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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


"कुमुद!"

वह अचकचाकर उठ बैठी, इस नाम से यहाँ उसे पुकारने वाला कौन हो सकता था, वह भी इतनी रात को, उसने घड़ी देखी। ठीक एक बजा था।

"कुमुद, द्वार खोलो!"

जीवन में इतनी भयभीत वह पहले कभी नहीं हुई थी। क्या दिवंगत मरियम ही तो कहीं छलनामय रूप धरकर उसका द्वार नहीं खटखटा रही थी? कौन है? उसने द्वार की दरार से देखने की चेष्टा की, पर अँधेरे में कुछ भी नहीं देख पाई। लपककर बत्ती जलाने का साहस भी उसे नहीं हो पा रहा था।

"कुमुद, मैं हूँ राजकमल!"

उस आदेश की अवज्ञा वह फिर नहीं कर पाई। दुर्बल, मुमूर्ष गृहस्वामी अपने ही द्वार पर दीन-हीन याचक बना खड़ा था। शरीर पर लिपटे शाल को और कसकर लपेट वह भीतर आकर निढाल हो कुमुद के पलंग पर ऐसी सहजता से लेट गए जैसे वह उन्हीं का पलंग हो। कुमुद ने लपककर, द्वार बन्द कर कुंडी चढ़ा दी। चोर की भाँति, दबे कदम रखती काशी कभी-कभी आधी रात को भी, उसके कमरे में आकर दरार से झाँक जाती थी।

न जाने कितनी देर तक दोनों जहाँ के तहाँ बने रहे। राजकमल कुमुद के पलंग पर ऐसे निश्चेष्ट पड़े थे, जैसे वहाँ तक आने में उनके दुर्बल शरीर की सब शक्ति चुक गई हो और मूर्ति-सी कुर्सी पकड़कर खड़ी कुमुद काठ बन गई थी।

यह क्या हो गया भगवान् ! इतने दिनों से ज्वर से दुर्बल, लगभग अचेत पड़ा यह मरीज, कैसे उतनी सीढ़ियाँ पार कर, उसके कमरे तक चला आया और क्यों?

तब ही अत्यन्त क्षीण मधुर स्वर के आह्वान ने उसे चौंका दिया-"डरो मत कुमुद, आओ यहाँ बैठो, तुमसे कुछ कहने आया हूँ..."

डरी-सहमी कुमुद कुर्सी पर ही बैठने लगी-

"नहीं उतनी दूर नहीं, पास आओ, तब ही तुम मेरी आवाज सुन सकोगी। जोर से बोलने की न शक्ति है, न इच्छा ! इन मनहूस हवेली की दीवारों के भी कान हैं..."

इतना ही बोलने में वह काँपने लगे।

कुमुद एक शब्द भी नहीं बोली।

“जो कुछ उस दिन हुआ, उसके लिए मैं बहुत लज्जित हूँ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मालती अपने दिमाग में यह फितूर पाल लेगी। पर दोष मेरा ही था, मैं तो उसकी यह दुर्बलता जानता था। उसने मरियम को लेकर भी ऐसा ही बावेला खड़ा किया था। इसी से जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा, सोचा तुम्हें उल्टे पैरों वापस कर दूँ। तुम इतनी छोटी होगी, इतनी..." अपना वाक्य अधूरा ही छोड़ उन्होंने एक दीर्घश्वास लेकर मुँह फेर लिया। एक-एक शब्द बोलने में भी उन्हें जैसे प्राणान्तक कष्ट हो रहा था।

बड़ी देर तक उन्हें उसी मुद्रा में पड़ा देख कुमुद घबरा गई, हड़बड़ाकर उसने टटोलकर उनका ललाट स्पर्श करने की चेष्टा की, उसी दिक्भ्रान्त काँपते हाथ को राजकमल सिंह ने कसकर पकड़ लिया-“जब तुमने इतनी कुशलता से मेरी उलझी गृहस्थी का ताना-बाना सुलझा दिया, और मालती तुमसे इतना हिल गई तो सच कहता हूँ कुमुद, वर्षों से मेरी छाती पर जमी लौह शिला को किसी ने दूर झटक दिया। मालती तुम्हें एक दिन भी न देखती तो बौरा जाती। तुम जब लखनऊ गई, तब उसे सँभालना कठिन हो गया था, न वह हमारे हाथ से खाना खाती, न दवा, बार-बार खिड़की से देखती कि कहीं तुम तो नहीं आ रही हो। तब ही एक कटु सत्य मुझे रह-रहकर कोंचने लगा..."

राजकमल सिंह का स्वर फुसफुसाहट में डूब गया-वह जैसे बीच-बीच में एकदम ही टूटते जा रहे थे।

"मैं सोचने लगा-क्या अकेली मालती ही तुम्हारे बिना व्याकुल हो जाती थी? तुम्हारे प्रति अपनी यह दुर्बलता, जिस दिन मैंने पहचान ली, उसी दिन से मैंने जानबूझ कर अपने और तुम्हारे बीच की दूरी बढ़ा दी। चार दिन के लिए बाहर जाता तो पन्द्रह दिन में लौटता। सोचा था, इस बार घर लौट तुम्हें मालती को सौंप, कुछ महीनों के लिए विदेश चला जाऊँगा। तुम मालती की देख-रेख मुझसे भी अच्छी तरह कर लोगी, यह विश्वास मुझे उसकी ओर से निश्चिन्त बना गया था। पर फिर भी इस विकार के लिए मेरा अन्तःकरण मुझे निरन्तर धिक्कार रहा था। मुझे लगता, मैं अपने ही से हार रहा हूँ। एक बार दूध से जला चुका हूँ, इसी से मट्ठा भी फूंक-फूंककर पीना होगा, यह भी मैं जानता हूँ, पर अपने उन्माद के बीच मालती मेरी इस दुर्बलता को ऐसे पकड़ लेगी, यह मैं नहीं जानता था। मरियम की बात दूसरी थी..."

एकाएक वह फिर चुप हो गए, बड़ी देर तक जब उन्होंने अपनी अधूरी आपबीती का सूत्र नहीं थामा, तब घबराकर कुमुद ने एक बार फिर उनके ललाट का स्पर्श किया। कहीं फिर तेज बुखार की बेहोशी में तो नहीं डूब रहे थे। यदि ऐसा ही हुआ तो अपने शयनकक्ष में अचेत पड़े गृहस्वामी की उपस्थिति के कलंक को क्या वह आसानी से मिटा पाएगी? कौन-सी कैफियत फिर उसे बचा पाएगी! राजकमल सिंह ने अपने ललाट पर धरी उस हिमशीतल हथेली को फिर अपनी ज्वरतप्त हथेली में बाँध छाती पर धर लिया-“मरियम सुन्दर थी, आकर्षक थी, किन्तु सच कहता हूँ कुमुद, उसके प्रति किसी विकार ने एक पल के लिए भी मेरे हृदय को मलिन नहीं किया। कभी-कभी मैं देखता, उस भावुक लड़की को मालती की देख-रेख की चिन्ता से भी अधिक चिन्ता मेरी देख-रेख की थी। अपने हाथों से मेरी मेज साफ करती, बिस्तर लगाती, यहाँ तक कि जूतों तक में स्वयं पालिश करती। एक दिन मैंने देख लिया तो मैंने कहा-यह आपका काम नहीं है मिस जोजेफ, नौकर किस लिए हैं! 'मुझे इस सुख से वंचित न करें, सर!' -उसकी आँखों में आँसू देख मैं दंग रह गया, कौन-सी ऐसी बात कह दी मैंने, जो यह विचित्र लड़की रो पड़ी!- 'मुझे महल में रहने का सुख आप ही ने जीवन में पहली बार दिया है, सर! कुछ मुझे भी तो करने दीजिए-' मैंने फिर भी यही सोचा, कि अनाथ लड़की है, जन्म से ही मद्रास के मिशनरी अनाथालय में पली है, इसी से कह रही है। मद्रास में जिस समाजसेवी संस्था में वह पली थी, उन्होंने इसकी बड़ी प्रशंसा लिखकर मुझे भेजी थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसकी सेवा त्रुटिहीन थी।

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