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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


मालती ने तड़पकर उसे देखा, उन उग्न उन्मत्त आँखों को देखते ही कुमुद की मधुर हँसी उसके होंठों पर ही सूख गई, गर्म तवे पर पड़ी पानी की बूंद, जैसे एक क्षण को मोती-से उभार, विलीन हो गई हो। पलक झपकते ही उसके हाथ से गिलास छीन मालती ने दूर पटक दिया और दोनों हाथों से उसका गला दबोच लिया। इस आकस्मिक आक्रमण के लिए कुमुद प्रस्तुत नहीं थी। उसे लगा उसके पैरों से धरती धीरे-धीरे छूट रही है और वह त्रिशंकु बनी हवा में झूल रही है। कहाँ से आ गई थी इस उन्मादिनी में यह आसुरी शक्ति! चाहने पर, छटपटाने पर, तब ही क्रमशः अवचेतन हो रहे शरीर की पूरी शक्ति लगाकर वह चीखी-“बचाओ, बचाओ!" और उसकी वह आर्त, दुर्बल, करुण, चीख उस अशक्त रोगी को भी रोगशैया से वहाँ खींच लाई, जिसे डाक्टरों की मृत्युंजयी औषधियाँ भी पूर्ण चेतनावस्था में नहीं लौटा रही थीं।

"मालती, मालती-क्या कर रही हो, छोड़ो-छोड़ो उसे..." काँपते दुर्बल हाथों से धक्का मारकर मालती को पलंग पर गिरा, काँपती देह को किसी तरह साधते राजकमल सिंह कुर्सी पर लड़खड़ाकर बैठ गए। दोनों को विलग करने के प्रयास में भय से थर-थर काँपती कुमुद एक क्षण को उन्हीं की अशक्त देह पर जा गिरी थी। राजकमल सिंह कुर्सी का हत्था न पकड़ लेते तो शायद दोनों जमीन पर ही गिरते। भय से, आकस्मिक आघात से कुमुद थर-थर काँप रही थी, पर मालती पूर्ण रूप से संयत, सन्तुष्ट होकर पलंग पर उकड़ूँ बैठ, फिर बड़बड़ाने लगी थी। एक बार भी उसने आँख उठाकर कुर्सी पर बैठे पति को नहीं देखा।

राजकमल सिंह ने कुमुद को बाहर जाने का इशारा किया तो उसकी चेतना लौटी। अपने कमरे में पहुँचकर भी उसका हृतपिंड बुरी तरह काँप रहा था। गले की नसों को जैसे झिंझोड़ कर, मालती ने भीतर-ही-भीतर टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। क्यों किया उसने ऐसा? क्या उसके उत्कट उन्माद के बीच भी काल्पनिक सौत की संभावना, उसे ऐसा उग्र बना गई थी? अब उसका यहाँ रहना उचित नहीं था, उसकी नौकरी ही तो मालती को लेकर थी, उसी की देख-रेख के लिए उसकी नियुक्ति की गई थी, तब वह अब रह ही कैसे सकती थी! यह नित्य का भद्दा नाटक बन जाए, इससे पूर्व ही उसे चल देना होगा। यदि गिरते-पड़ते राजकमल सिंह वहाँ उस क्षण न आ गए होते तो क्या वह अपनी गर्दन उस सशक्त प्राणलेवा पकड़ से छुड़ा पाती? बड़ी देर तक ठंडे पानी से नहाने पर भी उसकी कनपटी की फड़कती रगें शांत नहीं हुईं, लग रहा था शरीर का सारा रक्त कंठनली में अटक उसकी साँस रोक रहा है। क्या करेगी वह अब? अचानक नौकरी छोड़कर घर पहुंचेगी, तो सब क्या कहेंगे? और यहाँ? यहाँ लोग उसे लेकर न जाने कैसी-कैसी मनगढन्त घिनौनी बातें फैलाएँगे। काशी की कृपा से उसके दुर्भाग्य का प्रकरण अब तक सब कहीं बाँचा जा चुका होगा। रात को पियरी खाना लेकर आई तो उसने लौटा दिया। एक बार भी वह राजकमल सिंह के कमरे में झाँकने नहीं गई।

सुबह जब उसकी आँखें खुलीं, तब उजाला ठीक से फैला भी नहीं था-सात बजे से फिर अपने मरीज की परिचर्या का भार सँभालना होगा। ठीक आठ बजे डाक्टर चक्रवर्ती आते थे। नहा-धोकर वह तैयार हुई और द्वार खोलकर चुपचाप बाहर निकल गई। देहात से आ रहे दूधवालों की साइकिल की टुन-टुन के अलावा, सड़क पर एकदम सन्नाटा था। सामने कविराज की लाल कोठी की बत्ती जल रही थी। जब कभी वह इस निभृत सड़क पर टहलने निकलती, कविराज के पूजागृह से आती गुग्गुल की मदिर सुगन्ध, श्लोकों की धुर आवृत्ति उसे एक पल को रोक लेती। इतनी बड़ी कोठी में विधुर कविराज अकेले रहते थे। पियरी ने ही बताया था कि "मरे मुर्दा की ठठरी में भी जान फूंकते रहे, मुला आपन मेहरारू केर रोग ठीक नाहीं कर पाए, भरी जवानी में चली गई, एक ठो बिटवा रहा, सो मेम बियाह लावा, पंडितजी लाठी मार-मार भगाय दिहिन।"

आज भी गुग्गुल की परिचित सुगन्ध ने उसे रोक लिया। अचानक उसके मस्तिष्क में बिजली-सी कौंधी-रातभर की उलझन, नौकरी छोड़ने के पशोपेश से वह एक क्षण ही में मुक्त हो सकती थी। उस दैवज्ञ के पास क्या मन की व्याधि का उपचार नहीं होगा? किसी मन्त्रपूत डोर में बँधी कुमुद धीरे-धीरे जाकर उनके द्वार पर खड़ी हो गई।

कविराज उनकी ओर पीठ किए 'विष्णु सहस्रनाम' का पाठ कर रहे थे, स्वयं प्रतिष्ठित मूर्ति से लग रहे कविराज की नग्न पीठ पर उगते सूर्य की पीताभ आभा पड़ उसे सुवर्णमय दंड के ऊपर धीर, निश्चल, निष्कम्प मंगल प्रदीप की लौ सतर होकर जल रही थी, पूरे कमरे में गुग्गुल की अवसन्न धून रेखा की सुगन्ध रसबस-सी गई थी। कविराज के मधुर कंठ से निकले श्लोकों की ध्वनि सुन कुमुद की आँखें स्वयं ही अश्रुसिक्त हो गईं। ठीक ऐसे ही तो उसके बाबूजी भी इन्हीं श्लोकों को पढ़ते थे, सुन-सुनकर ही उसे ये पंक्तियाँ कंठस्थ हो गई थीं-

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः।

वह आँखें बन्द कर वहीं बैठ गई-

रोगातो मुच्यते रोगाद् बद्धो मुच्यते बन्धनात्।
भयान्मुच्यते भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः।

रोगातुर पुरुष रोग से, बन्धन में पड़ा बन्धन से और भयभीत भय से, आपत्ति में पड़ा हुआ आपत्ति से छूट जाता है--विष्णु सहस्रनाम की इसी महिमा का तो बाबूजी भी पाठ करते थे।...

पाठ समाप्त कर कविराज उठे, पलटे और देहरी के बाहर बैठी कुमुद को देख ठिठक कर खड़े हो गए।

"कौन हो बेटी?"

हड़बड़ाकर कुमुद उठी, झुककर उसने प्रणाम किया-

"लगता है तुम्हें कहीं देखा है...” कविराजजी ने उसे गौर से देखा।

“जी हाँ, आपने मुझसे ही तो उस दिन राजा साहब का सिरहाना पश्चिम की ओर न करने को कहा था..."

"ओह ठीक-ठीक, अब याद आया, कर दिया था ना? देखो बेटी, पश्चिम में सूर्य डूबता है, इसी से सिरहाना पश्चिम में नहीं किया जाता क्यों कैसे हैं राजकमल?"

कुमुद ने उनके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया, चुपचाप खड़ी ही रह गई।

"क्यों बेटी, कुछ कहने आई हो क्या! आओ भीतर चली आओ-बैठो!"

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