लोगों की राय

नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

336 पाठक हैं

एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


आज यह परिवेश उसकी मनःस्थिति से एकदम मेल खा रहा था। एक वटवृक्ष की सघन छाया में बैठकर वह चुपचाप स्तब्ध प्रकृति की अनुपम छटा को देर तक निहारती रही थी। वटप्ररोहों को भेदती निर्जनता क्रमशः प्रगाढ़ होती जा रही थी-अचानक दूर-दूर तक विखरे मेघखंड एक बार फिर एकत्रित हो डमरू बजाने लगे थे-नीलाकाश में सम्भावित वर्षा की कालिमा फैलने लगी थी। लग रहा था, जोर से पानी बरसेगा। कब तक वैठी रहेगी यहाँ, घर तो लौटना ही होगा-उसका बिना किसी को कुछ कहे-सुने ऐसे घर से चली आना उचित नहीं हुआ। मँझले मामा उच्च रक्तचाप के मरीज थे, कहीं घबड़ाकर स्वयं उसे ढूँढ़ने न निकल पड़े हों! और अम्मा? उसका सूखा चेहरा याद आते ही उसकी आँखें भर आईं। सबसे बड़ा आघात तो उसे ही लगा होगा-किसी भी जननी के लिए इससे वडा आघात और हो ही क्या सकता है कि द्वार पर आई उसकी पुत्री की वारात उलटे पाँव लौट जाए! वह इस एकांत में एक बार जी भरकर रोना चाह रही थी, पर कहाँ रो पा रही थी? कंठ में अटके अश्रु बार-बार उसकी छाती में उतरे पत्थर बने जा रहे थे, पत्थर को फोड़ क्या कभी जलधार निकल सकती है?

वह उठी, हाथ से उसने साड़ी की परत ठीक की, सिर पर गिरे सूखे पत्रों को झाड़ा और मंथर गति से चलने लगी। उसका अनुमान ठीक था, द्वार पर ही घबड़ाए मामा खड़े थे, उनके पीछे मामी और अम्मा।

"लो, आ गई," मामी ने कहा।

“बाप रे, तेरी जैसी जिद्दी लड़की तो मैंने कभी नहीं देखी! कहीं जाना ही था तो कहकर भी तो जा सकती थी। चार दिन पहले जो हो चुका, क्या काफी नहीं था? आज तूने रही-सही कसर भी पूरी कर दी।"

"चुप भी करो मँझली,” मामा ने उन्हें टोक दिया-"चेहरा देख रही हो लड़की का? एकदम भीग गई है बेचारी। जा-जा, कपड़े बदलकर आ, चाय अभी बनी जाती है।"

बिना किसी की ओर देखे वह भीगे कपड़ों में बिस्तर पर पसर गई। पहली बार उसे तीन दिन से दवी क्षुधा का आभास हुआ। सिर बुरी तरह चकरा रहा था, एक तो पिछली रात वह एक पलक भी नहीं झपका पाई थी। लग रहा था, वह रात्रि, निशा नहीं, उसके जीवन की अनिर्वचनीय महानिशा थी।

"कालिंदी!" अम्मा का शुष्क स्वर।

वह चौंकी, “क्या है अम्मा?"

"क्या अभी इतना सब कुछ करने पर भी मन नहीं भरा तेरा? देवेन्द्र का रक्तचाप क्या और बढ़ाना चाहती है? उठ, ये गीले कपड़े बदल और बाहर आ। देवेन्द्र तुझसे कुछ बातें करना चाह रहा है।"

“पर मैं तो किसी से बात करना नहीं चाहती अम्मा!"

"ठीक है, तू चाहे जो कर और मर!" अम्मा का रुआँसा हताश स्वर सिसकियों में बिखर गया।

“जानती है, इन तीन दिनों में क्या-क्या सुना मैंने, क्या-क्या सहा! तेरे बड़े मामा-मामी-बेबी सब बिना खाए ही चले गए। कहने लगे-लड़की ऐसी ही राजराजेश्वरी थी तो पहले ही लेन-देन की बात पक्की कर लेते। पहाड़ में तो अब लेन-देन नई बात नहीं है कोई दिखा के लेता है, कोई छिपा के। एक तो पहाड़ में वैसे ही लड़कियों के लिए अच्छे लड़के नहीं जुटते, अच्छी चीज लोगे तो अच्छे दाम भी देने पड़ेंगे। द्वार पर आई बारात को अपमानित कर लौटाने में तो हमारी भी नाक कटी, कल हमारी बेटी की शादी होगी तो लोग रिश्ता करने में डरेंगे कि इनके खानदान में तो द्वार पर आई बारात लौटाई जाती है। अरे भई, हमसे कहा होता, मिल-जुलकर हम ही रकम भर देते, कम से कम बदनामी तो नहीं होती।"

कालिंदी तड़पकर बैठ गई, “कैसी मूर्खता की बातें कर रही हो अम्मा! जिस बड़े मामा ने, कभी इतने वर्षों में हमारी खबर लेना भी उचित नहीं समझा, वे रकम चुकाते? और फिर क्यों कोई चुकाए? मेरे लिए उस मामा को इतनी बड़ी रकम भरनी पड़े, जिन्होंने जन्म से लेकर आज तक मेरे लिए रकम ही तो चुकाई है-ऐसी ही लार टपक रही थी उस रिश्ते के लिए तो क्यों अपनी बेबी का रिश्ता, वहीं चेक काटकर पक्का नहीं कर लिया? मुझसे एक ही महीने तो छोटी है...”

अन्नपूर्णा बिना कुछ कहे चली गई-कपड़े बदलकर कालिंदी ने ड्रेसिंग टेबल से एक-एक कर वे सारी प्रसाधन सामग्रियाँ, कूड़ेदान में फेंक दी जो चार दिन पहले मामी ढूँढ़-छाँटकर उसकी सज्जा के लिए लाई थीं-नेलपॉलिश, महावर, मेहँदी की पुड़िया, काली जड़ाऊ, काँच की सोहाग की चूड़ियाँ और उन सब के बीच धरा उसके विवाह का निमन्त्रण पत्र। कमरे में उस मनहूस स्मृति का वह एक-एक चिह्न हटा निश्चित होकर निकल ही रही थी कि मामा से टकरा गई। उनके हाथ में उसके लिए लाया जा रहा गर्म-गर्म चाय का प्याला छलक गया।

"बच के बेटी, बच के! ले, गुस्सा थूक डाल और गरम चाय पी।"

उनके स्नेह विगलित निष्पाप चेहरे को देख कालिंदी स्वयं ही गहन पश्चात्ताप में डूब गई।

हाय, ऐसे देवतुल्य मामा को भी उसने निश्चित रूप से आहत किया था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book