नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
विवर्त्त
मैं श्वानिका का च्याला खेलूंनी
मैं के खेलूँ, तेर हाड़?
"मेरी हमउम्र हमजोलियाँ
अपने बेटों को
खेला रही हैं,
मैं किसे खेलाऊँ-
तेरे हाड़ को?"
आज, पुराने कपड़ों के बक्से को ठीक कर रही थी तो 'नेप्थलीन' में रसा-बसा मुझे एक बहुत पुराना पत्र मिला-“गत माह मैंने फिर एक कन्या को जन्म दिया है। पंडितजी ने कहा, मकर राशि, मिथुन लग्न में जन्मी है, इसी से नाम कहा, गंगा, गिरजा, खष्टी, मुझे इन तीनों में से एक भी नाम नहीं अँचा। तू तो कहानी लिखती है, कोई अच्छा-सा नाम लिख भेजना।"
बेचारी हीरा! इस बार उसका दाँव व्यर्थ ही गया था। किन्तु ऐसे दनादन बेटियाँ पैदा करना क्या उसके लिए अच्छा था? मैं ही तो उसे अपने साथ डॉ. खजानचन्द्र को दिखाने ले गई थी, क्षय का तक्षक तब उसकी नन्ही-सी छाती पर बैठा ही था, और जब मेरी ही उपस्थिति में डॉ. खजान ने उससे स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि उसे भविष्य में कठिन संयम से रहना होगा एवं पति का साहचर्य कभी भी उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है, तो 'वह तो लाल पड़ ही गई थी, मेरे भी कुँआरे कान लज्जा से लाल पड़ गए थे। तब वह दो ही पुत्रियों की जननी बनी थी।
उसके बाद जब भी छुट्टियों में घर जाती तो सुनती, उसने फिर एक पुत्री को जन्म दिया है। यह लम्बा सिलसिला वर्षों तक चलता रहा, जब भी उससे मिलने जाती, देखती एक कन्या उसकी गोद में है, दूसरी पेट में। पुत्र की कामना को व्यर्थ कर, जब उसकी सातवीं पुत्री ने जन्म लिया तो वह कंकाल-मात्र रह गई थी। मैं सोचती थी, कैसे विवाह करेगी इन सात-सात पत्रियों का? किन्तु पुत्रियों को ब्याहने में उसे विशेष कष्ट नहीं हुआ, गोरी-उजली गन्धर्व कन्याओं-सी उसकी पुत्रियाँ, जहाँ सत्रह-अठारह वर्ष की होतीं, उनके रूप-गुणों की चर्चा उनके लिए स्वयं रिश्ते ढूँढ लाती। सबसे छोटी का नाम मैंने ही धरा था-'ललिता'। उसी के लिए हीरा को सबसे अधिक चिन्ता थी। "तेरे जीजा ने इसे ऐसे सिर पर चढ़ा लिया है कि कहीं से बात आती है, तो कहती है-नहीं, मैं अभी पहँगी। कितना समझाती हूँ, पढ़ लिखकर क्या नौकरी करेगी? कहती है, हाँ-करूँगी। बाबूजी ने मेरी कुंडली देखकर कहा है, प्रभूत विद्या है मेरे भाग्य में और विदेश-यात्रा का स्पष्ट स्थिर योग है..."
वही स्थिर योग तो उसे ले डूबा। पिता को वह दैवज्ञ-मार्तंड मानकर ही पूजती थी। विद्या सम्बन्धी उनकी भविष्यवाणी जब पूरी हुई और उसने संस्कृत भूगोल में एम.ए. कर मुझे पत्र लिखा तो मैंने उसे एक बार फिर समझाया-“देख ललिता, यह डबल एम.ए. का युग्म गौरव मुझे तेरे भविष्य के प्रति अखरता है। क्या करेगी इन डिग्रियों का, क्या केवल दूसरे विषय में एम.ए. करने की उत्कंठा तुझे स्वयं अपनी कुंठा को छिपाने का प्रयास नहीं लगता। यदि करना ही था तो संस्कृत के ही किसी शोधकार्य में जुट जाती।"
पर वह मुझसे शायद नाराज हो गई थी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। इसी बीच सुना, हीरा नहीं रही। मैंने जब ललिता को अन्तिम बार देखा, वह इंटर की परीक्षा देकर घूमने अपनी बड़ी बहन के पास नैनीताल आई थी। लम्बी-छरहरी, कराल यष्टि! बरौनियाँ देखकर लगता ही नहीं था कि असली हैं। उनकी स्वाभाविकता मुझे असंदिग्ध लगी, बेचारी लड़की शायद जानती भी नहीं होगी कि अब नकली भवें भी खरीदी जा सकती हैं। उसकी कांचन देह से भी अधिक आकर्षक थी उसके हृदयाकार चेहरे की निर्दोष छवि। उसकी उसी छवि से मुग्ध होकर, मैंने जीजाजी को उसके लिए अपने भतीजे का रिश्ता भी भेजा था, किन्तु लौटती ही डाक से मेरा प्रस्ताव उस मूर्ख लड़की के पान के पत्ते-सा फेर दिया था। आज वही सुपात्र एक मल्टी-नेशनल कम्पनी में बादशाह-सी शानोशौकत से नौकरी कर रहा है। मुझसे बार-बार क्षमा माँगकर जीजाजी ने लिखा था--उसका प्रारब्ध ही शायद उसे ऐसा जिद्दी बना गया है। यह रिश्ता फेरने में मुझे मृत्यु तुल्य कष्ट हो रहा है, पर उसे भी कैसे दोष दूँ।
"धारा नैव पतंति चातक मुखे मघस्य कि दूषनम्
यत्पूर्व विधिना ललाट लिखितं तन्मार्जित कः क्षमः?"
तब क्या जीजाजी ने पुत्री के ललाट लिखित प्रारब्ध को बाँच लिया था?
मैं के खेलूँ, तेर हाड़?
"मेरी हमउम्र हमजोलियाँ
अपने बेटों को
खेला रही हैं,
मैं किसे खेलाऊँ-
तेरे हाड़ को?"
आज, पुराने कपड़ों के बक्से को ठीक कर रही थी तो 'नेप्थलीन' में रसा-बसा मुझे एक बहुत पुराना पत्र मिला-“गत माह मैंने फिर एक कन्या को जन्म दिया है। पंडितजी ने कहा, मकर राशि, मिथुन लग्न में जन्मी है, इसी से नाम कहा, गंगा, गिरजा, खष्टी, मुझे इन तीनों में से एक भी नाम नहीं अँचा। तू तो कहानी लिखती है, कोई अच्छा-सा नाम लिख भेजना।"
बेचारी हीरा! इस बार उसका दाँव व्यर्थ ही गया था। किन्तु ऐसे दनादन बेटियाँ पैदा करना क्या उसके लिए अच्छा था? मैं ही तो उसे अपने साथ डॉ. खजानचन्द्र को दिखाने ले गई थी, क्षय का तक्षक तब उसकी नन्ही-सी छाती पर बैठा ही था, और जब मेरी ही उपस्थिति में डॉ. खजान ने उससे स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि उसे भविष्य में कठिन संयम से रहना होगा एवं पति का साहचर्य कभी भी उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है, तो 'वह तो लाल पड़ ही गई थी, मेरे भी कुँआरे कान लज्जा से लाल पड़ गए थे। तब वह दो ही पुत्रियों की जननी बनी थी।
उसके बाद जब भी छुट्टियों में घर जाती तो सुनती, उसने फिर एक पुत्री को जन्म दिया है। यह लम्बा सिलसिला वर्षों तक चलता रहा, जब भी उससे मिलने जाती, देखती एक कन्या उसकी गोद में है, दूसरी पेट में। पुत्र की कामना को व्यर्थ कर, जब उसकी सातवीं पुत्री ने जन्म लिया तो वह कंकाल-मात्र रह गई थी। मैं सोचती थी, कैसे विवाह करेगी इन सात-सात पत्रियों का? किन्तु पुत्रियों को ब्याहने में उसे विशेष कष्ट नहीं हुआ, गोरी-उजली गन्धर्व कन्याओं-सी उसकी पुत्रियाँ, जहाँ सत्रह-अठारह वर्ष की होतीं, उनके रूप-गुणों की चर्चा उनके लिए स्वयं रिश्ते ढूँढ लाती। सबसे छोटी का नाम मैंने ही धरा था-'ललिता'। उसी के लिए हीरा को सबसे अधिक चिन्ता थी। "तेरे जीजा ने इसे ऐसे सिर पर चढ़ा लिया है कि कहीं से बात आती है, तो कहती है-नहीं, मैं अभी पहँगी। कितना समझाती हूँ, पढ़ लिखकर क्या नौकरी करेगी? कहती है, हाँ-करूँगी। बाबूजी ने मेरी कुंडली देखकर कहा है, प्रभूत विद्या है मेरे भाग्य में और विदेश-यात्रा का स्पष्ट स्थिर योग है..."
वही स्थिर योग तो उसे ले डूबा। पिता को वह दैवज्ञ-मार्तंड मानकर ही पूजती थी। विद्या सम्बन्धी उनकी भविष्यवाणी जब पूरी हुई और उसने संस्कृत भूगोल में एम.ए. कर मुझे पत्र लिखा तो मैंने उसे एक बार फिर समझाया-“देख ललिता, यह डबल एम.ए. का युग्म गौरव मुझे तेरे भविष्य के प्रति अखरता है। क्या करेगी इन डिग्रियों का, क्या केवल दूसरे विषय में एम.ए. करने की उत्कंठा तुझे स्वयं अपनी कुंठा को छिपाने का प्रयास नहीं लगता। यदि करना ही था तो संस्कृत के ही किसी शोधकार्य में जुट जाती।"
पर वह मुझसे शायद नाराज हो गई थी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। इसी बीच सुना, हीरा नहीं रही। मैंने जब ललिता को अन्तिम बार देखा, वह इंटर की परीक्षा देकर घूमने अपनी बड़ी बहन के पास नैनीताल आई थी। लम्बी-छरहरी, कराल यष्टि! बरौनियाँ देखकर लगता ही नहीं था कि असली हैं। उनकी स्वाभाविकता मुझे असंदिग्ध लगी, बेचारी लड़की शायद जानती भी नहीं होगी कि अब नकली भवें भी खरीदी जा सकती हैं। उसकी कांचन देह से भी अधिक आकर्षक थी उसके हृदयाकार चेहरे की निर्दोष छवि। उसकी उसी छवि से मुग्ध होकर, मैंने जीजाजी को उसके लिए अपने भतीजे का रिश्ता भी भेजा था, किन्तु लौटती ही डाक से मेरा प्रस्ताव उस मूर्ख लड़की के पान के पत्ते-सा फेर दिया था। आज वही सुपात्र एक मल्टी-नेशनल कम्पनी में बादशाह-सी शानोशौकत से नौकरी कर रहा है। मुझसे बार-बार क्षमा माँगकर जीजाजी ने लिखा था--उसका प्रारब्ध ही शायद उसे ऐसा जिद्दी बना गया है। यह रिश्ता फेरने में मुझे मृत्यु तुल्य कष्ट हो रहा है, पर उसे भी कैसे दोष दूँ।
"धारा नैव पतंति चातक मुखे मघस्य कि दूषनम्
यत्पूर्व विधिना ललाट लिखितं तन्मार्जित कः क्षमः?"
तब क्या जीजाजी ने पुत्री के ललाट लिखित प्रारब्ध को बाँच लिया था?
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