लोगों की राय

नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

278 पाठक हैं

अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


दूर सम्पर्क की उस ममेरी बहन का विस्मृत चेहरा, इतने वर्षों बाद उसका पत्र हाथ में लेते ही फिर आँखों में तैर उठा। जिसने भी उसका नाम धरा, ठीक ही धरा था। स्वभाव से, रूप से, वह सचमुच हीरा थी। दुबली, पतली, नाजुक हीरा का विवाह हुआ तो शायद सोलह की भी नहीं थी। नथ पहनने के अदना उत्साह में अपनी सुतवाँ नाकिस में टोंका के चिह्न को बड़ा कराने वह मेरे पास आई थी। मैंने ही मयूरपंख की डंडी को तराशकर, उसकी नाक में पहना, जलबिन्दु से डंडी को सिक्त किया था, जिससे फूली डंडी से छिद्र बड़ा हो जाए और मेरी अंतरंग बाल्यसखी अनायास ही, अपने विवाह के दिन नथ पहन ले। जब कन्यादान के गोठ में उसके विवाह का सोहाग गाया जाने लगा--'मेरी नानी रानी माँगे सोहाग बड़ेला'-तो मुझे लगा स्वयं मेरा ही एक अंग धीरे-धीरे मुझसे विच्छिन्न हो रहा है। इसके बाद वर्षों तक मैं उससे नहीं मिल पाई, पर सातवीं पुत्री के जन्म की सूचना देकर, उसने मुझे नाम धरने का आग्रह किया तो मैंने भन-भुनाकर उसे लिखा था-"क्या दर्जन पूरे करने का इरादा है? अब बस भी कर..." मैं क्या जानती थी कि मेरा कहना वह इतनी जल्दी मान लेगी। वहीं ललिता उसकी ओछन-पोंछन रही। फिर वर्षों बाद, अचानक ललिता मुझे अल्मोड़ा में मिली। हीरा की मृत्यु के बाद, उस परिवार से मेरा सम्बन्ध ही टूट गया था।

एक मोटा खुरदरा काला शाल ओढ़े, वह कपड़े की दुकान से खरीदारी कर बाहर निकल रही थी। बेहद ठंड थी, तीन दिन लगातार बफ पड़ने के बाद, हवा की तीखी धार को, सनकी मौसम ने जैसे पत्थर पर घिसी छुरी-सा तेज बना दिया था, इसी से शायद उसने नाक-मुँह भी शॉल का बुर्का-सा बना ढॉप लिया था। गोरी अंगुलियों की दमक और चौड़े माथे की चमक देखकर ही मैं प्रभावित हुई थी। पूर्व परिचय का न सूत्र था, न छोर। हाथ का बंडल नीचे रख वह अपना भोंडा महीन छाता खोल ही रही थी कि मैं ठिठक गई। भगवान, हीरा तो मर-खप गई थी, यह क्या उसका भूत है। मैं बड़ी अशिष्टता से उसे आँखें फाड़, घूर-घूरकर देख रही थी, यह मैं स्वयं ही भूल गई। मेरी अशिष्टता उसे बाद में अखरी। उसके अत्यन्त रूखे प्रश्न का चाँटा मुझे सहसा तिलमिला गया।

“कहिए-ऐसे क्या देख रही हैं-मुझे तो स्मरण नहीं पड़ता, मैंने आपको कहीं पर..." एक झबरी अयालवाले लदू घोड़े की लगाम थामे एक भोटिया कुली उसकी पड़ताल कर रहा था। मैं फिर ठिठककर उसका अश्वारोहण पूर्ववत् देखने लगी। उसने अपने हाथ के बंडल सईस को थमाए, शॉल को फिर सौराष्ट्री ग्रामीणों की भाँति सिर, कान, नाक पर लपेटा और अनुभवी अभ्यस्तता से धड़ाक से घोड़े पर सवार हो गई। साड़ी घुटनों तक उठ जाने की जैसे उसे कोई चिन्ता नहीं हुई। दक्ष हाथों लगाम थाम, वह ऐंड़ लगाने को ही थी कि मैंने लपककर उसे एक बार फिर रोक लिया। 'सुनो', मैंने कहा, "तुमसे कुछ पूछना है।"

इस बार वह फनफनाई नागिन-सी बिफर उठी-“क्यों परेशान कर रही हैं? क्यों पीछा कर रही हैं मेरा-कहा न मैंने-दफ्तर में आइए...” मैंने हँसकर पूछा--"क्या तुम हीरा की लड़की हो?" एकाएक उसका कठोर चेहरा माँ का नाम सुनते ही बदल गया-“तुम हीरा की लड़की ललिता हो क्या?"

“आप, अम्मा को जानती थीं? आपने मुझे कैसे पहचान लिया?" वह चट से घोड़े से उतर मेरे सम्मुख खड़ी हो गई।

"क्या भूल गई? जब इंटर की परीक्षा देकर तुम मुझे अपनी बहन के साथ फ्लैट पर मिली थी?"

"हाय, कितनी मूर्ख हूँ मैं। पर आप भी तो कितना बदल गई हैं। असल में जब आपको देखा था...” कहकर फिर स्वयं ही खिसियाकर चुप हो गई।

मुझसे ही कह रही है ललिता...'जब किसी ललाट से बिन्दी, कंठ से मंगलसूत्र और कलाइयों से चूड़ियों का अस्तित्व विलीन हो जाता है तो फिर वह चेहरा भी सहज में पकड़ में नहीं आता। "क्यों? अब यह बताओ तुम क्या कर रही हो, जीजाजी कैसे हैं?"

“मैं अब हेडमिस्ट्रेस हूँ। मौसी, बाबूजी ठीक हैं। बीच-बीच में उनका पुराना श्वास उमड़ आता है।" फिर उसकी बारी थी। वह हँस-हँसकर मुझसे प्रश्न पूछती जा रही थी, और एक-एक प्रश्न के साथ-साथ उस मनहूस शॉल से भ्रामक बन गई उसकी वयस के एक-एक वर्ष जैसे घटते जा रहे थे। यह तो सोलह वर्ष की हीरा ही जैसे पान खाकर मेरे सम्मुख खड़ी, अपनी नुकीली जीभ निकालकर पूछ रही है-"खूब लाल हो गई ना? दो ही पान खाकर आई है। अभी जानती है-कुंती बुआ क्या कहती है? प्यारी को पान, कुँआरी को मेंहदी, गोरी को काजल, काली को बेंदी।"

“अच्छा, तो तेरा दूल्हा तुझे खूब प्यार करेगा? यही कहना चाहती है ना?"

“चल हट!" उसने मुझे शरमाकर धकेल दिया था। “मौसी, मैं आज रात अपनी एक अध्यापिका के यहाँ रुकूँगी, कल सुबह की बस से जाऊँगी।"

"चलिए ना मेरे साथ, बाबूजी आपको देखकर कितना खुश होंगे। जागेश्वर के दर्शन भी कर लेंगी।"

मैं जानती थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book