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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


"एक दिन मैं अपने कमरे में सो रहा था कि आधी रात को देखा, मरियम मेरे सिरहाने बैठी, एकटक मुझे देख रही है। मैं चौंककर उठ बैठा-यह क्या मिस जोजेफ, आप यहाँ क्या कर रही हैं? उसने मेरे दोनों हाथ कसकर पकड़ लिये-मुझसे आप यह पूछ रहे हैं? कैसे पुरुष हैं आप? क्या आपकी आँखें नहीं हैं, देख नहीं रहे आप! मेरा पूरा शरीर आपके प्रेम की ज्वाला में कैसा धधक रहा है! नारी का यह निर्लज्ज रूप मैं पहली बार देख रहा था, फिर भी मैंने अपने विवेक को साधकर कड़क से कहा-यह क्या पागलपन हो रहा है मिस जोजेफ, प्लीज गेट आउट-गेट आउट आई से। उसे एक प्रकार से धक्का देकर ही मैंने कमरे से बाहर किया और कुंडी चढ़ा दी। उस दिन उसे किसी ने मेरे कमरे में देख लिया होता तो अनर्थ हो जाता। उन दिनों मेरे दोनों भाई मेरे जानी दुश्मन बने, मेरी प्रतिष्ठा, मेरे सुनाम पर धब्बा पोतने हाथ में कालिख लिये घूम रहे थे। सोचा दूसरे दिन उठते ही उस छोकरी को नोटिस देना होगा। अपने वृद्ध मुंशी जी को बुलाकर सब स्थिति समझानी होगी...

"लेकिन दूसरे दिन उठा तो देखा मरियम के चेहरे पर बीती रात के अप्रिय प्रसंग का एक चिह्न भी नहीं था। वह नित्य की भाँति, अपना वही उत्फुल्ल चेहरा लिये काम में लग गई थी। उसने मेरा बिस्तर लगाया, डिक्टेशन लिया, करीने से मेरे कागज मेज पर लगाए, मालती को नहला-धुला उसके बाल बनाए। उसकी स्वाभाविक गतिविधि देख फिर मैंने उससे कहना उचित नहीं समझा। चलो, अच्छा हुआ, लड़की भले ही रास्ते से कुछ पलों के लिए भटकी हो, अब वह स्वयं ही बडी समझदारी से राह पर आ गई थी। देखते-ही-देखते तीन महीने बीत गए। पर इधर मुझे मरियम में फिर से कुछ बदलाव दिखने लगा था। काम करते-करते वह एकाएक गहरे सोच में डूब जाती, टाइप करने बैठती तो बीसियों गलतियाँ कर देती। मैं कभी-कभी बुरी तरह झंझला पडता-क्या बात है मिस जोजेफ, आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या? थोड़े दिन की छुट्टी लेकर घर हो आइए।-'कहाँ जाऊँगी सर? मेरा घर ही कहाँ है'--उसने कहा और उसकी डबडबाई आँखें देख मुझे उस गरीब पर तरस आ गया था। ठीक ही तो कह रही थी बेचारी, जाएगी कहाँ?

“पर बदलाव उसी में नहीं हुआ था, मालती उसे देखकर भड़कने लगी थी। वह बाल बनाने आती तो उसके हाथ से कंधा छीनकर दूर पटक देती। एक दिन तो उसने मरियम को बुरी तरह नोच-बकोट लिया। कहते हैं पशु-पक्षियों को विधाता ने अद्भुत शक्ति प्रदान की है। भावी संकट को भाँपने की अनुपम घ्राण शक्ति, जलजला हो या सैलाब, उसकी आसन्न सम्भावना से चौकन्ने हो घोड़े हिनहिनाने लगते हैं, गायें रम्भाने लगती हैं, पक्षी बसेरा छोड़ दूर उड़ जाते हैं, ऐसे ही उस भयावह आसन्न संकट को शायद मालती की अन्तश्चेतना ने भी दूर ही से देख उसे चौकन्नी बना दिया था। वह मरियम को देखते ही चीखने लगती-भगा दो, इसे भगा दो!

"काश, मैंने उसकी चेतावनी को मान लिया होता। एक दिन मैं सुबह सो ही रहा था कि काशी ने आकर द्वार भड़भड़ाए–'उठिए-उठिए सरकार, उस ईसाइन ने आत्महत्या कर ली है।'

"मैं भागता गया, तो देखा इसी पंखे से उसकी निष्प्राण देह झूल रही है। वीभत्स दृश्य था, जीभ बाहर निकल आई थी, नाक-मुँह से रक्त निकलकर चिबुक पर दाढ़ी-सा जम गया था। उफ! अभी भी नहीं भूल पाया हूँ मैं। स्टूल एक ओर लुढ़का पड़ा था, दूसरी ओर उसकी जीर्ण बाइबल के अधफटे पन्ने इधर-उधर उड़ रहे थे, लगता था बाइबल छाती से लगाकर ही वह सूली पर चढ़ी थी और जब देह निष्प्राण हुई होगी, तब बाइबल उस ऊँचाई से नीचे गिरने से औंधी होकर फट गई थी। बाइबल उठाई तो देखा उसके भीतर मेरे नाम लिखी एक चिट्ठी भी थी। मूर्ख लड़की ने मुझसे प्रेम किया था, यह उसने स्वीकार किया था-'सोचा था, आपने भले ही मुझे अपने कमरे से धक्का मारकर निकाल दिया हो, मैं आजीवन आपकी सेवा करती रहूँगी। पर मैं क्या जानती थी कि आपके प्रति मेरा यह अनन्य प्रेम ही एक दिन मेरा सर्वनाश कर देगा। एक दिन आधी रात को मैं इसी खिड़की पर खड़ी थी कि देखा, आप फौवारे के पास खड़े हँसकर मुझे हाथ के इशारे से बुला रहे हैं। मेरा कलेजा मुँह को आ गया-ऐ ईसू बाप, तूने मेरी सुन ली, मेरे कठोर हृदय प्रेमी के शुष्क हृदय को आखिर मेरे अटूट, सच्चे प्रेम ने जीत ही लिया! नाइटी ही पहने, मैं पागलों की तरह भागती गई और आपसे लिपट गई। दूसरे ही क्षण मैंने देखा, मैं जिस बाहुपाश में बन्दिनी बनी हूँ, वह केवल एक ही बाहु का छलनामय बाहुपाश है। वह आप नहीं, आपके मँझले भाई कृष्णकमल सिंह थे। मैं बहुत छटपटाई, नोचा-बकोटा पर उन्होंने अपने चौड़े पंजे से मेरा मुँह बन्द कर दिया। जब होश आया, तब मैं ओस से भीगी दूब पर पड़ी थी। अपने उतने बड़े सर्वनाश की बात मैं किससे कह सकती थी? सोचा था प्यारे ईसू से सब कुछ कह कनफेस कर उसी से दया की भीख माँगूंगी। मेरा इतना ही दोष है खुदा बाप, कि मैंने किसी से प्यार किया है। पर ईसू ने शायद मुझे माफ नहीं किया, सहसा अपने पाप का प्रमाण मुझे आतंकित कर गया, मेरी जो अवस्था थी उसे नर्स होकर मैं न पहचानती तो और कौन पहचानता? मुझे लगा, आपके शत्रु दोनों भाई, इस पाप का सूत्र आप ही से जोड़ेंगे-कहेंगे, मैं आपकी रक्षिता हूँ, आपके इस अवैध वंशधर की जननी। इसी से अपना मुकदमा लेकर अब उस खुदा बाप की अदालत में जा रही हूँ, जहाँ सदा दूध-का-दूध पानी-का-पानी ही रह जाता है।'

"हुआ वही, लाश को पुलिस ले गई, पोस्टमार्टम में गर्भस्थ तीन माह के शिशु की पुष्टि हुई। हारकर मुझे अपने उस व्यर्थ कलंक को मिटाने मरियम का पत्र अदालत में दिखाना पड़ा। मैं बेदाग निकल आया, पर मँझले भैया उसी दिन से मेरे लहू के प्यासे बन गए। सोचा था, सब बेच-बाचकर मालती को लेकर नाइजीरिया चला जाऊँगा। वहाँ मेरे मामा का बहुत बड़ा व्यवसाय है। उसी में अपनी पूँजी भी लगा दूँगा। पर अब..."

"सुनिए," कुमुद ने धीरे से अपना हाथ उनकी तप्त जकड़ से छुड़ा लिया-"आप अपने कमरे में जाइए, आपको बहुत बुखार है, चलिए मैं पहुँचा दूँ!"

“नहीं मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा-मुझे किसी का भय नहीं है। आज तक मैंने कौन सा सुख भोगा है, बताओ, बताओ जरा..." वह उत्तेजित होकर बैठ गए।

अँधेरे में दोनों एक-दूसरे को देख नहीं पा रहे थे। उजाला होता, तो शायद स्वभाव से ही भीरू कुमुद भी इतनी जोर से नहीं बोल पाती। उस रोबीले चेहरे को देख उसकी जीभ हमेशा तालू से सट जाती थी।

“आपकी तबीयत ठीक नहीं है सर, आप ऊपर चलें," उसने उन्हें ऐसे फुसलाया, जैसे किसी हठीले अबोध बालक को डरा-समझाकर गोद में उठा रही हो।

जब वह उन्हें सहारा देकर कमरे तक ले गई, तब एक पल को उसके कन्धे पर धरे हाथ ने उसे जकड़ने की चेष्टा की, किन्तु उसी क्षण फिर वह पकड़ ढीली पड़ गई-“कुमुद, कुमुद,” भर्राया, दुर्बल कंठ-स्वर एक क्षण को उसके कानों में फुसफुसाया-"तुम मेरे पास ही बैठी रहो कुमुद, मुझे डर लग रहा है..."

कुमुद ने उन्हें यत्न से बिस्तर पर लिटाकर चादर ओढ़ा दी। वह बाहर जाने को उद्धत हुई तो एक बार उसने पलंग पर क्लान्त अवसन्न पड़े राजकमल सिंह की ओर देखा। अब न उन्होंने उसे रुकने के लिए कहा, न आँखें खोलकर देखा-लगता था उनकी समस्त शक्ति चुक गई है और वह एक बार फिर अपनी उसी गूढ़ निद्रा में डूबते चले जा रहे हैं, जो पिछले एक हफ्ते से उन्हें खींचकर बड़ी दूर ले जाने की चेष्टा कर रही है।

कुमुद ने नीचे जाकर नूरबक्श को जगाया तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठा-"क्या बात है मिस साब, इतनी रात को आप यहाँ? साहब की तबीयत ठीक नहीं है क्या?"

"हाँ, नूरबक्श तुम साहब के पास जाकर बैठो, मैं चक्रवर्ती को फोन करती हूँ!"

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