नारी विमर्श >> एक थी रामरती एक थी रामरतीशिवानी
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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण
‘जा भाग, मेरी बहन ने कहा है, वह तुझसे कभी शादी नहीं करेगी।'
एक पल को कुमाऊँ का वह तत्कालीन सर्वाधिक चर्चित गबरू जवान, हतप्रभ रह गया, फिर हवा में वेग से बगटुट भागा। इसके बाद वह फिर कभी हमारी दहलीज पर नहीं दिखा बहुत दिनों, सुमित्रानन्दन पंत ने अपने कहानीसंग्रह ‘पाँच फूल' में लॉर्ड के उस व्यर्थ प्रणय-निवेदन पर एक कहानी भी लिख डाली। मुझे पुरस्कार तो तत्काल मिल गया, किन्तु अपनी उस अशिष्टता के लिए मैं आज तक अपने को क्षमा नहीं कर पाई।
जयन्ती अपने निश्चय पर अडिग थी। इस बीच वह एफ.ए. कर, आश्रम में पढ़ाने भी लगी थी, वार्डन भी बन गई थी। उसका अधिकांश समय, उत्तरायण में ही गुरुदेव के पास बीतता, वे स्वास्थ्य-लाभ को मसूरी जाते या अल्मोड़ा, जयन्ती अवश्य उनके साथ जाती। गाँधीजी आए तो जयन्ती को ही उनकी अगवानी के लिए चुना गया। प्रसिद्ध छायाकार शंभु साहा की ली गई वह तस्वीर, दर्शनीय थी। जयन्ती का सहारा लेकर कार से उतर रहे बापू, बा और काली टोपी पहने किंचित झुके खड़े गुरुदेव।
मैंने गत वर्ष पूछा- 'वह तस्वीर है क्या? या वह खो दी?'
‘पता नहीं कौन एल्बम से निकाल ले गया।'
‘और दार्जिलिंग से तुझे लिखी गुरुदेव की वह कविता?'
'वह भी न जाने कहाँ गई?'
मुझे कभी-कभी उस पर बड़ा गुस्सा आता, कैसी-कैसी अमूल्य वस्तुएँ खो दी थीं उसने। और कोई होता तो जीवनभर उन्हें भुनाता रहता। केवल गुरुदेव का बनाया एक चित्र, जो उसी के बनाए रंगों से बना था, अन्त तक उसके सिरहाने टँगा था।
बँगला में-'जयन्ती के-रवीन्द्रनाथ।' (जयन्ती को, रवीन्द्रनाथ) देखा जाए तो वह सच्चे अर्थ में एक सच्ची समर्पित समाजसेविका थी। न जाने कितनों को पढ़ाया। कितने कन्यादान किए। पति डाक्टर थे। मुक्तेश्वर में दर्शनीय बँगला था, फूलों से भरा उद्यान, सिखे-पढ़े, बीसियों नौकर, जयकिशन, बिशनदत्त, दौलत, सलीम। दो-दो आस्ट्रेलियन गायें हथिनी-सी खड़ी रहती--दूध-दही इतना, कि पूरे मुक्तेश्वर में बाँटा जाता। कोई भी गर्भवती महिला, वहाँ आकर जी भरकर धारोष्ण दुग्धपान कर सकती. थी। रसगुल्ले और सन्देश स्वयं अपने हाथों बनाती, वह भी ऐसे कि कलकत्ता के भीमनाग, बाम्बाजारी हलवाई लोहा मान जाएँ। उस पर मुफ़्त का इलाज और मुफ़्त की दवा!
एक बार किसी घसियारे की नाक भालू ने चबा दी। साहसी घसियारे की पत्नी, पति और जेब में उसकी कटी नाक लेकर, रात दो बजे हमारे द्वार पर खड़ी हो गई-मैं भी उन दिनों बहन के पास छुट्टियाँ बिताने आई थी। माघ का महीना और दनादन बर्फ के गलीचे बिछते जा रहे थे। ऋतु कलेवरी देवद्रुम दियासलाई की तीलियों से, तड़ाक-तड़ाक कर गिरे जा रहे थे। उस पर बिजली भी चली गई थी। बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं था।
उस नासिकाविहीन, अर्द्धमूर्छित घसियारे की पत्नी ने, जयन्ती के पाँव पकड़ लिए, ‘डॉक्टरनी ज्यू हो, किसी तरह मेरे घरवाले को बचा लो।' रक्तरंजित, नासिकाविहीन उस बड़े-बड़े हबड़े दाँतवाले बराहदंती अतिथि को देख, मैं डर से काँपती भीतर भाग गई। देखते ही देखते बरामदा खून से भर गया। लग रहा था अभागे के शरीर का पूरा खून नासिका गह्वर से बहता चला जा रहा था।
जयन्ती भीतर गई, जीजाजी से कहा तो वे भड़क गए-'इतनी रात को अस्पताल और फिर मैं क्या छुट्टी पर नहीं हूँ? कह दो डॉ. सेन के पास जाए, आजकल वे ही मेरा काम देख रहे हैं।'
'कैसी बात करते हो। तुम छुट्टी पर हो या न हो, तुम्हें उसे ले जाना ही होगा।' जयन्ती भी अड़ गई।
'अरे, सुबह ले चलेंगे, बर्फ देख रही हो? अभी दौलत के कमरे में सुला दो-'
'मैं तुम्हारे साथ रहूँगी-फिर, दौलत अपने कमरे में क्या परिन्दे को भी घुसने देता है?'
ठीक ही तो कह रही थी। दौलत हमारे मायके का नकचढ़ा नौकर था। पच्चीस वर्ष तक हमारे घर की दीवारें कँपाता रहा। जब माँ का गलग्रह बन गया तो उसे जयन्ती के पास भेज दिया गया। अपने जनाना लटकों-झटकों के कारण, वह पूरे शहर में चर्चित था। अपनी धोती का ही पल्ला वह सिर पर डाल लेता और कमर को झटककर ऐसे चलता कि लोग मुँह छिपाकर हँसने लगते। मेरे बड़े भाई ने, उसका नाम रख दिया था, ‘दमयन्ती', किन्तु दमयन्ती का क्रोध भयंकर था। दमयन्ती से साक्षात् दुर्वासा बना दौलत जयन्ती की रसोई का एकछत्र सम्राट था। व्यंग्य बाण छोडने में ऐसा निपण कि चोट सीधे मर्मस्थल पर होती। एक दिन जयन्ती की पार्कर क़लम खो गई। किसी बच्चे को भेजा गया कि जा दौलत से पूछ आ, कहीं मेरी क़लम तो नहीं देखी! वह रसोई में रोटी सेंक रहा था-पूछा तो बोला, 'हाँ, कह दो दौलत रोटियों पर दस्तखत कर रहा है!'
वही दौलत क्या उस अनजान नकटे को अपने कमरे में सुला सकता था? बहरहाल रात को ढाई बजे, उस माघी विभावरी में, मैं जयंती, जीजाजी, घसियारिन, किसी तरह राम-राम जपते अस्पताल पहुँचे। न कोई वार्ड बॉय था न कम्पाउंडर, मोमबत्ती जलाकर उजाला किया गया और डेढ़ गजी शिकार टॉर्च के प्रकाश में शल्यक्रिया आरम्भ हुई।
'नाक लाया है रे?' जीजाजी ने पूछा।
'हाँ सरकार, खलत्यून छू' (जेब में है) पत्नी ने रक्त से सनी, तिमिल के पत्ते में लिपटी नाक, तत्काल जेब से निकालकर पेश कर दी। दो-तीन घंटे शल्यक्रिया चली और नाक जोड़ दी गई। शल्य चिकित्सक के रूप में, जीजाजी की ख्याति दूर-दूर तक थी, न उस छोटे से शहर में आधुनिक सुविधाएँ थीं न मृत्युंजयी औषधियाँ, किन्तु कुछ प्रकृति का औदार्य और कुछ नियति नटी की कृपा। मरीज ठीक होने लगा-होता भी कैसे नहीं? प्रकृति ने बर्फ की चादर तह चादर बिछा, पूरा परिवेश ही इम्यून कर दिया था, फिर जहर भी कैसे फैलता?
एक पल को कुमाऊँ का वह तत्कालीन सर्वाधिक चर्चित गबरू जवान, हतप्रभ रह गया, फिर हवा में वेग से बगटुट भागा। इसके बाद वह फिर कभी हमारी दहलीज पर नहीं दिखा बहुत दिनों, सुमित्रानन्दन पंत ने अपने कहानीसंग्रह ‘पाँच फूल' में लॉर्ड के उस व्यर्थ प्रणय-निवेदन पर एक कहानी भी लिख डाली। मुझे पुरस्कार तो तत्काल मिल गया, किन्तु अपनी उस अशिष्टता के लिए मैं आज तक अपने को क्षमा नहीं कर पाई।
जयन्ती अपने निश्चय पर अडिग थी। इस बीच वह एफ.ए. कर, आश्रम में पढ़ाने भी लगी थी, वार्डन भी बन गई थी। उसका अधिकांश समय, उत्तरायण में ही गुरुदेव के पास बीतता, वे स्वास्थ्य-लाभ को मसूरी जाते या अल्मोड़ा, जयन्ती अवश्य उनके साथ जाती। गाँधीजी आए तो जयन्ती को ही उनकी अगवानी के लिए चुना गया। प्रसिद्ध छायाकार शंभु साहा की ली गई वह तस्वीर, दर्शनीय थी। जयन्ती का सहारा लेकर कार से उतर रहे बापू, बा और काली टोपी पहने किंचित झुके खड़े गुरुदेव।
मैंने गत वर्ष पूछा- 'वह तस्वीर है क्या? या वह खो दी?'
‘पता नहीं कौन एल्बम से निकाल ले गया।'
‘और दार्जिलिंग से तुझे लिखी गुरुदेव की वह कविता?'
'वह भी न जाने कहाँ गई?'
मुझे कभी-कभी उस पर बड़ा गुस्सा आता, कैसी-कैसी अमूल्य वस्तुएँ खो दी थीं उसने। और कोई होता तो जीवनभर उन्हें भुनाता रहता। केवल गुरुदेव का बनाया एक चित्र, जो उसी के बनाए रंगों से बना था, अन्त तक उसके सिरहाने टँगा था।
बँगला में-'जयन्ती के-रवीन्द्रनाथ।' (जयन्ती को, रवीन्द्रनाथ) देखा जाए तो वह सच्चे अर्थ में एक सच्ची समर्पित समाजसेविका थी। न जाने कितनों को पढ़ाया। कितने कन्यादान किए। पति डाक्टर थे। मुक्तेश्वर में दर्शनीय बँगला था, फूलों से भरा उद्यान, सिखे-पढ़े, बीसियों नौकर, जयकिशन, बिशनदत्त, दौलत, सलीम। दो-दो आस्ट्रेलियन गायें हथिनी-सी खड़ी रहती--दूध-दही इतना, कि पूरे मुक्तेश्वर में बाँटा जाता। कोई भी गर्भवती महिला, वहाँ आकर जी भरकर धारोष्ण दुग्धपान कर सकती. थी। रसगुल्ले और सन्देश स्वयं अपने हाथों बनाती, वह भी ऐसे कि कलकत्ता के भीमनाग, बाम्बाजारी हलवाई लोहा मान जाएँ। उस पर मुफ़्त का इलाज और मुफ़्त की दवा!
एक बार किसी घसियारे की नाक भालू ने चबा दी। साहसी घसियारे की पत्नी, पति और जेब में उसकी कटी नाक लेकर, रात दो बजे हमारे द्वार पर खड़ी हो गई-मैं भी उन दिनों बहन के पास छुट्टियाँ बिताने आई थी। माघ का महीना और दनादन बर्फ के गलीचे बिछते जा रहे थे। ऋतु कलेवरी देवद्रुम दियासलाई की तीलियों से, तड़ाक-तड़ाक कर गिरे जा रहे थे। उस पर बिजली भी चली गई थी। बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं था।
उस नासिकाविहीन, अर्द्धमूर्छित घसियारे की पत्नी ने, जयन्ती के पाँव पकड़ लिए, ‘डॉक्टरनी ज्यू हो, किसी तरह मेरे घरवाले को बचा लो।' रक्तरंजित, नासिकाविहीन उस बड़े-बड़े हबड़े दाँतवाले बराहदंती अतिथि को देख, मैं डर से काँपती भीतर भाग गई। देखते ही देखते बरामदा खून से भर गया। लग रहा था अभागे के शरीर का पूरा खून नासिका गह्वर से बहता चला जा रहा था।
जयन्ती भीतर गई, जीजाजी से कहा तो वे भड़क गए-'इतनी रात को अस्पताल और फिर मैं क्या छुट्टी पर नहीं हूँ? कह दो डॉ. सेन के पास जाए, आजकल वे ही मेरा काम देख रहे हैं।'
'कैसी बात करते हो। तुम छुट्टी पर हो या न हो, तुम्हें उसे ले जाना ही होगा।' जयन्ती भी अड़ गई।
'अरे, सुबह ले चलेंगे, बर्फ देख रही हो? अभी दौलत के कमरे में सुला दो-'
'मैं तुम्हारे साथ रहूँगी-फिर, दौलत अपने कमरे में क्या परिन्दे को भी घुसने देता है?'
ठीक ही तो कह रही थी। दौलत हमारे मायके का नकचढ़ा नौकर था। पच्चीस वर्ष तक हमारे घर की दीवारें कँपाता रहा। जब माँ का गलग्रह बन गया तो उसे जयन्ती के पास भेज दिया गया। अपने जनाना लटकों-झटकों के कारण, वह पूरे शहर में चर्चित था। अपनी धोती का ही पल्ला वह सिर पर डाल लेता और कमर को झटककर ऐसे चलता कि लोग मुँह छिपाकर हँसने लगते। मेरे बड़े भाई ने, उसका नाम रख दिया था, ‘दमयन्ती', किन्तु दमयन्ती का क्रोध भयंकर था। दमयन्ती से साक्षात् दुर्वासा बना दौलत जयन्ती की रसोई का एकछत्र सम्राट था। व्यंग्य बाण छोडने में ऐसा निपण कि चोट सीधे मर्मस्थल पर होती। एक दिन जयन्ती की पार्कर क़लम खो गई। किसी बच्चे को भेजा गया कि जा दौलत से पूछ आ, कहीं मेरी क़लम तो नहीं देखी! वह रसोई में रोटी सेंक रहा था-पूछा तो बोला, 'हाँ, कह दो दौलत रोटियों पर दस्तखत कर रहा है!'
वही दौलत क्या उस अनजान नकटे को अपने कमरे में सुला सकता था? बहरहाल रात को ढाई बजे, उस माघी विभावरी में, मैं जयंती, जीजाजी, घसियारिन, किसी तरह राम-राम जपते अस्पताल पहुँचे। न कोई वार्ड बॉय था न कम्पाउंडर, मोमबत्ती जलाकर उजाला किया गया और डेढ़ गजी शिकार टॉर्च के प्रकाश में शल्यक्रिया आरम्भ हुई।
'नाक लाया है रे?' जीजाजी ने पूछा।
'हाँ सरकार, खलत्यून छू' (जेब में है) पत्नी ने रक्त से सनी, तिमिल के पत्ते में लिपटी नाक, तत्काल जेब से निकालकर पेश कर दी। दो-तीन घंटे शल्यक्रिया चली और नाक जोड़ दी गई। शल्य चिकित्सक के रूप में, जीजाजी की ख्याति दूर-दूर तक थी, न उस छोटे से शहर में आधुनिक सुविधाएँ थीं न मृत्युंजयी औषधियाँ, किन्तु कुछ प्रकृति का औदार्य और कुछ नियति नटी की कृपा। मरीज ठीक होने लगा-होता भी कैसे नहीं? प्रकृति ने बर्फ की चादर तह चादर बिछा, पूरा परिवेश ही इम्यून कर दिया था, फिर जहर भी कैसे फैलता?
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