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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


जागेश्वर मन्दिर का शीर्ष हीरा के बरामदे से दीखता था, ब्रह्मकुंड से एक पतली सर्पिल पगडंडी ठीक उसके घर तक पहुँचती थी।

"ठीक है, चलूँगी ललिता। सुबह मुझे यहीं से साथ ले लेना, अब तू देर मत कर। सुना है, अब अल्मोड़ा की सड़कें भी निरापद नहीं रह गई हैं!" संध्या छह बजे से ही नशे में मत्त मदालस युवकों का उन्मत्त आचरण स्वचक्षुओं से देख, मैं कई बार मन-ही-मन क्षुब्ध हो उठी थी। क्या यह वही अल्मोड़ा है, जहाँ बीस वर्ष पूर्व गृह का तरुण पुत्र, बिना पिता की आज्ञा के कान में यज्ञोपवीत डाले, लघुशंका से भी निवृत्त होने की धृष्टता नहीं कर सकता था?

दूसरे दिन वह तड़के ही मुझे लेने आ गई थी। "तेरा चेतक?" मैंने हँसकर उसे छेड़ा। पहले वह नहीं समझी, फिर ठठाकर हँसी, “वह हमारे जाने तक वहाँ पहुँच चुका होगा, मैंने सईस से कह दिया है, वह एक और घोड़ा मँगवा लेगा-घर तक बेहद तीखी चढ़ाई है।"

तब सुन,” मैंने कहा, "कैसी भी तीखी चढ़ाई हो, मैं उस डेढ़ फुटे खच्चर पर नहीं चढंगी।"

बस पहुँची तो धूप निकल आई थी। पनुआनौला से जागेश्वर तक की भव्य वीथिका मुझे संसार की अब तक देखी सब वीथिकाओं से सुन्दर लगती है। चारों ओर अद्भुत निस्तब्धता, देवद्रुमों की हिमशीतल बयार का स्निग्ध स्पर्श जैसे कोई रह-रहकर माथे, कपोल, स्कन्धों पर आईसबैग रख रहा हो-झींगुर की लयबद्ध झंकार और कदम-कदम पर दिव्य प्राचीन भग्न मन्दिरों की भव्य झाँकी।

"वह रहा हमारा मकान, जहाँ छत पर कदू सूख रहे हैं।"...उसने बड़े उत्साह से चाल और तेज कर दी, पर मेरा एक-एक पैर मन भर का हुआ जा रहा था।

उन व्यर्थ सूखते विराट् कद्दुओं का इतिहास स्वयं उसके बाबूजी ने ही बताया था। हम पहुँचे तो गृहस्वामी एक धोती पहने अपनी नंगी पीठ को एक लंबी पेंसिल से खुजा रहे थे।

"बड़ी देर कर रही हो बेटी, मैं तो सोच रहा था कल शाम ही आखिरी बस से लौट आओगी।" उन्होंने शायद पहले मुझे नहीं देखा, फिर अचकचाकर उठे और खूटी पर टँगा कुर्ता पहनकर एक बार मुझे और एक बार ललिता को देखने लगे-जैसे पूछ रहे हों, ये किसे ले आई।

मैं खड़ी ही थी। "क्यों? बैठने को नहीं कहेंगे जीजाजी?" मैंने हँसकर कहा, "कभी तो आपने मुझे उठाकर मुँह में धरने की इच्छा प्रगट की थी! अभी भी नहीं पहचाना?"

एकाएक उनके क्लान्त चेहरे पर जैसे डूबते सूर्य की समग्र लालिमा उतर आई-“कैसा मूर्ख हूँ मैं! पर दोष क्या मेरा है? आज शायद पैंतीस साल बाद देख रहा हूँ आपको-अहोभाग्य! अहोभाग्य!! आपने आज इस दीन की कुटिया को पवित्र तो किया! जा बेटी, जल्दी चाय का पानी तो चढ़ा दे।" अनेक वर्षों की संचित स्मृत्तियों ने सहसा कलेजा मरोड़ दिया।

अप्सरा-सी सुन्दरी, कामदार लहँगे-दुपट्टे में गठरी बनी सप्तपदी की अवसन्न धूम्ररेखा से घिरी, नौशे के पास बैठी, दही-बताशा खाने, मुँह ही नहीं खोल रही थी-'मानसून' के परिवेश से सब सयाने, कुमाऊँ के कठोर अनुशासन के चाबुक से भीतर खदेड़ दिए गए थे, रह गए थे वृद्ध पुरोहित, नौशे के कुछ मित्र और बन्नी की सखियाँ। चुहल चुटकियों का बाजार गर्म था। नौशा विवश दृष्टि से बार-बार अपने एक जूते को देख रहा था, दूसरा मनचली सालियों ने छिपा दिया था। अब कैसे उठेगा एक जूता पहनकर!

तब ही पंडितजी का आदेश पाकर वह सहमे-डरे हाथों से दही-बताशे का कौर नववधू के मुँह की ओर ले गया और उसने लजाकर घुटनों में मुँह छिपा लिया।

"अरी खा ले, बहुत सजीला दूल्हा मिला है तुझे?" मैंने उसके कान में कहा, नौशा कौर हाथ ही में लिए ऐसा गम्भीर बना बैठा था, जैसे मुँह में दाँत ही न हो! शायद उसने मेरी फुसफुसाहट सुन ली थी। सहसा उसने मेरी ओर बढ़ा दिया था, "मैं इतना ही पसन्द हूँ तो तुम खा लो ना, यह तो मुँह खोलती ही नहीं।"

किन्तु वर पक्ष के उसके उदंड छोकरे मित्रों की हँसी मुझे अपदस्थ नहीं कर पाई, “मैं तो खा ही लूँगी,” मैंने गम्भीर स्वर में कहा, “पर आपको जवाबी कौर मैं क्या खिलाऊँगी?"

“अजी, हमारी चिन्ता मत करो-तुम्हें देखकर हमारी लार कब से टपक रही है। साली साहिबा, तुम्हें उठाकर मुँह में धर लेंगे।" और फिर उस चुभती जवाबी चुटकी का उत्तर मैं नहीं दे पाई थी! आज इतने वर्षों पश्चात् अपने इसी रसिक जीजा की आपादमस्तक बदल गई छवि देखकर कंठ में गहर-सा अटक गया।

कहाँ गया उस दीर्धांगी देह का पीताभवर्ण, घने काले केशों की सघन छाया में दपदप दमकता चौड़ा माथा और लड़कियों-सी लजीली हँसी से विलसित लाल अधरों की संयमित परिहास पगी अद्भुत छटा! दोनों कपोल भीतर निमग्न होने से पूरा चेहरा ही बदल गया था। चौड़े कन्धे सिमटकर सिकुड़ने से पीठ झुक गई थी, कंकाल-सी देह पर, कुर्ता पहनने से पूर्व मैं उनकी पसलियों के ढाँचे को स्पष्ट देख चुकी थी। मैंने कमरे की दीवारों पर दृष्टि फेरी, न जाने कितने वर्षों के कैलेंडर-तसवीरों से दीवार भरी थी।

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