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नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण


वे रहीम अब बिरछ कहँ


बचपन में हमें निंगल की कलम से श्रुतलेख लिखवाया जाता था, जिससे हमारी हस्तलिपि सदा सुन्दर बनी रहे। प्रथम पंक्ति गुरु लिखते और उन्हीं मुक्ताक्षरों को देख, हम वैसा ही खुशखत बनाने की चेष्टा करते। हमारे गुरु थे बचीराम लोहनी-गोरे-उजले, लम्बी काठी, उग्र तेज। ज़रा भी चूके तो खैर नहीं। उस पीढ़ी के गुरु की परिभाषा को प्रत्येक पल सार्थक करते कि बच्चों को जिस दिन से हमारा शिष्य बनाया उसी दिन से हड्डी तुम्हारी चमड़ी हमारी। उनकी लिखवाई पंक्तियाँ, लिखते-लिखते, हमें स्वयं कंठस्थ हो गईं और आज भी स्मृतिकलश में संचित हैं। वह जलधार छलकने नहीं पाई। उन्हीं की कभी लिखवाई श्रुतलेख की वह पंक्ति आज कितनी सार्थक लगती है :

वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकी छाँह गम्भीर।
इत उत बगियन देखियत, सेहँड़ कुटज करीर।

वे गम्भीर छायाप्रद वृक्ष जिनकी शीतल छाया में बैठ हमने अनायास ही बहुत कुछ सीख लिया था, आज शून्य में विलीन हो गए हैं।

वे सूरतें इलाही किस देश बसतियाँ हैं
अब जिनको देखने को आँखें तरसतियाँ हैं?

बीते काल को मुट्ठी में बाँधना छलनी में जलधारा को बाँधने जैसा ही असम्भव नहीं तो कठिन तो अवश्य है। जो भी हो, यह चेष्टा हमें कुछ सुखद क्षण अवश्य प्रदान करती है। इस युग की सभ्य-सुसंस्कृत पीढ़ी माने या न माने, सैकड़ों वर्ष पूर्व गाड़े गए अशरफियों से भरे इस घड़े की प्राप्ति उन्हें समृद्ध करने में अभी भी सक्षम है। भले ही अतीत की इन अशरफियों को कालचक्र ने काला करके लोहे-सा बना दिया हो, किन्तु खरा सोना कभी खोटा नहीं निकलता। इतना अवश्य है कि आज इस पीढ़ी के पास वह निकष नहीं रहा जिस पर इस सोने को कसकर वह इसका उचित मूल्य आँक सके। अनायास प्राप्त समृद्धि निश्चित रूप से रिश्तों को कमज़ोर कर देती है। अब वे दिन गए जब घर में बुजुर्ग की उपस्थिति से या गुरुजनों के नित्य-अभिवादन से आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होना स्वाभाविक समझा जाता था।

हम लोगों के लिए, जिन्होंने कृतयुग के सुख का सहस्रांश तो भोगा ही होगा, इस युग का नया अन्दाज, नई दृष्टि, निर्लज्ज स्वार्थपरता कभी-कभी असह्य हो उठती है। किन्तु बचीरामजी की कलम फिर विवेक का कन्धा थपथपा देती है :

रहिमन चुप है बैठिए देखि दिनन को फेर।

किन्तु हमने जिन पंक्तियों की सार्थकता को अपने जीवन की कसौटी पर साधकर उदरस्थ किया है, क्या वे सचमुच निरर्थक हो गई हैं?

राजनीति से लेकर साहित्य तक, गृहस्थ से लेकर संसार-त्यागी, दंडी संन्यासी तक सबकी परिभाषा बदल गई है। राजनीति में सफल वेश्या के गुणों को होना भर्तृहरि ने अनिवार्य माना है-सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च। किन्तु आज के राजनीतिज्ञ तो महज कॉलगर्ल बनकर रह गए हैं। देश की पूरी राजनीति जब तिहाड़ जेल में बन्द हो तो कैसी परुषा कैसी प्रियवादिनी! दंडी है तो विदेश में करोड़ों की लागत से बने आश्रम हैं। किन्तु मनुष्य मनुष्य को बहुत दिनों तक नहीं छल सकता। एक-न-एक दिन लतियाए जाते हैं और फिर चिमटा खनकाते हुए स्वदेश लौट आते हैं। अगर गृहस्थ हैं तो गृह की चिन्ताओं से मुक्त। आधा राजदंड जब से गृहिणियाँ सँभालने लगी हैं तब से 'तेरी भी चुप मेरी भी चुप'।

साहित्य का तो एकदम ही गिरगिटी कलेवर में प्रत्यावर्तन हो चुका है। पत्रिकाएँ (हिन्दी की) कब की गताय हो चुकी हैं। भारतीय लेखक-लेखिकाओं ने हिन्दी के दरिद्र बाजार से अपनी दुकानें हटा ली हैं। अंग्रेजी में लिखिए तो आप पलक झपकते ही यशःसिद्ध कवीश्वर बन जाते हैं। फिर क्यों हिन्दी में लिखें?

संगीत की तो और भी दुर्दशा है। आज वे बंदिशें जिनकी श्रुतिमधुर ध्वनि अब भी कानों में गूंजती है, टके की दो भी नहीं बिकतीं। अटपटी हिन्दी में बँधे संगीत के एल्बम जिनमें नर्तकियाँ अंग-प्रत्यंग मरोड़कर वह मुद्रा प्रदर्शित करती हैं जिसमें हमने कभी किसी प्राण त्यागते आसन्नमृत्यु मनुष्य को जूझते देखा है। हाथ-पैर पटकना, ऊर्ध्व श्वास में विचित्र ध्वनि निकालकर श्रोता को सहमा देना-यह आज का संगीत है। पहले बंदिश के बोल भले ही अश्लील हों, पर सुनते हुए वैसे लगते नहीं थे :

जोवनवा के सब रस लै गइले भँवरा पूँजी रे गूंजी। किन्तु आज के संगीत-रसिक द्वि-अर्थी बंदिशों में ज्यादा रस लेने लगे हैं।

आज से कुछ ही माह पूर्व, मेरी एक निकटस्थ आत्मीया ने मुझे यह कहकर लताड़ा था कि आपकी एप्रोच निगेटिव ही रहती है। कभी हँसी भी आती है। यदि ऐसा ही होता तो क्या मैं अपनी सुखी गृहस्थी को अनेकानेक अभावों के रहते दाँतों के बीच जीभ की तरह संत पाती? क्या अपनी सन्तान को ऐसी योग्य बना पाती कि आज लोग उनका उदाहरण देते कि सन्तान हो तो ऐसी? किन्तु अविवेकी नई पीढ़ी से कुछ कहना अपनी ही साँसों को व्यर्थ करना है।

निराशा बुरी चीज है, किन्तु केवल आशा की वैसाखी के सहारे चलना और भी बुरा है। समय के साथ-साथ हमारे खट्टे-मीठे अनुभवों की उठापटक हमें बहुत कुछ सिखा जाती है। वर्षों तक तेल पिलाई लाठी की भाँति हम सहज में नहीं टूटते। हमने अपमान का गर्जन-तर्जन सुना है। हम कई बार पारस्परिक विद्वेष के अंगारों से दागे गए हैं। हमने मानवता की स्वार्थपरता का नग्न निर्लज्ज नर्तन देखा है। ऐसे में निगेटिव या नकारात्मक दृष्टिकोण का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। हमने तो अपने पुत्र, पौत्र-पौत्रियों को यही आशीर्वाद दिया है :

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहु बहुत रघुनायक छोहू।।

यदि आपने हृदय से सन्तान को यह आशीर्वाद दिया है तो वह कभी संस्कारों से विच्युत नहीं हो सकती। यद्यपि अपने कार्यसंकुल जीवन में नितान्त समयाभाव ने उसे कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन अवश्य बनाया है, किन्तु जननी के हृदय से यह पंक्ति उतनी ही ईमानदारी से निकलती है और निकलती रहेगी : अजर अमर गुननिधि सुन होहू।

अभी कुछ मास पूर्व में एक पुरस्कार ग्रहण करने मुम्बई गई थी। अपनी पचास वर्ष पूर्व की सहपाठिनी के साथ सुखद समय बिताया। न जाने कितने सुख-दुख बाँटे, कितने अनबँटे रह गए!

वह भी मेरी ही भाँति कभी उस युग को देख चुकी थी। कभी सौन्दर्य, यश, ख्याति का प्रभूत सुख भोगा था। आज भी रहन-सहन, रुचि में कोई अन्तर नहीं आया था। अपनी कार थी, ड्राइवर था, दो-दो नौकरानियाँ थीं।

संगीत अभी कंठ से विलग नहीं हुआ था। चाह गई चिन्ता गई मनुआ बेपरवाह। किन्तु चिन्ता क्या सचमुच चली गई थी? कभी-कभी पुत्र का व्यवहार उसे अवश कर जाता था। पहले बच्चों के लिए पैसे बचाकर रखती थी। अब उन्हें मेरे पैसों की जरूरत ही कहाँ है? इसी से दाएँ-बाएँ दान कर रही हूँ-कभी हाजी अली के अस्पताल को, कभी वृद्धों के आश्रम को, कभी कैंसर अस्पताल को। अठहत्तर वर्ष की होने पर भी उसका एक पल व्यर्थ नहीं जाता। कभी पैकिंग केस बनाती है, कभी लिफाफे-सब बेचकर चैरिटी कोष में जमा कर देती है। उसके चेहरे पर मैंने ऐसी दिव्य ज्योति पहले कभी नहीं देखी।

इस वयस में भी वह उसी ठसके से बनी-टनी रहती है। न साड़ी की एक भाँज इधर, न उधर। सलीके के सिले ब्लाउज। कानों में, हाथ की अंगूठी में बहुमूल्य सॉलिटेयर। छोटी वधू विदेशिनी है-सास की दुलारी, अत्यन्त विवेकशाली। बीच-बीच में प्रवासी सन्तान से मिलने चली जाती है मेरी सहेली। एक वार अस्थिभंग हो चुका है। दूसरी बार पक्षाघात का हलका-सा झटका उसे सहमा अवश्य गया है, किन्तु वह हारी नहीं है।

मुझे वर्षों बाद एकान्त में पाकर एक-दो बार उसके धैर्य का बाँध टूटा भी। पर मैंने हँसी-हँसी में उसके नैराश्य को उड़ा दिया :

-जानती है ट्रेन में एक सज्जन ने मुझसे कहा-आप शिवानीजी हैं न? आपकी लिखी कुछ पंक्तियाँ मैंने अपने सिरहाने लिखकर टाँग दी हैं...

-मुझे इसकी याद भी नहीं थी कि तीस वर्ष पूर्व मैंने वे पंक्तियाँ लिखी थीं। एक कश्मीरी प्रतिवेशिनी की दुखगाथा सुनकर ही कलम मुखर हुई थी। उनका ज्येष्ठ पुत्र आई.पी.एस. था, छोटा आई.ए.एस.। बड़ा बेटा अपनी ससुराल में रहता था। छोटा बेटा अपने मन की शादी करके उस कश्मीरी यवन-कन्या के साथ माँ से अलग हो चुका था। बोली थी-मुझे मौत भी नहीं आती। ऐसा बेटा जिसे मैंने हरिवंश पुराण सुनकर पाया था, मुझे ऐसे भूल जाएगा, मैंने कभी सोचा भी नहीं था।
-तब ही मैंने वह कहानी लिखी थी और ये पंक्तियाँ- 'इस युग में बेटा माँ के गर्भ से निकलते ही सीधे सास के गर्भ में घुस जाता है। माँ तो दस माह में उसे निकाल देती है, सास फिर जिन्दगी-भर नहीं निकालती।'

मेरी सखी ठठाकर हँसी-वाह-वाह! क्या बात लिख दी है तूने! उसने मुझे बाँहों में भर लिया। चेहरे की उदासी न जाने कहाँ विलुप्त हो गई। एक बार फिर वह पचास वर्ष पूर्व की मेरी वही आनन्दी सखी बन गई, जो मेरी उक्तियों को अपनी डायरी में लिखकर सहेज लेती थी। आज भी उसने यही किया।

पहली बार यह सत्य मैंने हृदयंगम किया कि कलम में दमखम हो तो वह रुला भी सकती है, गुदगुदाकर हँसा भी सकती है।

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