या कहूँगी आपसे ! मैंने ऐसा क्यों किया?"

"पगली कहीं की!" मामा ने बड़े लाड़ से उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा, "मैं तेरी जगह होता तो मैं भी शायद यही करता कालिंदी-तूने वही किया जो तुझे करना चाहिए था। तेरा साहस मुझे गर्व से भर गया है, पर बेटी, यह संसार क्या ऐसे साहस को सराह पाता है?

“वह पढ़ा-लिखा व्यक्ति, ऐसी बात कर बैठेगा, वह भी आत्मीय स्वजनों के सामने, मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, पर उससे भी आश्चर्य मुझे तब हुआ, जब वर्षों से विदेश में पला-बढ़ा उनका पुत्र, एक शब्द भी नहीं बोला। जरा-सा भी धैर्य नहीं रहा उसे? सुना, लाखों का व्यापार है दुबई में, लक्ष्मी चरणों की दासी है, एक बेटा कनाडा में है, दामाद चीफ सेक्रेटरी है, फिर भी ऐसा लोभ?"

"मामा, एक बात पूछू? सच-सच बताएँगे?"

"पूछ ना वेटी, मैंने आज तक तुझसे कभी क्या बात छिपाई है?"

"हाँ मामा, छिपाई है-इतनी बड़ी बात आप मुझसे छिपा गए। आपने क्या सचमुच उन्हें तीस हजार रुपया एडवांस देकर, पचास हजार फिर देने का वायदा किया था?"

एक पल को देवेन्द्र निरुत्तर रहे, फिर उन्होंने संयत स्वर में कहा, "हाँ, बेटी, तू तो जानती है, हमारे लिए तू ही सबकुछ है, एक तूने ही हमें सन्तान का समस्त सुख दिया है, तेरे लिए यदि अच्छा योग्य पात्र जुटा और उसकी कीमत भी हमें चुकानी पड़े तो हमें आपत्ति नहीं थी।"

"छिः-छिः मामा, आपसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी। आप ही ने तो मुझे सिखाया है कि न कभी अन्याय करना, न अन्याय सहना। फिर ऐसा अन्याय क्यों किया आपने, वह भी मुझसे बिना पूछे?"

"इसीलिए तो नहीं पूछा कालिंदी।" कंठ स्वर की सत्यता हथौड़े की चोट-सी पड़ रही थी, "मैं जानता था, तू कभी इसके लिए राजी नहीं होगी। लड़का मुझे बेहद पसन्द आ गया था। जब पहली बार उन्होंने लेन-देन की बात की तो मेरा मन भी एक पल को विद्रोह कर बैठा पर फिर सोचा, आजकल यही तो सब जगह हो रहा है, कहाँ तक आदर्श को छाती से लगाकर रह पाऊँगा। कब से दीया बालकर हम दोनों तेरे लिए लड़का ढूँढ़ रहे थे, कहाँ मिला कोई-पहाड़ी लड़कों ने तो जैसे पहाड़ की लड़कियों से शादी न करने का संकल्प ले लिया है। बता दे मुझे ऐसा कोई पहाड़ी परिवार, जहाँ एक न एक बंगाली, पंजाबी, ईसाई या मुसलमान बहू न हो! मरता क्या न करता-तेरी मामी ने भी यही कहा, दीदी ने भी।"

"मेरा भाग्य अच्छा था मामा, जो उस नीच ने द्वाराचार पर ही आपसे कह दिया, भट्टजी, नौशा द्वार की चौखट तभी लाँघेगा, जब आप बयाने की बची रकम यहीं चुकाएँगे। यही वायदा किया था आपने, अब क्यों मुकर रहे हैं?"

“यही तो मूर्खता कर बैठा वह लोभी, मुझ पर इतना भी विश्वास नहीं कर पाया? रकम तो लिफाफे में धरी सेफ ही में थी। सोचा था, जाने लगेंगे तो एकांत में चुपचाप थमा दूंगा, पर तूने ऐसा क्यों किया कालिंदी? द्वार पर आए अतिथि से क्या ऐसा व्यवहार किया जाता है?"

“आप यह कह रहे हैं, आप, जिसने मुझे हमेशा यही सिखाया है कि. झूठ कभी मत बोलना कालिंदी, एक झूठ दस झूठ बुलवाता है।"

वह हँसी और देवेन्द्र को लगा, उसकी भाँजी से सुंदर मूर्ति विधाता ने कभी गढ़ी ही नहीं-एक ही सौन्दर्य सृष्टि कर साँचा ही शायद तोड़ दिया था। सबसे एकदम निराली, लम्बी छरहरी देह, गौर वर्ण, आँखें खिंची, लम्बी बरौनियों की गहन स्निग्ध छाया में और भी पीताभ लगते कपोल, पीठ पर फैले घने केश, ठोड़ी को घेरे नाजुक चेहरे की बचकानी हँसी, उत्तेजनामिश्रित क्रोध से काँपता नुकीला चिबुक, पक्षी की चोंच से परस्पर काठिन्य से भिंचे लाल अधर, उन्हीं की गठन देख वे कभी बड़े लाड़ से उसे पुकारते थे-"चड़ी" (चिरैया)।

उस भांजी का वह तेजस्वी रूप, चिता में चढ़ने तक वे कभी नहीं भूल पाएँगे, जब वह क्रोध से थरथर काँपती, पहाड़ी कायदे-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाती, द्वाराचार में स्वयं आकर खड़ी हो गई थी। उसकी ममेरी बहन बेबी ने उसके भावी बेहया ससुर की निर्लज्ज माँग उस तक पहुँचाने में पलमात्र का भी विलम्ब नहीं किया-विवरण में यथासाध्य नमक-मिर्च-मसाले लपेट ही वह सुना गई थी। इस नाटकीय मजेदार मोड़ से प्राप्त आनन्द को वह रोक नहीं पा रही थी। सेहरा उठते ही जिस सुदर्शन प्रवासी जीजा को देख उसका पुरुषलोलुप चित्त, हजार गुलाँठे खाता, चारों खाने चित हो गया था, वह निकल गया कालिंदी की मुट्ठी से।

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