नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
नूरबक्श को ऊपर भेज, उसने डाक्टर चक्रवर्ती को फोन किया, फिर अपने कमरे में
आकर उसने अपने सूटकेस में जल्दी-जल्दी इधर-उधर बिखरे कपड़े ठूसे। अभी चार बजे
थे, सुबह पाँच की मेल पकड़ने के लिए उसे साढ़े चार तक चल देना होगा। पलंग पर
अभी भी उस दीर्घ देह की छाप के हस्ताक्षर वैसे ही बने थे। वह हाथ से चादर की
सिलवटें बिठाने लगी, तो उसकी आँखें भर आईं। जिसे छः महीने पहले वह जानती भी
नहीं थी, उस भाग्यहीन के लिए उसका यह कैसा मोह था! न जाने क्या-क्या सोचकर
उसने फिर कागज उठाया और लिखने लगी-
"मान्यवर,
आपको बीमारी में असहाय छोड़कर जा रही हूँ, हो सके तो इस अकृतज्ञता के लिए
मुझे क्षमा करें। आपका कर्जा मैं बाबूजी का रुपया मिलते ही चुका दूंगी। मेरे
जीवन के कुछ सुखद क्षण यहीं बीते हैं इसी स्मृति के साथ आपसे विदा ले रही
हूँ!
-कुमुद"
नूरबक्श कब दरवाजे पर खड़ा हो गया है, वह देख भी नहीं पाई-
“सरकार," उसका काँपता स्वर सुन वह घबराकर खड़ी हो गई-कहीं क्रूर कुतूहलप्रिया
नियति फिर तो उसे लौह-शृंखलाबद्ध करने नहीं आ रही थी!
"क्या बात है, नूरबक्श?"
"साहब तो सरदर्द से छटपटा रहे हैं मिस साब, डाक्टर साब को फोन किया था आपने!"
“घबराओ नहीं नूरबक्श, डाक्टर साहब आते ही होंगे-मुझे पूछे तो कह देना मुझे
अचानक लखनऊ जाना पड़ा, मेरी माँ सख्त बीमार हैं, मैं इसी गाड़ी से जा रही
हूँ..."
"क्या कह रही हैं हुजूर, मैं अकेले साहब को कैसे सँभालूँगा! मत जाइए, मिस
साब, आज रुक जाइए, शायद साहब का बुखार शाम तक उतर जाए!"
"नहीं नूरबक्श, मुझे जाना ही होगा, मेरी माँ एकदम अकेली हैं।"
"पर आप कैसे जाएँगी मिस साहब, इत्ती सुबह तो रिक्शा भी नहीं मिलेगा-चलिए-मैं
आपको स्टेशन तक छोड़ आऊँ-काशी को बुलाकर साहब के कमरे में भेज दूँ, आप भी
थोड़ा रुकें..."
पर वह रुकी नहीं, एक बार राजकमल सिंह को देखकर वह स्वयं ही जाकर कोई रिक्शा
ढूँढ़ लेगी, यही सोचकर वह ऊपर गई-राजकमल सिंह चुपचाप पड़े थे, यह गहरी नींद
थी, या तीव्र ज्वर की बेहोशी? वह काँप गई, छिः छिः कैसी बातें सोचने लगी थी
वह। न जाने कैसी विचित्र गन्ध पाकर वह सहम गई-ठीक ऐसी ही गन्ध-बाबूजी की
मृत्यु के पूर्व उनके कमरे में उसका दम घोंट गई थी। क्या यही थी मृत्युगन्ध?
काँपकर वह बाहर निकल आई। काशी आकर बेंच पर न जाने कब आकर बैठ गई थी। उसने
बड़ी विद्रूपतापूर्ण कुटिल दृष्टि से उसे देखा, फिर मुँह फेर लिया। क्या वह
जान गई थी कि वह सदा के लिए हवेली छोड़कर जा रही है? क्या वह यह भी जान गई थी
कि कमरे में वह अकेली अन्तिम बार विदा लेने आई थी?
वह स्टेशन पहुंची तो गाड़ी यार्ड पर खड़ी थी। जल्दी-जल्दी टिकट लेकर नूरबक्श
ने उसे जनाने डिब्बे में बिठा दिया। गाड़ी जैसे उसी के लिए खड़ी थी, अधैर्य
की क्रुद्ध फुफकारें छोड़ता इंजन गतिमान हुआ-चलती ट्रेन के साथ-साथ नूरबक्श
चल रहा था। कुमुद ने हाथ बढ़ाकर उसे लिफाफा थमा दिया-"नूरबक्श साहब होश में
आएँ तो उन्हें दे देना और..." वह आगे कुछ नहीं कह सकी।
"इन्शाअल्ला जरूर होश में आएंगे, पर आप जल्दी लौट आइएगा, सरकार..."
"नूरबक्श," उसने अपने रुंधे गले को संयत कर कहा-“साहब होश में न आएँ तो इसे
फाड़कर फेंक देना..."
गाड़ी ने गति पकड़ ली थी-डिब्बे के साथ-साथ चल रहा नूरबक्श बहुत पीछे छूट
गया।
ठीक छः महीने पहले वह इसी स्टेशन पर क्लान्त शरीर और अवसन्न चित्त लेकर,
अकेली उतरी थी और आज वैसा ही क्लान्त शरीर और अवसन्न चित्त लेकर अकेली ही लौट
रही थी।
जिस हवेली को छोड़ आई थी, उसमें उसके चले जाने के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा।
आधी रात की निःस्तब्धता को चीरता टिट्टिभ का विलाप, तीव्र ज्वर से बेसुध पड़े
मरीज को शायद पल-भर के लिए जगा देगा, पीपल के पेड़ पर नित्य की भाँति उल्लू
बोलने लगेगा तब, शायद मालती अपने कमरे में उकड़ होकर अकेली बड़बड़ाने लगेगी।
हवेली के वामांग से आती ढोलक की थपेड़ों के साथ 'बन्ने घोड़ी' की गूंज
गूंजेगो और शिवकमल सिंह की हील-चेयर की खड़खड़। और स्वयं उसके कमरे में
दीवारों पर अंकित हस्ताक्षर-मरियम...मरियम...मरियम...। मरियम की पंखे से
झूलती निष्प्राण देह को तो सबने देख लिया था, किन्तु आज जिस दूसरी निष्प्राण
देह की अदृश्य केंचुली वह उतारकर टाँग आई है, उसे क्या कभी कोई देख पाएगा?
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