लोगों की राय

नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

278 पाठक हैं

अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


कुमुद का अयत्न से बँधा ढीला जूड़ा खुलकर उसके तप्त देह पर कृष्णवर्णी मेघखंड-सा बिखर गया। भय से ठंडे पड़ गए उसके कपोलों पर, सहसा राजकमल सिंह ने अपनी गर्म हथेली रख दी तो उसे लगा, किसी ने दहकता अंगारा रख दिया है-वह स्वयं एक पल को चेतना खो बैठी-एकाएक किसी को न देख पाने पर भी उसे लगा, कमरे में कोई है, अपने को बड़ी चेष्टा से उस कठोर तप्त बाहुपाश से छुड़ा, वह खुली केशराशि को जूड़े से लपेट रही थी कि उसने देखा द्वार पर मालती उसे आग्नेय दृष्टि से ऐसे देख रही है, जैसे पलक झपकते ही उसे भस्म कर देगी।

वह उसे समझाने लगी-"देखिए ना, बुखार की तेजी में यह मुझे आप समझ बैठे...आइए यहाँ आकर बैठिए, तब से मालती-मालती कर रहे हैं..." अचानक उसकी मुसकान उसके होंठों पर ही सूख गई, जिसे वह समझा रही थी, वह क्या समझने की स्थिति में थी? तब ही उसने देखा, कमरे में मालती ही अकेली नहीं खड़ी है, एक कोने में खड़ी काशी की कुटिल आँखें न जाने किसी भावी योजना के रंग-रस का जाल बुनने लगी थीं-

“आइए, यहाँ बैठिए!" बड़ी संयत शालीनता से कुमुद ने कुर्सी खींचकर सिरहाने रख दी। राजकमल सिंह को कुमुद का यही आह्वान, एक क्षण के लिए चैतन्य बना गया-“कौन? मालती...?" द्वार पर खड़ी पत्नी को अर्द्धचैतन्यावस्था में भी उन्होंने पहचान लिया था, क्षीण स्वर में अनन्त दुलार छलक आया। उन्होंने फिर उसे पुकारा-"आओ मालती! तुम तो मुझे देखने एक बार भी नहीं आई..."

पर मालती भीतर नहीं आई। थोड़ी देर तक देहरी पर ही खड़ी-खड़ी पति के श्रीहीन चेहरे को देखती रही, फिर पवन के वेग से मुड़कर अपने कमरे में चली गई। उसके पीछे-पीछे काशी भी गई और जाने से पहले एक बार फिर अपनी व्यंग्यात्मक वीभत्स मुद्रा से कुमुद को बींध वह द्वार के दोनों पट जोर से बन्द कर गई।

कुमुद की आँखों में विवशता के आँसू छलक आए। जीवन में ऐसी असहाय स्थिति का वह पहली बार अनुभव कर रही थी। जिस दिन अभागिन उमा के आचरण ने उसे समाज में मुँह दिखाने योग्य भी नहीं रखा था, उस दिन भी उसने नियति से हार नहीं मानी थी। किन्तु आज यह क्या कर बैठे राजकमल सिंह? उन्मादिनी मालती की उसे चिन्ता नहीं थी, उसने जो कुछ देखा, उसकी व्याख्या उसका विकृत मस्तिष्क कर भी लेगा तो दूसरे ही क्षण वह अपने उत्कट उन्माद में डूब जाएगी, पर काशी? वह बेहूदा औरत तो अब तक नौकरों के सागर-पेशे में नमक-मिर्च लगाकर सब कुछ कह चुकी होगी। और फिर भले ही वह तीव्र ज्वर का वायुविकार हो, सुननेवाले तो उसे दूसरा ही विकार समझेंगे। पत्नी-साहचर्य से वर्षों से विरहित, सुदर्शन गृहस्वामी के दौर्बल्य को भी समाज शायद क्षमा कर देगा, किन्तु अपने ही कमरे में नजरबन्द गृहस्वामिनी के उन्माद का लाभ उठा, जिस थाली में खा रही थी, उसी में छेद करनेवाली परिचारिका को क्या समाज क्षमा कर पाएगा? समाज की दृष्टि में तो वह वेतनभोगी परिचारिका ही थी-और आज वही निर्दोष परिचारिका लोगों की दृष्टि में अभिसारिका बन ही गई थी। क्या करे अब?

क्या तीव्र ज्वर की बेहोशी में डूबे, असहाय उदार स्वामी को अकेला ही छोड़ अपने कमरे में जाकर चुपचाप बोरिया-बिस्तर बाँध खिसक जाए? नहीं ऐसा वह नहीं कर सकती थी, इन छह महीनों में जिस उदार व्यक्ति ने उसकी सेवाओं का आवश्यकता से अधिक ही मूल्य चुकाया था, उसकी विवशता का लाभ उठा, वह उससे बिना कुछ कहे नहीं जा सकती थी। कम-से-कम इतना तो कहना ही होगा कि वह उनका दिया कर्ज बिना अदा किए नहीं भाग रही है। धीरे-धीरे एक-एक पाई चुका देगी, किन्तु कैसे मुँह दिखाएगी वह सबको? नौकर क्या कहेंगे! काशी ने तो उसे गृह-स्वामी की अंकशायिनी बना देख ही लिया था।

एक बार वह निःस्पन्द पड़े राजकमल सिंह की ओर बढ़ी-अस्फुट स्वर में वह न जाने क्या कह रहे थे, उसने झुककर सुनने की चेष्टा की, पानी माँग रहे थे क्या? खुले केश की लट का स्पर्श पाकर राजकमल सिंह ने एक पल को लाल-लाल आँखों से उसे देखा, फिर आँखें बन्द कर लीं-"क्या है सर? क्या माँग रहे हैं आप?" एक बार झुककर उसने अस्पष्ट स्वर को सुनने की चेष्टा की।

इस बार रुक-रुककर कही गई बड़बड़ाहट उसने स्पष्ट सुन ली-

गोरी सोक्त सेज पर
मुख पर डाले केस
चल खुसरो घर आपने
साँझ भई चहुँ देस

यह क्या कह रहे थे वह! खुसरो की ही भाँति मृत्यु-आह्वान को क्या उन्होंने भी सुन लिया था! वह चुपचाप बाहर निकल आई-काशी आती ही होगी, शायद उसने नूरबक्श, पियरी सबको उसकी कलंकगाथा सुना दी होगी। उसका अनुमान ठीक ही था। उस दिन रामपियरी भी दिन-भर उसके पास नहीं फटकी। दिन डूबे नित्य की भाँति मिट्टी की धूपदानी में लोबान का धुआँ देने उसके कमरे में आई तो उसका मुँह फूला हुआ था। काशी ने भी चाय की ट्रे एक प्रकार से मेज पर पटक दी थी। रात को वह मालती को नींद की गोली खिलाने ठीक आठ बजे जाया करती थी। उस दिन जब वह उस कमरे में गई, तब मालती उसे देख क्रुद्ध शेरनी-सी ही बिफर उठी थी। उसकी साँस, दमे के रोगी की साँस-सी तेज चलने लगी थी और दोनों नथुने रह-रहकर फड़क उठे थे। कुमुद को लगा, वह पानी का गिलास लेकर एक कदम भी आगे बढ़ी तो मालती उस पर टूट पड़ेगी।

हाथ का गिलास हाथ ही लेकर वह लौटने लगी। पर फिर उसी क्षण कठिन कर्त्तव्य-बोध ने उसे झकझोर दिया। रात-भर यदि मालती जगी रही तो अनर्थ हो सकता था, वह राजकमल सिंह के कमरे में जाकर उसकी निद्रा में भी व्याघात डाल सकती थी। जैसे भी हो, उसे गोली खिलानी ही होगी। अचानक उन्मादिनी उठकर खिड़की के पास खड़ी हो गई और बड़ी अंतरंगता से कुमुद की ओर देखकर मुसकराई जैसे कह रही हो-आओ, मेरे पास आओ, डर क्यों रही हो! उसी मधुर स्मित का आश्वासन पा साहस कर कुमुद गोली लेकर आगे बढ़ी ही थी कि मालती ने बड़ी अवज्ञा से मँह फेर लिया।

“आपको गोली खानी है, मैं ले आई हूँ। देखिए..." किन्तु मालती बड़ी उदासीनता से बाहर देखती रही, एक शब्द भी नहीं बोली।

कुमुद ने हँसकर कहा-“गोली नहीं खाएँगी तो नींद नहीं आएगी, नींद नहीं आई तो सिर में उसी दिन की तरह दर्द होगा।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book