नारी विमर्श >> एक थी रामरती एक थी रामरतीशिवानी
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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण
माताहारी
आज अपनी एक ऐसी सहपाठिनी की स्मृति बरबस कोंचती हुई लिखने को विवश कर रही है, जिसके विषय में चाहने पर भी मैं आज तक नहीं लिख पाई, इसलिए भी कि एक बार ऐसे ही एक मृत सहपाठी से वर्षों बाद हुई मुठभेड़ को लिपिबद्ध करने पर पाठकों-आलोचकों ने मेरी कड़ी आलोचना की थी कि पढ़ी-लिखी होने पर भी ऐसी कहानी लिखकर मैं अंधविश्वास को प्रश्रय दे रही हूँ। मेरे पास, तब भी इस आलोचना का वही उत्तर था, जो आज है। मृत्यु के पश्चात् भी एक जीवन और है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं इसे अंधविश्वास नहीं मानती किन्तु जो अनुभव मुझे समय-समय पर हुए हैं, उनकी कोई सुदृढ़ वैज्ञानिक व्याख्या देने में, या कोई स्पष्ट प्रमाण देने में अक्षम हूँ। इसी से रहीम की सीख मान, अपनी न कह सकने की व्यथा मन-ही-मन रखती आई हूँ।
रहिमन निज मन की बिथा मन ही रखिये गोय
सुन अठिलैहें लोग सब बाँटि न लैहें कोय।
सुन अठिलैहें लोग सब बाँटि न लैहें कोय।
मारी वांग सीधे चीन से शान्तिनिकेतन पढ़ने आई थी। पहले कुछ दिनों प्रो. तान के
साथ चीना भवन में रही, फिर हमारे साथ छात्रावास में रहने चली आई। मुझे पहली ही
झलक में वह चीन्ही-पहचानी लगी थी। पर कहाँ देख सकती थी उसे? वह तो पहली बार
भारत आई थी, किन्तु जितनी ही बार उसे देखती, हँसने, बोलने, चलने, उठने, बैठने
की उसकी हर भंगिमा पूर्वपरिचय की स्मृति का वाष्प कंठ अवरुद्ध कर गोला बन, साँस
रोक देता। धीरे-धीरे परिचय घनिष्ठ होता गया। वह फिर मेरे ही कमरे में रहने आ
गई। मैंने उससे एक दिन कहा, 'जानती हो मारी, तुम्हें देखती हूँ, तो लगता है,
तुम्हें कहीं पहले भी देखा है, तुम्हारी हँसी, चाल, वार-बार बिखरी लटें सँवारने
उठा तुम्हारा हाथ, तुम्हारा ‘स्टुपिड' कहना, सब पहचाना-सा लगता है।'
वह बड़े ज़ोर से हँसी, 'तुम पूर्वजन्म में विश्वास करती हो? हमारे चीन में हम पूर्वजन्म में बहुत विश्वास करते हैं। हो सकता है पहले जन्म में हम दोनों सगी बहनें हों! क्योंकि मैंने भी जब तुम्हें पहली बार प्रो. तान के यहाँ देखा, तो तुम मुझे बहुत अच्छी लगी थीं। ऐसा लगा, जैसे तुम्हें वर्षों से जानती हूँ। चलो, अच्छा हुआ, इस जन्म ने हमें फिर मिला दिया!'
वह मुझसे एक वर्ष सीनियर थी, पर एक ही कक्षा में न होने पर भी हमारी मैत्री प्रगाढ़ हो गई। वह क्रिश्चियन थी, वह भी खाँटी क्रिश्चियन। नियमित रूप से बाइबल पढती, सडौल सचिक्कन ग्रीवा में एक सोने की पतली चेन लटकती रहती, उसके बीचों-बीच लटका रहता नन्हे हीरे जड़ा क्रॉस। उसके मंगोल चेहरे की बनावट में, उसकी तीखी नाक विरोधाभास-सी बनी उभरी रहती, तिरछी आँखों की तरल आर्द्रता, नन्हे क्यूपिड अधर, सर्वोपरि उसके पिटे सोने-सा रंग, छरहरा शरीर, जैसे विधाता ने साँचे में ढालकर बनाया हो, सतर कन्धे, नन्हे वक्ष का कठोर उभार और क़लम से बनाई गई भँवें, यद्यपि मैं जानती थी उस बनावट में विधाता के ही मौलिक हस्ताक्षर हैं, क्योंकि न वह कभी भ्रूभंग नोंचती, न कोई शृंगार प्रसाधन ही व्यवहार में लाती, केवल एक चीनी प्रलेप के, जो उसकी नानी ने एक छोटी-सी चाँदी की डिबिया में रख उसे भारत के प्रखर आतप प्रहार को झेलने के लिए दी थी, पर उसके पूरे शरीर से मायसोरी संदली अगरबत्ती की-सी अदृश्य धूम्र-रेखा, जहाँ भी वह बैठती पूरे कमरे में मँडराती रहती। तब क्या वह पद्मिनी की-सी जन्मजात स्वाभाविक सुगन्ध लेकर ही पृथ्वी पर अवतरित हुई थी?
मैंने एक दिन पूछ लिया, ‘मारी, तू क्या किसी ख़ास चीनी साबुन से नहाती है? तू बाथरूम से नहाकर निकलती है, तो बड़ी देर तक गुसलखाना, मह-मह महकता है, या कोई परफ्यूम लगाती है?'
'हूँ परफ्यूम', वह बड़ी अवज्ञा से हँसी, 'जा, देख आ मेरा सूटकेस। न कोई परफ़्यूम है, न कोई साबुन, स्टुपिड! मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है।'
फिर एक दिन वह अपने कपड़े लगा रही थी कि मैं पहुंच गई। ऐसा लगा, कोई इत्रदान खुल गया है। बहुत पहले अपने नानाजी का एक इत्रदान देखा था, इत्र की रिक्त शीशियों से भरा, पर कैसी सुगन्ध थी! शमातुलम्बर, हिना, खस, रश्के-मुनीर! यह इत्रदान मेरे नाना को दौलताबाद के नवाब ने कभी दिया था। चालीस साल से भी ऊपर हो गए हैं, फिर भी ख़ुशबू नहीं गई। वैसा ही कुछ-कुछ मारी का सूटकेस भी लगा। यहाँ तो ख़ाली शीशियाँ भी नहीं थीं, फिर भी न जाने कैसी मदमस्त खुशबू थी कि आँखें मुंदी जा रही थीं!
'यह हमारे ख़ानदान की खुशबू है, स्टुपिड!' मारी ने कहा, 'मेरी नानी मेरे नाना की तीसरी कनक्यूवाइन थीं। उन्हें यह वरदान था कि उनकी पीढ़ी-दरपीढ़ी जहाँ भी जाएँगी सुगन्ध का धुआँ बिखेरती जाएंगी।'
उसने मुझे एक बार जन्मदिन पर दो तकिया-ग़िलाफ़ दिये थे। चीनी कढ़ाई की मोहक जाली से वही ख़ुशबू आ रही थी। मैंने चट से अपने बक्से में साड़ियों के बीच सहेजकर रख लिए, पर जब कुछ दिनों बाद बक्सा खोला, तो तकिया-ग़िलाफ़ वहीं थे, पर ख़ुशबू गायब! तब, क्या मारी की नानी अन्यत्र सुगन्ध वितरित करने में कृपण थीं या अक्षम?
उधर मारी से मेरी मैत्री निरन्तर प्रगाढ़ होती जा रही थी। उधर पूर्व मित्रमंडली ने मुझसे नाता ही तोड़ लिया था। एक तो मारी अन्य छात्राओं को घास नहीं डालती थी, दूसरे उसकी शालीनता, उसका मोहक व्यक्तित्व, छात्रों में उसकी लोकप्रियता, उसके प्रति ईर्ष्या का कारण बन गई। एक तो वैसे ही, 'नारि न मोह नारिकर रूपा' वाली बात थी, दूसरे उसकी चाल-ढाल, बोल-चाल में एक अहंकारी लटका स्वयमेव आ गया था, यद्यपि उसे न अपने रूप का अहंकार था, न वैभव का, किन्तु कुछ बात उसमें ऐसी अवश्य थी कि जो किसी को भी लपककर उसके कन्धे पर हाथ रखने से रोक लेती थी।
वह अपने ढेर सारे चीनी अचारों की शीशियाँ लेकर भोजनालय में जाती, तो लड़कियाँ नाक-भौं सिकोड़कर फुसफुसाने लगतीं, 'न जाने मेंढक, साँप किस-किसका अचार लाई है, अभागी।' ग़नीमत थी कि वह साल-भर आश्रम में रहकर भी वाँग्ला नहीं सीख पाई थी, न सीखने की चेष्टा ही कर रही थी। उसके प्रति छात्राओं के क्रोध का एक कारण यह भी था।
मुझे भी उसकी मैत्री महँगी पड़ रही थी। अकेले में लड़कियाँ कहतीं, 'की हे कैमन लागलो बैंगेर अचार?' (क्यों री, कैसा लगा मेंढक का अचार?)
मारी के पास रेशमी चीनी लबादों का दर्शनीय संग्रह था। सुनहरे ड्रेगन बने चीनी चोगा पहन वह क्लास में जाती, तो एक ओर से घुटनों तक खुली लबादे की यवनिका से निकले उसकी सुडौल नग्न, गौरवर्णी कमनीय कलेवर पर पूरी क्लास की दृष्टि निबद्ध हो जाती। मैंने ही फिर उसे समझा-बुझा, हलकी तुरपन से उस मोहक यवनिका को मूंद दिया था।
मारी को घूमने का बहुत शौक़ था, पर उन दिनों हमारे छात्रावास 'श्री भवन' के नियम बहुत कठोर थे। दिन में तीन बार हाज़री ली जाती थी। सन्ध्या पाँच बजे के बाद छात्रावास के बाहर लगी बेंच पर ही बैठकर छात्राएँ बोल-बतिया सकती थीं। बुधवार को आश्रम की छुट्टी होती थी, रविवार को नहीं। रविवार को भी कक्षाएँ होती हैं, यह मारी समझ नहीं पाती थी। वह क्रिश्चियन थी, सैवंथ डे को मैं नहीं जा सकती। आस-पास कोई गिरजाघर भी तो नहीं है। यह कैसा अन्याय है!'
‘मारी, तू समझती क्यों नहीं? यहाँ ब्राह्म मन्दिर है, वहीं हम सबकी उपासना होती है। न यहाँ हिन्दुओं के लिए मन्दिर है, न मुसलमानों के लिए मस्ज़िद, न सिखों का गुरुद्वारा, न ईसाइयों का चर्च। इसी मूर्तिविहीन मन्दिर में हम सब एकसाथ बैठ अपने-अपने ईश्वर का स्मरण करते हैं, तू क्यों नहीं कर सकती?'
'नहीं, मुझे अपना गिरजाघर चाहिए।'
'तो बनवा ले।' मैंने खीझकर कहा, तो वह चुप हो गई, पर वह भी एक ही थी, इतवार को कभी क्लास में नहीं जाती थी। किसी ने गुरुदेव से शिकायत भी कर दी, पर वे इन बातों में बहुत उदार थे। किसी ने मारी को बाध्य नहीं किया।
एक दिन बोली, 'सुना है, यहाँ कहीं एक नील साहब की भुतही कोठी है। चल, उसे देख आएँ।'
मैं वह खंडहर कई बार देख चुकी थी। उसके पास ही एक मीठी झरबेरी का पेड़ था, जो फलते ही हम छात्र-छात्राओं की कृपा से बाँझ हो जाता। हम सभी वहाँ बेर खाने पहुँच जाते, यद्यपि वह क्षेत्र हमारे लिए वर्जित था। हमें छात्रावास की पुरानी नौकरानी चारु ने आगाह भी किया था, 'दीदी, ख़बरदार! कभी भी उस कोठी की देहरी मत लाँघना। वहाँ नील साहेबेर भूत टेने निये जावे। (वहाँ नील साहब का भूत तुम्हें खींच ले जाएगा।) मेरा जवान भतीजा राखाल दोस्तों के उकसाने पर बड़ी बहादुरी दिखाकर वहाँ पेशाब कर आया था। तीसरे ही दिन गर्दन तोड़ बुखार में चल बसा। बिना माँ-बाप के लड़के को मैंने ही पाल-पोसकर बड़ा किया था। मरने से पहले मेरा हाथ पकड़कर कहने लगा, 'पिसी, आमी जाच्छी। नील साहेब नीते ऐशे छ। पिसी गो खूब भालो माहने देबे। (बुआ, मैं जा रहा हूँ। नील साहेब लेने आए हैं। खूब अच्छीतनख़्वाह देंगे।) और श्याम माली का बेटा तीनकौड़ी दोस्तों से शर्त लगाकर गया कि देख लूँगा साले साहब को! वहीं करैत साँप ने डंस लिया। पानी भी नहीं माँग पाया। साँपों की बाँबी है वहाँ। ख़बरदार! दीदी, भूलकर भी वहाँ मत जाना।'
मैंने मारी से कहा, तो वह बोली, ‘अच्छा तू भीतर मत आना। मैं तो जाकर देखूगी उस साहब को। देखू तो सही कैसे ले जाता है मुझे!'
उस दिन बुधवार की छुट्टी थी। चार बजे की चाय पर पहुँच हाज़री देना ज़रूरी था। इसी से हम दोनों खाना खाते ही पिछवाड़े के द्वार से निकल गए।
पहुँचे तो घने जंगल के बीच, 'नील कुठी' बेलीगारद के खंडहर-सी खड़ी थी। कभी वह आलीशान इमारत निश्चय ही दर्शनीय रही होगी, किन्तु अब लम्बी टूटी खिड़कियाँ, भग्न द्वार, मकड़ी के जालों से घिरे रौशनदान, टूटकर लटक आया छत का भग्नावशेष, सबकुछ डरावना लग रहा था।
मैंने कहा, 'मारी, प्लीज़ चल, लौट चलें, मुझे डर लग रहा है।'
'स्टुपिड!' वह बोली, 'इतनी दूर क्या यह जंगल देखने आई हूँ? चलूँ, ज़रा नील साहब से तो मिल लूँ। देखू तो सही कैसा है, जवान या बुड्ढा !'
मैं उसे नहीं रोक पाई। वह निर्भीक लड़की दोनों हाथों से अपने से भी लम्बी काशगुच्छों की घास को हटाती दनदनाती भीतर चली गई। बीच के बड़े कमरे में खड़ी होकर उसने हँसकर दोनों हाथ हिलाकर कहा, 'अरी, चली आ भीतर! यहाँ कोई साहब-वाहब नहीं है। बड़ा मज़ा आ रहा है।'
मैंने चीख़कर कहा, 'लौट आ मारी, वहाँ साँपों की बाँबी है।'
वह मेरी बात अनसुनी कर सहसा घूम-घूमकर अदृश्य नील साहब को बुलाने लगी, ‘कम डाउन नील साहब, मैं चीन से तुमसे मिलने आई हूँ। देखने में बुरी नहीं हूँ साहब, कम डाउन!'
टूटी छत से छन-छनकर आती सूर्य की प्रखर किरणों से उद्भासित उसका पीतवर्णी चेहरा मुझे स्पष्ट दिख रहा था। एकाएक वही चेहरा काग़ज़-सा सफ़ेद बन गया। वह स्तब्ध मौन सन्नाटा, मुझे क्षण-भर पूर्व की चीख-पुकार के बाद अजीब लगा।
अभी तक तो वह बुलबुल-सी चहक रही थी!
तब क्या नील साहब को देख लिया था उसने?
‘मारी, प्लीज़ लौट आ!' मैंने कहा, तो उसने मुझे चौंककर देखा। उतनी दूर से भी मैं उसकी आतंकित आँखों की सहसा बदल गई पुतलियों को स्पष्ट देख पा रही थी। वह बार-बार इधर-उधर देख रही थी, जैसे किसी ने लौटने का हर द्वार अवरुद्ध कर दिया हो। क्या सचमुच ही किसी करैत ने डंस लिया था उसे? उसे कहीं कुछ हो गया, तो मैं किसे मुँह दिखा पाऊँगी, पर वह फिर प्रकृतिस्थ होकर लौट आई।
‘क्या हो गया मारी, तूने मुझे डरा ही दिया था। मैंने सोचा, तुझे साँप ने काट लिया है।'
वह हँसी, पर वह हँसी उसकी हँसी नहीं थी एक अजीब खिसियाई, डरीसहमी-सी हँसी, जिसे मैंने आज तक उसके ओठों पर नहीं देखा था।
हम तेज़ कदमों से लौटे और आते ही किचन की भीड़ में घुल-मिल गए। मार्ग-भर वह एक शब्द भी नहीं बोली। यह उसके स्वभाव के विपरीत था। वह तो एक पल भी चुप नहीं रह सकती थी। रात को भी केवल 'गुडनाइट' कह लेट गई, पर उसकी बदलती करवटें देख मैं समझ गई कि उसे नींद नहीं आ रही है।
'क्या बात है मारी, सच बता, तू डर गई है ना?'
'स्टुपिड!' वह बोली और मेरी ओर पीठ कर लेट गई, जैसे मुझसे आँखें न मिला पा रही हो। मैं समझ गई कि वह डरी अवश्य है पर अपने दौर्बल्य को स्वीकारना नहीं चाहती।
'मैंने कितनी बार समझाया था मारी, भीतर मत जा। कोई बात तो होगी, तब ही तो लोग कहते हैं। बड़ी बहादुर बनी थी ना!'
'ओह, प्लीज़, शट अप!' उसने ज़ोर से कहा और मुँह ढाँप लिया।
अपमानित होकर मैं अपने बिस्तर में चली आई। ऐसे वह कभी नहीं बोलती थी। मंजीरे-सी खनकती उसकी हँसी और मधुर मिश्री-सी वाणी ही तो उसकी विशेषता थी।
ऐसे ही पूरा सप्ताह बीत गया। मारी एकदम बदल गई थी। बड़ी देर तक बाइबल पढ़ती, बीच-बीच में क्रॉस को चूमकर माथे से लगाती और फिर चुपचाप पड़ी रहती। मेरी बातों का उत्तर भी अब वह केवल 'हाँ' या 'ना' में देती थी। पहले यही मारी अपनी मीठी आवाज़ में, अपना प्रिय गीत गुनगुनाती, पूरा कमरा गुलज़ार किए रहती थी-
वह बड़े ज़ोर से हँसी, 'तुम पूर्वजन्म में विश्वास करती हो? हमारे चीन में हम पूर्वजन्म में बहुत विश्वास करते हैं। हो सकता है पहले जन्म में हम दोनों सगी बहनें हों! क्योंकि मैंने भी जब तुम्हें पहली बार प्रो. तान के यहाँ देखा, तो तुम मुझे बहुत अच्छी लगी थीं। ऐसा लगा, जैसे तुम्हें वर्षों से जानती हूँ। चलो, अच्छा हुआ, इस जन्म ने हमें फिर मिला दिया!'
वह मुझसे एक वर्ष सीनियर थी, पर एक ही कक्षा में न होने पर भी हमारी मैत्री प्रगाढ़ हो गई। वह क्रिश्चियन थी, वह भी खाँटी क्रिश्चियन। नियमित रूप से बाइबल पढती, सडौल सचिक्कन ग्रीवा में एक सोने की पतली चेन लटकती रहती, उसके बीचों-बीच लटका रहता नन्हे हीरे जड़ा क्रॉस। उसके मंगोल चेहरे की बनावट में, उसकी तीखी नाक विरोधाभास-सी बनी उभरी रहती, तिरछी आँखों की तरल आर्द्रता, नन्हे क्यूपिड अधर, सर्वोपरि उसके पिटे सोने-सा रंग, छरहरा शरीर, जैसे विधाता ने साँचे में ढालकर बनाया हो, सतर कन्धे, नन्हे वक्ष का कठोर उभार और क़लम से बनाई गई भँवें, यद्यपि मैं जानती थी उस बनावट में विधाता के ही मौलिक हस्ताक्षर हैं, क्योंकि न वह कभी भ्रूभंग नोंचती, न कोई शृंगार प्रसाधन ही व्यवहार में लाती, केवल एक चीनी प्रलेप के, जो उसकी नानी ने एक छोटी-सी चाँदी की डिबिया में रख उसे भारत के प्रखर आतप प्रहार को झेलने के लिए दी थी, पर उसके पूरे शरीर से मायसोरी संदली अगरबत्ती की-सी अदृश्य धूम्र-रेखा, जहाँ भी वह बैठती पूरे कमरे में मँडराती रहती। तब क्या वह पद्मिनी की-सी जन्मजात स्वाभाविक सुगन्ध लेकर ही पृथ्वी पर अवतरित हुई थी?
मैंने एक दिन पूछ लिया, ‘मारी, तू क्या किसी ख़ास चीनी साबुन से नहाती है? तू बाथरूम से नहाकर निकलती है, तो बड़ी देर तक गुसलखाना, मह-मह महकता है, या कोई परफ्यूम लगाती है?'
'हूँ परफ्यूम', वह बड़ी अवज्ञा से हँसी, 'जा, देख आ मेरा सूटकेस। न कोई परफ़्यूम है, न कोई साबुन, स्टुपिड! मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है।'
फिर एक दिन वह अपने कपड़े लगा रही थी कि मैं पहुंच गई। ऐसा लगा, कोई इत्रदान खुल गया है। बहुत पहले अपने नानाजी का एक इत्रदान देखा था, इत्र की रिक्त शीशियों से भरा, पर कैसी सुगन्ध थी! शमातुलम्बर, हिना, खस, रश्के-मुनीर! यह इत्रदान मेरे नाना को दौलताबाद के नवाब ने कभी दिया था। चालीस साल से भी ऊपर हो गए हैं, फिर भी ख़ुशबू नहीं गई। वैसा ही कुछ-कुछ मारी का सूटकेस भी लगा। यहाँ तो ख़ाली शीशियाँ भी नहीं थीं, फिर भी न जाने कैसी मदमस्त खुशबू थी कि आँखें मुंदी जा रही थीं!
'यह हमारे ख़ानदान की खुशबू है, स्टुपिड!' मारी ने कहा, 'मेरी नानी मेरे नाना की तीसरी कनक्यूवाइन थीं। उन्हें यह वरदान था कि उनकी पीढ़ी-दरपीढ़ी जहाँ भी जाएँगी सुगन्ध का धुआँ बिखेरती जाएंगी।'
उसने मुझे एक बार जन्मदिन पर दो तकिया-ग़िलाफ़ दिये थे। चीनी कढ़ाई की मोहक जाली से वही ख़ुशबू आ रही थी। मैंने चट से अपने बक्से में साड़ियों के बीच सहेजकर रख लिए, पर जब कुछ दिनों बाद बक्सा खोला, तो तकिया-ग़िलाफ़ वहीं थे, पर ख़ुशबू गायब! तब, क्या मारी की नानी अन्यत्र सुगन्ध वितरित करने में कृपण थीं या अक्षम?
उधर मारी से मेरी मैत्री निरन्तर प्रगाढ़ होती जा रही थी। उधर पूर्व मित्रमंडली ने मुझसे नाता ही तोड़ लिया था। एक तो मारी अन्य छात्राओं को घास नहीं डालती थी, दूसरे उसकी शालीनता, उसका मोहक व्यक्तित्व, छात्रों में उसकी लोकप्रियता, उसके प्रति ईर्ष्या का कारण बन गई। एक तो वैसे ही, 'नारि न मोह नारिकर रूपा' वाली बात थी, दूसरे उसकी चाल-ढाल, बोल-चाल में एक अहंकारी लटका स्वयमेव आ गया था, यद्यपि उसे न अपने रूप का अहंकार था, न वैभव का, किन्तु कुछ बात उसमें ऐसी अवश्य थी कि जो किसी को भी लपककर उसके कन्धे पर हाथ रखने से रोक लेती थी।
वह अपने ढेर सारे चीनी अचारों की शीशियाँ लेकर भोजनालय में जाती, तो लड़कियाँ नाक-भौं सिकोड़कर फुसफुसाने लगतीं, 'न जाने मेंढक, साँप किस-किसका अचार लाई है, अभागी।' ग़नीमत थी कि वह साल-भर आश्रम में रहकर भी वाँग्ला नहीं सीख पाई थी, न सीखने की चेष्टा ही कर रही थी। उसके प्रति छात्राओं के क्रोध का एक कारण यह भी था।
मुझे भी उसकी मैत्री महँगी पड़ रही थी। अकेले में लड़कियाँ कहतीं, 'की हे कैमन लागलो बैंगेर अचार?' (क्यों री, कैसा लगा मेंढक का अचार?)
मारी के पास रेशमी चीनी लबादों का दर्शनीय संग्रह था। सुनहरे ड्रेगन बने चीनी चोगा पहन वह क्लास में जाती, तो एक ओर से घुटनों तक खुली लबादे की यवनिका से निकले उसकी सुडौल नग्न, गौरवर्णी कमनीय कलेवर पर पूरी क्लास की दृष्टि निबद्ध हो जाती। मैंने ही फिर उसे समझा-बुझा, हलकी तुरपन से उस मोहक यवनिका को मूंद दिया था।
मारी को घूमने का बहुत शौक़ था, पर उन दिनों हमारे छात्रावास 'श्री भवन' के नियम बहुत कठोर थे। दिन में तीन बार हाज़री ली जाती थी। सन्ध्या पाँच बजे के बाद छात्रावास के बाहर लगी बेंच पर ही बैठकर छात्राएँ बोल-बतिया सकती थीं। बुधवार को आश्रम की छुट्टी होती थी, रविवार को नहीं। रविवार को भी कक्षाएँ होती हैं, यह मारी समझ नहीं पाती थी। वह क्रिश्चियन थी, सैवंथ डे को मैं नहीं जा सकती। आस-पास कोई गिरजाघर भी तो नहीं है। यह कैसा अन्याय है!'
‘मारी, तू समझती क्यों नहीं? यहाँ ब्राह्म मन्दिर है, वहीं हम सबकी उपासना होती है। न यहाँ हिन्दुओं के लिए मन्दिर है, न मुसलमानों के लिए मस्ज़िद, न सिखों का गुरुद्वारा, न ईसाइयों का चर्च। इसी मूर्तिविहीन मन्दिर में हम सब एकसाथ बैठ अपने-अपने ईश्वर का स्मरण करते हैं, तू क्यों नहीं कर सकती?'
'नहीं, मुझे अपना गिरजाघर चाहिए।'
'तो बनवा ले।' मैंने खीझकर कहा, तो वह चुप हो गई, पर वह भी एक ही थी, इतवार को कभी क्लास में नहीं जाती थी। किसी ने गुरुदेव से शिकायत भी कर दी, पर वे इन बातों में बहुत उदार थे। किसी ने मारी को बाध्य नहीं किया।
एक दिन बोली, 'सुना है, यहाँ कहीं एक नील साहब की भुतही कोठी है। चल, उसे देख आएँ।'
मैं वह खंडहर कई बार देख चुकी थी। उसके पास ही एक मीठी झरबेरी का पेड़ था, जो फलते ही हम छात्र-छात्राओं की कृपा से बाँझ हो जाता। हम सभी वहाँ बेर खाने पहुँच जाते, यद्यपि वह क्षेत्र हमारे लिए वर्जित था। हमें छात्रावास की पुरानी नौकरानी चारु ने आगाह भी किया था, 'दीदी, ख़बरदार! कभी भी उस कोठी की देहरी मत लाँघना। वहाँ नील साहेबेर भूत टेने निये जावे। (वहाँ नील साहब का भूत तुम्हें खींच ले जाएगा।) मेरा जवान भतीजा राखाल दोस्तों के उकसाने पर बड़ी बहादुरी दिखाकर वहाँ पेशाब कर आया था। तीसरे ही दिन गर्दन तोड़ बुखार में चल बसा। बिना माँ-बाप के लड़के को मैंने ही पाल-पोसकर बड़ा किया था। मरने से पहले मेरा हाथ पकड़कर कहने लगा, 'पिसी, आमी जाच्छी। नील साहेब नीते ऐशे छ। पिसी गो खूब भालो माहने देबे। (बुआ, मैं जा रहा हूँ। नील साहेब लेने आए हैं। खूब अच्छीतनख़्वाह देंगे।) और श्याम माली का बेटा तीनकौड़ी दोस्तों से शर्त लगाकर गया कि देख लूँगा साले साहब को! वहीं करैत साँप ने डंस लिया। पानी भी नहीं माँग पाया। साँपों की बाँबी है वहाँ। ख़बरदार! दीदी, भूलकर भी वहाँ मत जाना।'
मैंने मारी से कहा, तो वह बोली, ‘अच्छा तू भीतर मत आना। मैं तो जाकर देखूगी उस साहब को। देखू तो सही कैसे ले जाता है मुझे!'
उस दिन बुधवार की छुट्टी थी। चार बजे की चाय पर पहुँच हाज़री देना ज़रूरी था। इसी से हम दोनों खाना खाते ही पिछवाड़े के द्वार से निकल गए।
पहुँचे तो घने जंगल के बीच, 'नील कुठी' बेलीगारद के खंडहर-सी खड़ी थी। कभी वह आलीशान इमारत निश्चय ही दर्शनीय रही होगी, किन्तु अब लम्बी टूटी खिड़कियाँ, भग्न द्वार, मकड़ी के जालों से घिरे रौशनदान, टूटकर लटक आया छत का भग्नावशेष, सबकुछ डरावना लग रहा था।
मैंने कहा, 'मारी, प्लीज़ चल, लौट चलें, मुझे डर लग रहा है।'
'स्टुपिड!' वह बोली, 'इतनी दूर क्या यह जंगल देखने आई हूँ? चलूँ, ज़रा नील साहब से तो मिल लूँ। देखू तो सही कैसा है, जवान या बुड्ढा !'
मैं उसे नहीं रोक पाई। वह निर्भीक लड़की दोनों हाथों से अपने से भी लम्बी काशगुच्छों की घास को हटाती दनदनाती भीतर चली गई। बीच के बड़े कमरे में खड़ी होकर उसने हँसकर दोनों हाथ हिलाकर कहा, 'अरी, चली आ भीतर! यहाँ कोई साहब-वाहब नहीं है। बड़ा मज़ा आ रहा है।'
मैंने चीख़कर कहा, 'लौट आ मारी, वहाँ साँपों की बाँबी है।'
वह मेरी बात अनसुनी कर सहसा घूम-घूमकर अदृश्य नील साहब को बुलाने लगी, ‘कम डाउन नील साहब, मैं चीन से तुमसे मिलने आई हूँ। देखने में बुरी नहीं हूँ साहब, कम डाउन!'
टूटी छत से छन-छनकर आती सूर्य की प्रखर किरणों से उद्भासित उसका पीतवर्णी चेहरा मुझे स्पष्ट दिख रहा था। एकाएक वही चेहरा काग़ज़-सा सफ़ेद बन गया। वह स्तब्ध मौन सन्नाटा, मुझे क्षण-भर पूर्व की चीख-पुकार के बाद अजीब लगा।
अभी तक तो वह बुलबुल-सी चहक रही थी!
तब क्या नील साहब को देख लिया था उसने?
‘मारी, प्लीज़ लौट आ!' मैंने कहा, तो उसने मुझे चौंककर देखा। उतनी दूर से भी मैं उसकी आतंकित आँखों की सहसा बदल गई पुतलियों को स्पष्ट देख पा रही थी। वह बार-बार इधर-उधर देख रही थी, जैसे किसी ने लौटने का हर द्वार अवरुद्ध कर दिया हो। क्या सचमुच ही किसी करैत ने डंस लिया था उसे? उसे कहीं कुछ हो गया, तो मैं किसे मुँह दिखा पाऊँगी, पर वह फिर प्रकृतिस्थ होकर लौट आई।
‘क्या हो गया मारी, तूने मुझे डरा ही दिया था। मैंने सोचा, तुझे साँप ने काट लिया है।'
वह हँसी, पर वह हँसी उसकी हँसी नहीं थी एक अजीब खिसियाई, डरीसहमी-सी हँसी, जिसे मैंने आज तक उसके ओठों पर नहीं देखा था।
हम तेज़ कदमों से लौटे और आते ही किचन की भीड़ में घुल-मिल गए। मार्ग-भर वह एक शब्द भी नहीं बोली। यह उसके स्वभाव के विपरीत था। वह तो एक पल भी चुप नहीं रह सकती थी। रात को भी केवल 'गुडनाइट' कह लेट गई, पर उसकी बदलती करवटें देख मैं समझ गई कि उसे नींद नहीं आ रही है।
'क्या बात है मारी, सच बता, तू डर गई है ना?'
'स्टुपिड!' वह बोली और मेरी ओर पीठ कर लेट गई, जैसे मुझसे आँखें न मिला पा रही हो। मैं समझ गई कि वह डरी अवश्य है पर अपने दौर्बल्य को स्वीकारना नहीं चाहती।
'मैंने कितनी बार समझाया था मारी, भीतर मत जा। कोई बात तो होगी, तब ही तो लोग कहते हैं। बड़ी बहादुर बनी थी ना!'
'ओह, प्लीज़, शट अप!' उसने ज़ोर से कहा और मुँह ढाँप लिया।
अपमानित होकर मैं अपने बिस्तर में चली आई। ऐसे वह कभी नहीं बोलती थी। मंजीरे-सी खनकती उसकी हँसी और मधुर मिश्री-सी वाणी ही तो उसकी विशेषता थी।
ऐसे ही पूरा सप्ताह बीत गया। मारी एकदम बदल गई थी। बड़ी देर तक बाइबल पढ़ती, बीच-बीच में क्रॉस को चूमकर माथे से लगाती और फिर चुपचाप पड़ी रहती। मेरी बातों का उत्तर भी अब वह केवल 'हाँ' या 'ना' में देती थी। पहले यही मारी अपनी मीठी आवाज़ में, अपना प्रिय गीत गुनगुनाती, पूरा कमरा गुलज़ार किए रहती थी-
I have lost my heart in Budapest
On that night in the middle of June
Now I can't forget my Budapest
That night and that moon and that June.
On that night in the middle of June
Now I can't forget my Budapest
That night and that moon and that June.
कहाँ गया वह गीत और कहाँ गई वह गानेवाली?
मैंने इस बार उसके दोनों हाथ पकड़ झल्लाकर उसे झकझोर दिया, ‘मारी, नाउ कम ऑन, टेल मी, तू ऐसी क्यों हो गई है? कहाँ जाना है तुझे?'
उसने अपनी तिरछी आँखों से मुझे देखा, 'मैं तुझसे झूठ बोली थी। मैंने उस दिन नील साहब को देखा था। उस दिन रौशनदान से झाँक रहा था वह। नीली आँखें, सुनहरे बाल और देवदूत-सा चेहरा! मैंने जब उसे पुकारा-हे नील साहब, कम डाउन डार्लिंग, व्हेयर आर यू? तब वह रौशनदान से कूदकर मेरे सामने खड़ा हो गया था, ‘हीयर आई ऐम स्वीट हार्ट। सचमुच तुम बहुत सुन्दर हो मारी। मैं तुम्हें अवश्य ले जाऊँगा, पर जुलाई तक सब्र करना होगा, फिर हमेशा तुम्हें अपने इस कोट के भीतर छिपाकर रखूगा।' नानी को, माता-पिता को, छोटे भाई को, तुझको छोड़ने का दुख अवश्य होगा, पर अब मैं उसके बिना जी नहीं सकती।'
‘मारी, तू पागल हो गई है। यह सब चारु की बकवास का असर है। वह अपढ़ जाहिल औरत है।
'नहीं, चारु इस ग्रेट।'
और वह चली गई।
चीनी छात्रों का एक दल, उस बार गर्मी की छुट्टियाँ बिताने हमारे साथ अल्मोड़ा आया था। फाँचू, जो तब बौद्ध भिक्षु थे, अब डॉ. फाँचू श्रीलंका यूनिवर्सिटी में शायद रीडर हैं। लम्बा दीर्घ देही लजीला छात्र शेई और नन्हा-सा गोलमटोल चुंग। शेई ने ही मुझसे एक दिन कहा, ‘मारी से तुम्हारी मित्रता ठीक नहीं है। मैंने पहले भी सोचा, तुम्हें आगाह कर दूं।'
‘क्यों? मारी तो बहुत अच्छी लड़की है, एकदम भोली।' मैंने कहा।
'यही तो उसका दुर्भाग्य है। लोगों ने उसके भोलेपन का फ़ायदा उठाया। वह कम्युनिस्ट है और अब एक ख़तरनाक जासूस। कभी वेमौत मारी जाएगी।'
'क्या बकते हो? मैं विश्वास नहीं कर सकती।'
'एक दिन विश्वास करना पड़ेगा।'
सचमुच ही विश्वास करना पड़ा। छुट्टियाँ बिताकर लौटे तो कुछ ही दिन बाद शेई ने ही वह दुःसंवाद दिया। चीन पहुँचते ही मारी बन्दिनी बनाई गई, मुक़दमा चला और सज़ा मिली-सज़ाए मौत! कौन होगा वह जल्लाद, जिसने उस मराल ग्रीवा में फाँसी का फन्दा डाला होगा।
नील साहब का रहस्य मुझ तक ही सीमित रहा। मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। कहती भी तो कौन विश्वास करता?
सुना है, परलोक पहुँचते ही बिछुड़े स्वर्गत बन्धु-बान्धव नई आत्मा का स्वागत करने खड़े रहते हैं। उसी भीड़ में शायद अपने नील साहब के साथ खड़ी, मुझे अपनी तिरछी आँखोंवाली सदाबहार हँसी बिखेरती चीनी बांधवी भी मिल जाए। ओठों पर उसके उसी प्रिय गीत की सुरीली गुनगुनाहट-
मैंने इस बार उसके दोनों हाथ पकड़ झल्लाकर उसे झकझोर दिया, ‘मारी, नाउ कम ऑन, टेल मी, तू ऐसी क्यों हो गई है? कहाँ जाना है तुझे?'
उसने अपनी तिरछी आँखों से मुझे देखा, 'मैं तुझसे झूठ बोली थी। मैंने उस दिन नील साहब को देखा था। उस दिन रौशनदान से झाँक रहा था वह। नीली आँखें, सुनहरे बाल और देवदूत-सा चेहरा! मैंने जब उसे पुकारा-हे नील साहब, कम डाउन डार्लिंग, व्हेयर आर यू? तब वह रौशनदान से कूदकर मेरे सामने खड़ा हो गया था, ‘हीयर आई ऐम स्वीट हार्ट। सचमुच तुम बहुत सुन्दर हो मारी। मैं तुम्हें अवश्य ले जाऊँगा, पर जुलाई तक सब्र करना होगा, फिर हमेशा तुम्हें अपने इस कोट के भीतर छिपाकर रखूगा।' नानी को, माता-पिता को, छोटे भाई को, तुझको छोड़ने का दुख अवश्य होगा, पर अब मैं उसके बिना जी नहीं सकती।'
‘मारी, तू पागल हो गई है। यह सब चारु की बकवास का असर है। वह अपढ़ जाहिल औरत है।
'नहीं, चारु इस ग्रेट।'
और वह चली गई।
चीनी छात्रों का एक दल, उस बार गर्मी की छुट्टियाँ बिताने हमारे साथ अल्मोड़ा आया था। फाँचू, जो तब बौद्ध भिक्षु थे, अब डॉ. फाँचू श्रीलंका यूनिवर्सिटी में शायद रीडर हैं। लम्बा दीर्घ देही लजीला छात्र शेई और नन्हा-सा गोलमटोल चुंग। शेई ने ही मुझसे एक दिन कहा, ‘मारी से तुम्हारी मित्रता ठीक नहीं है। मैंने पहले भी सोचा, तुम्हें आगाह कर दूं।'
‘क्यों? मारी तो बहुत अच्छी लड़की है, एकदम भोली।' मैंने कहा।
'यही तो उसका दुर्भाग्य है। लोगों ने उसके भोलेपन का फ़ायदा उठाया। वह कम्युनिस्ट है और अब एक ख़तरनाक जासूस। कभी वेमौत मारी जाएगी।'
'क्या बकते हो? मैं विश्वास नहीं कर सकती।'
'एक दिन विश्वास करना पड़ेगा।'
सचमुच ही विश्वास करना पड़ा। छुट्टियाँ बिताकर लौटे तो कुछ ही दिन बाद शेई ने ही वह दुःसंवाद दिया। चीन पहुँचते ही मारी बन्दिनी बनाई गई, मुक़दमा चला और सज़ा मिली-सज़ाए मौत! कौन होगा वह जल्लाद, जिसने उस मराल ग्रीवा में फाँसी का फन्दा डाला होगा।
नील साहब का रहस्य मुझ तक ही सीमित रहा। मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। कहती भी तो कौन विश्वास करता?
सुना है, परलोक पहुँचते ही बिछुड़े स्वर्गत बन्धु-बान्धव नई आत्मा का स्वागत करने खड़े रहते हैं। उसी भीड़ में शायद अपने नील साहब के साथ खड़ी, मुझे अपनी तिरछी आँखोंवाली सदाबहार हँसी बिखेरती चीनी बांधवी भी मिल जाए। ओठों पर उसके उसी प्रिय गीत की सुरीली गुनगुनाहट-
Now I can't forget my Budapest
And that night and that moon and that June.
And that night and that moon and that June.
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