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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है

मैं रोग-परीक्षा में शब्द और आकृति पर भी विशेष ध्यान देता हूँ-शब्द सुनने का प्रश्न ही नहीं उठता, रोगी अचेत है और आकृति...", वह एक क्षण को गम्भीर होकर चुप हो गए।

“आज तो चेहरे में बहुत फर्क है कविराजजी!" डाक्टर चक्रवर्ती ने बड़े उत्साह से कहा।

"नहीं रोगी की आकृति से मैं सन्तुष्ट नहीं हूँ। फिर आप ऐलोपैथी के डाक्टरों को शायद इस युग में यह सब हास्यास्पद लगेगा, किन्तु हम रोगों के साथ नक्षत्रों को भी घनिष्ठ रूप से जुड़ा मानते हैं। आपसे इन्होंने कहा है कि ज्वर बीस दिन पूर्व रविवार को चढ़ा था न?"

जी हाँ, बता रहे थे, सुबह से ही शरीर टूट रहा था, दिन भर हाईकोर्ट में रहना पड़ा, सन्ध्या को लौटे तो बुखार था।"

"डाक्टर चक्रवर्ती, हमारे शास्त्र में कहा गया है कि आधान, जन्म, निधन, प्रखर और विपतकर नक्षत्र में जो व्याधि उत्पन्न होती है, वह कष्टकर या मृत्युकर होती है-एक तो रविवार उस पर मूल नक्षत्र"

"पर कविराजजी, बुखार तो अभी तेज हुआ, सुबह एकदम उतर गया था-चार्ट दिखाऊँ-मिस जोशी, चार्ट लाइए जरा।"

देवोपम स्मित से सहसा कविराज का चेहरा उद्भासित हो उठा-"हम चार्ट नहीं देखते डाक्टर हम केवल नाड़ी और नक्षत्र देखते हैं--मेरा आपसे अनुरोध है, आप चिकित्सा कर रहे हैं, आप ही करते रहें..."

“किन्तु स्वयं राजकमल सिंह जी चाहते हैं कि आप ही उन्हें देखें..."

"देख तो लिया भाई, इसी से कह रहा हूँ, आप चिकित्सा करें, मैं नाम-जाप करूँगा।"

खिड़की पर खड़ी कुमुद अपने गृह की ओर जा रहे कविराज को देर तक देखती रही, सूर्य की प्रखर किरणों में उनका खल्वाट दर्पण-सा चमक रहा था। कैसा अद्भुत व्यक्तित्व था उनका, देखकर ही श्रद्धा होती थी, किन्तु ऐसे देवतुल्य व्यक्ति ने इतने सहजभाव से, रोग से पराजय कैसे स्वीकार कर ली?

डाक्टर चक्रवर्ती ने हार नहीं मानी, परामर्श के लिए उन्होंने लखनऊ से भी दो डाक्टरों को बुलवा लिया था, उन सबके सम्मिलित प्रयास से बाईसवें दिन राजकमल सिंह का बुखार एक बार फिर उतर गया। स्वस्थ, सबल देह एकदम ही मुरझा गई थी, कभी-कभी तन्द्रिल आँखों को बड़ी चेष्टा से खोलते और दिन-रात सिरहाने बैठी कुमुद को देख एक दीर्घश्वास लेकर मुँह फेर लेते। क्या उन्हें अपने रोग की असाध्यता ही ऐसा उदासीन बना रही थी? सारा दिन बुखार धीमा रहा, सन्ध्या होते वह फिर असह्य सिर-दर्द से छटपटाने लगे।

"बहुत दर्द है, सर? डाक्टर चक्रवर्ती को बुला लूँ?" कुमुद उनकी छटपटाहट देख बेहद घबरा गई थी। कभी वह उठने की चेष्टा करते, कभी दर्बल हाथों को छाती पर धरते और कभी बेचैन करवटें बदल कराहने लगते। कुमुद डाक्टर को फोन करने उठ ही रही थी कि लाल-लाल आँखें खोल उन्होंने तीव्र ज्वर से तप्त हाथ से कुमद के दोनों हाथ पकड़ लिए-“अब तुम कहीं मत जाना, मुझे छोड़कर मत जाना, बड़े भैया मुझे मार डालेंगे, मँझले भैया ने मेरे पीछे गुण्डे लगा दिए हैं। देखो-देखो वहाँ छिपकर ताक लगाए बैठे हैं, वह देखो तेल में भीगी लाठियाँ कैसी चमक रही हैं-उनसे कह दो मालती, पिछवाड़े के चारों खेत ले लें, मुझे छोड़ दें-सुन रही हो मालती?"

कुमुद कहना चाह रही थी-मैं मालती नहीं हूँ सर, कुमुद हूँ-पर उसके दोनों हाथ पकड़ दुर्बल राजकमल सिंह ने सहसा उसे छाती पर खींच लिया-

"नहीं, मैं अब तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा-तुम यहीं रहोगी--यहीं..."

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